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कुत्ते का प्यार प्रकृति का अद्भुत अंतरसंगीत!

'कुत्तापालकों को हृदयाघात की आशंका भी कम होती है'

ऋग्वेद में भी मिलता है कुत्तों का उल्लेखनीय वर्णन

Friday 18 October 2019 01:27:03 PM

हृदयनारायण दीक्षित

हृदयनारायण दीक्षित

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कुत्तों और मनुष्य जाति का साहचर्य भी बहुत प्राचीन है, यद्यपि इसका ठीक इतिहास उपलब्ध नहीं है। यूनेस्को मानता है कि ऋग्वेद दुनिया का प्राचीनतम ग्रंथ है और ऋग्वेद में कुत्तों का उल्लेख है। इसका मतलब है कि कुत्तों से मनुष्य का साथ ऋग्वेद के रचनाकाल से भी प्राचीन होना चाहिए। आदिम मनुष्य शिकारी भी थे, इसलिए कुत्तों और मनुष्य का साथ शिकार की उपयोगिता के कारण ही नहीं हुआ होगा। पहले साहचर्य हुआ होगा और फिर उनका उपयोग। साहचर्य की शुरूआत खोजना थोड़ा कठिन काम है। ढेर सारे लोग कुत्ते पालते हैं। वे उनसे कोई काम नहीं लेते हैं। वे केवल कुत्तों के साहचर्य में ही आनंदित रहते हैं। कुत्तों का अपने पालक के प्रति प्रेम प्रदर्शन आश्चर्यजनक भी होता है। वे चूमते हैं, चाटते हैं, सटकर बैठते हैं, प्रसन्न होते हैं, साथ न बैठाओ तो उदास होते हैं। कुत्ते डाटने का अर्थ समझते हैं। मनुष्य में संसार से जुड़ने के लिए पांच इंद्रियां हैं। कुत्तों के पास भी आंख, कान, नाक, स्पर्श और स्वाद की पांच ही इंद्रियां हैं। उनमें सुनने, सूंघने की क्षमता अद्भुत और आश्चर्यजनक है। कुत्ते अपनी सूंघने एवं समझने की आश्चर्यजनक शक्ति के लिए पुलिस और सेना में भी महत्वपूर्ण भूमिका में हैं।
कुत्ते प्रेम प्रदर्शन से प्रसन्न होते हैं और अपने प्रेम प्रदर्शन से ही प्रसन्नता का आनंदरस उलीचते हैं। कुत्तों के व्यवहार पर तमाम शोध हुए हैं। एक ताजे शोध के अनुसार कुत्तापालकों को हृदयाघात की आशंका कम होती है। यह अध्ययन उचित भी जान पड़ता है। कुत्तों के साथ खेलते हुए मनुष्य का रक्त संचार प्रसन्नरस से भरता है और प्रसन्न होना ही मनुष्य की सबसे बड़ी अभिलाषा है। प्रसन्नता मनुष्य का अधिकार भी है। प्रसन्न होने के अधिकार में सबको प्रसन्न करने का कर्तव्य जुड़ा हुआ है। प्रसन्नता भी चक्रानुवर्ती है। किसी को प्रसन्नता देने से वापस होती है। कुत्तापालक कुत्ते को सहलाते हैं। प्रतिदान में यही प्रसन्नता लौटती है, लेकिन बिल्ली या खरगोश आदि के साथ ऐसा नहीं होता। मेरे घर में खरगोश, बिल्ली और कछुआ भी है। खरगोश निकट होते ही भाग जाते हैं, बिल्ली निकटता के कारण ढीठ हो गई है, जबकि कछुआ मुंह भीतर कर लेता है। वह वैरागी जान पड़ता है और खाने के लिए ही मुंह बाहर करता है, जबकि पुचकारते ही मुंह सिकोड़ लेता है। सांसारिक रिश्ते कछुए को संभवत: प्रसन्न नहीं है। माना जाता है कि उसके पूर्वज कच्छप अवतार ने धरती का भार लाद रखा है, जबकि हमारे कछुए को यह भार पसंद नहीं। कुत्तों की बात ही दूसरी है और मनुष्य के साथ कुत्तों का साहचर्य प्राचीन है।
