एलएस हरदेनिया
Tuesday 9 July 2019 01:23:24 PM
लोकसभा में अभी हाल ही में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कश्मीर समस्या के लिए पंडित जवाहरलाल नेहरू को दोषी ठहराया है, विशेषकर उस स्थिति के लिए जिसमें एक तिहाई कश्मीर भारत के हाथ से निकल गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार के सभी प्रमुख नेता भी कश्मीर की समस्या के लिए समय-समय पर जवाहरलाल नेहरू को कठघरे में खड़ा करते रहते हैं। कश्मीर समस्या के इतिहास का बारीकी से अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि समस्या को उलझाने में ब्रिटेन और अमेरिका की अंतहीन साजिशों की निर्णायक भूमिका है। अमेरिका और ब्रिटेन और विशेषकर ब्रिटेन हमेशा यह चाहते रहे कि जम्मू-कश्मीर का पाकिस्तान में विलय हो जाए।
भारत के विभाजन के पहले ब्रिटेन के आखिरी वायसराय और गर्वनर जनरल लार्ड माउंटबेटन ने पूरा प्रयास किया था कि कश्मीर को पाकिस्तान में शामिल करा दिया जाए। कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने भी तब यह घोषणा कर दी थी कि वे कश्मीर को एक स्वतंत्र देश बनाकर उसे एशिया का स्विटजरलैंड बनाना चाहेंगे। इसी बीच ब्रिटेन की एक जानकारी के चलते पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया। यह हमला फौज ने नहीं, बल्कि पाकिस्तानी कबीलाई पठानों ने किया था। इस हमले की निंदा करते हुए कश्मीर के 'सर्वमान्य नेता' शेख अब्दुल्ला ने कहा कि हमलावर हथियारों से सुसज्जित थे, इन हमलावरों ने भयानक तबाही मचाई, लोगों को लूटा, महिलाओं के साथ बदसलूकी की, ये अपराधी थे, जिन्हें कुछ लोगों ने कश्मीर को आजाद कराने वाला शहीद बताया। इन्होंने बच्चों को मारा और कुरान तक का अपमान किया। ब्रिटेन के अप्रत्यक्ष समर्थन से हुए पठानों के इस हमले से भी जब कश्मीर को पाकिस्तान में नहीं मिलाया जा सका तो जनमत संग्रह की बात की जाने लगी। लॉर्ड माउंटबेटन को लगा कि यदि उस कश्मीर में जनमत संग्रह होगा, जिसका विलय भारत में हो चुका है तो उसका नतीजा भारत के हक में ही होगा।
लॉर्ड माउंटबेटन इस सोच के साथ बाद में लाहौर गए और उन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना से मुलाकात की। मोहम्मद अली जिन्ना ने सुझाव दिया कि दोनों देशों की सेनाओं को कश्मीर से हट जाना चाहिए। इसपर लॉर्ड माउंटबेटन ने पूछा कि आक्रमणकारी पठानों को वहां से कैसे हटाया जाएगा। इसपर मोहम्मद अली जिन्ना ने कहा कि यदि आप उन्हें हटाएंगे तो समझो कि अब किसी भी प्रकार की बात नहीं होगी। यहां यह उल्लेखनीय है कि भारत के विभाजन के पहले मोहम्मद अली जिन्ना कश्मीर गए थे। वहां उन्होंने यह कोशिश की थी कि कश्मीर के मुसलमान उनका साथ दें, परंतु कश्मीर के मुसलमानों ने स्पष्ट कर दिया कि वे भारत की आजादी के आंदोलन के साथ हैं तथा द्विराष्ट्र सिद्धांत के विरोधी हैं।
लाहौर से वापस आने पर लॉर्ड माउंटबेटन ने सुझाव दिया कि सारा मामला संयुक्तराष्ट्र संघ को सौंप दिया जाए। यही हुआ और 1 जनवरी 1948 को सारा मामला संयुक्तराष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद को सौंप दिया गया। जैसे ही मामला सुरक्षा परिषद को सौंपा गया ब्रिटेन ने भारत के विरुद्ध बोलना प्रारंभ कर दिया। ब्रिटेन और अमेरिका ने भारत की हमले की शिकायत को तुरंत भारत-पाकिस्तान के बीच विवाद का रूप दे दिया। सुरक्षा परिषद की बैठक में ब्रिटेन ने भारत की तीव्र शब्दों में निंदा की। ब्रिटेन ने भारत पर युद्धविराम का प्रस्ताव मंजूर करने का दबाव बनाया। ऐसा उस समय किया गया जब भारतीय सेना आक्रमणकारियों को पूरी तरह से खदेड़ने में सक्षम थी। ब्रिटेन और अमेरिका जानते थे कि यदि भारत ने आक्रमणकारियों को खदेड़ दिया तो कश्मीर की समस्या सदा के लिए समाप्त हो जाएगी, इसलिए उन्होंने जबरदस्त दबाव बनाकर युद्धविराम करवा दिया।
युद्धविराम का नतीजा यह हुआ कि कश्मीर का एक हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में बना रह गया और इस बीच जनमत संग्रह का प्रस्ताव भी स्वीकार कर लिया गया। जनमत संग्रह के साथ यह शर्त रखी गई कि पाकिस्तान कश्मीर से अपनी सेना हटा लेगा। इसके साथही यह शर्त भी रखी गई कि पाकिस्तान उन कबीलाईयों और पाकिस्तान के उन नागरिकों को वहां से हटाने का प्रयास करेगा जो कश्मीर में पाकिस्तान की ओर से युद्ध कर रहे थे। पाकिस्तान ने इस प्रस्ताव को स्वीकार तो कर लिया, परंतु ब्रिटेन और अमेरिका ने पाकिस्तान पर इसपर इस प्रस्ताव के अमल करने के लिए दबाव नहीं बनाया। इसका कारण था कि ये दोनों देश जानते थे कि यदि पाकिस्तान कश्मीर से अपनी फौज हटा लेगा तो वहां होने वाले जनमत संग्रह के नतीजे भारत के पक्ष में होंगे।
जब यह स्पष्ट हो गया कि जनमत संग्रह के माध्यम से ब्रिटेन और अमेरिका कश्मीर पर अप्रत्यक्ष रूप से अपना दबदबा नहीं रख पाएंगे तो उन्होंने एक और नई चाल चली। दोनों देशों ने सुझाव दिया कि कश्मीर के मामले का हल मध्यस्थता के माध्यम से निकाला जाए। इस संबंध में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली और अमेरिका के राष्ट्रपति हैरी ट्रूमेन ने औपचारिक प्रस्ताव भेजा। दोनों देशों ने नेहरूजी पर इतना दबाव बनाया कि उन्हें सार्वजनिक रूपसे अपनी असहमति जाहिर करनी पड़ी। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने यह आरोप लगाया कि ब्रिटेन और अमेरिका कश्मीर समस्या को सुलझाना नहीं चाहते, बल्कि अपने कुछ छिपे इरादों को पूरा करना चाहते हैं, बाद में यह भी पता लगा कि मध्यस्थता के माध्यम से ब्रिटेन और अमेरिका कश्मीर में विदेशी सेना भेजना चाहते थे। इस मामले की गंभीरता को समझते हुए सोवियत संघ ने अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करना आवश्यक समझा।
सोवियत संघ के प्रतिनिधि याकोव मौलिक ने सन 1952 के प्रारंभ में सुरक्षा परिषद को संबोधित करते हुए कहा कि पिछले चार वर्ष से कश्मीर की समस्या इसलिए हल नहीं हो पा रही है, क्योंकि ब्रिटेन और अमेरिका अपने साम्राज्यवादी इरादों को पूरा करने के लिए कश्मीर को अपने कब्जे में रखना चाहते हैं, इसलिए वे संयुक्तराष्ट्र संघ के माध्यम से ऐसे प्रस्ताव रख रहे हैं जिनसे कश्मीर इनकी फौज का अड्डा बन जाए। सोवियत संघ ने इसके बाद ब्रिटेन और अमेरिका के उन प्रस्तावों को वीटो का उपयोग करते हुए निरस्त करवा दिया, जिनके माध्यम से ये दोनों देश कश्मीर को अपना उपनिवेश बनाना चाहते थे। सन 1957 में पुनः सुरक्षा परिषद में कश्मीर के प्रश्न पर एक लंबी बहस हुई। बहस में भाग लेते हुए सोवियत प्रतिनिधि एए सोवोलेव ने दावा किया कि कश्मीर की समस्या बहुत पहले अंतिम रूपसे हल हो चुकी है। समस्या का हल वहां की जनता ने निकाल लिया है और तय कर लिया है कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। भारत में अनेक ऐसे मौके आए जब जवाहरलाल नेहरू ने ब्रिटेन और अमेरिका की कड़े शब्दों में निंदा की। इस दरम्यान अमेरिका ने पाकिस्तान को भारी भरकम सैन्य सहायता देना प्रारंभ कर दिया।
जवाहरलाल नेहरू ने बार-बार कहा कि वे किसी हालत में इन साम्राज्यवादी ताकतों के दबाव में नहीं आएंगे और ना ही अगले वर्ष और ना ही भविष्य में कभी। इस बीच एक ऐसी घटना हुई कि जिसकी कल्पना कम से कम जवाहरलाल नेहरू ने नहीं की थी। वर्ष 1962 के अक्टूबर में चीन ने भारत पर हमला कर दिया। चीनी हमले के बाद अमेरिका और ब्रिटेन ने भारत को नाम मात्र की ही सहायता दी और वह भी इस शर्त के साथ कि भारत कश्मीर समस्या हल करे। अमेरिका के सवेरोल हैरीमेन और ब्रिटेन के डनकन सेंडर्स दिल्ली आए। दिल्ली प्रवास के दौरान उन्होंने चीनी हमले की चर्चा तो कम की कश्मीर की चर्चा ज्यादा की। भारत की मुसीबत का लाभ उठाते हुए अमेरिका ने मांग की कि भारत में वाइस ऑफ़ अमेरिका का ट्रांसमीटर स्थापित करने की अनुमति दी जाए और सोवियत संघ से की गई संधि तोड़ दी जाए। कुल मिलाकर अमेरिका और ब्रिटेन ने कश्मीर के प्रश्न पर भारत का साथ न देकर पाकिस्तान का साथ दिया। अमेरिका और ब्रिटेन प्रजातांत्रिक देश हैं, परंतु अपने संकुचित स्वार्थों की खातिर इन दोनों देशों ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत का साथ न देकर एक तानाशाही देश का साथ दिया। यदि ये दोनों देश भारत का साथ देते तो कश्मीर की समस्या कब की हल हो गई होती।