भारतीय चिंतन परंपरा में यम मृत्यु के देवता हैं। वे जीवन की नियति अवधि के बाद प्राण ले जाते हैं। ऋग्वेद (10.14.12) के अनुसार ऐसे मनुष्यों की खोजबीन में यम की सहायता दो कुत्ते ही करते हैं। ऋषि ने मृतात्मा से स्तुति (वही 10) की है कि आप दोनों सारमेय-सरमा नाम की कुतिया के पुत्रों के साथ शीघ्र गमन करें। बताया है कि यम के दोनों कुत्ते जीवन अवधि समाप्त कर चुके मनुष्यों के प्राण लेने के लिए घूमा करते हैं। ऋग्वेद के मंत्र कविता हैं, इनमें रहस्य भी हो सकते हैं। यमदेव के पास कुत्ते होते हैं या नहीं होते? यम देवता भी प्रत्यक्ष नहीं हैं, लेकिन ऋग्वेद में कुत्तों का उल्लेख मनुष्य और कुत्तों के साथ का साक्ष्य है। मेरे सहयोगी अजय प्रताप सिंह के पास 14 बरस एक कुतिया भी रही। सभी जीवों से अजय प्रताप सिंह का प्रेम गाढ़ा है। मैं ऋग्वेद में सरमा नाम की कुतिया के उल्लेख का उदाहरण देता था। वह सुबह उठते ही मेरे पास आती, मैं उसके सिर पर हाथ रखता और वह प्रसन्न होती एवं चली जाती। मै रात 2 बजे तक लिखता हूं, वह बैठी रहती है। प्रतीक्षारत। मैं सोने जाता, वह भी सो जाती। वह हमारी उदासी में उदास रहती और हमारे उल्लास में प्रसन्न।
अफसोस कि हम मनुष्य ऐसा प्रेम नहीं करते! जीवन रहस्य समझ में नहीं आते। वह अस्वस्थ हुई तो चिकित्सक ने बताया कि वह अब देख नहीं सकती। मै न देख सकने की पीड़ा का अनुमान कर ही रहा था कि दूसरे दिन उसके प्राण उड़ गए। मै प्रश्न बेचैन हूं। क्या इसके प्राण भी यमदेव के सहयोगी दोनों कुत्ते ले गए होंगे? वे चाहते तो कम से कम अपनी प्रजाति की इस कुतिया की जीवनधारा बढ़ा सकते थे, लेकिन ऐसा नहीं हो सकता। ऋग्वेद के इसी सूक्त (10.14.2) में कहते हैं यमदेव की नियम व्यवस्था को परिवर्तित करने में कोई सक्षम नहीं है। प्रकृति के नियम अपरिवर्तनीय हैं। प्रकृति की परिवर्तनशीलता भी नियमों में है। चिकित्सक ने भी बताया था कि उसकी उम्र पूरी हो गई है। इन नियमों से असहमत होने के पक्ष में तर्क दिए जा सकते हैं, लेकिन जन्म और मृत्यु का जन्म एक साथ होता है। जन्म और मृत्यु दो नहीं हैं। मन प्रश्न करता है कि मृत्यु के बाद फिर से जन्म भी क्या अपरिहार्य है। हम मनुष्य प्रेम की दिव्यता में प्रसन्न होते हैं। मृत्यु सत्य की अपरिहार्यता पर ध्यान नहीं देते, सो सारे प्रेमयोग वियोग पर समाप्त हो जाते हैं।
प्रिय के प्रति निष्ठा कुत्तों की प्रकृति है। ऋग्वेद (10.108) में सरमा और पणि का संवाद है। पुराणों के अनुसार पणियों ने इंद्र की गायें चोरी की थीं। इंद्र के पास सरमा नाम की कुतिया थी। इंद्र ने उसे गायों का पता लगाने भेजा। उसने तमाम जल प्रवाह पार किए और गायें खोज लीं। पणियों ने प्रलोभन दिए। वह नहीं मानी। उसने पणियों से कहा कि इंद्र आएंगे, तुमको दं‌डित करेंगे। यह पूरा संवाद बड़ा रोचक है। कथा में निष्ठा पर जोर है। सभी कुत्ते मनुष्य के साथ रहने के इच्छुक हैं, लेकिन सभी जानवर इसी कोटि के नहीं हैं। सियार की शारीरिक बनावट कुत्तों जैसी है, लेकिन सियार मनुष्य के साथ नहीं रहना चाहते। भेड़िया भी नहीं रहना चाहता है। सियार, लोमड़ी को जंगल प्रिय है और कुत्तों को मनुष्य जाति गांव और नगर। वे गांवों नगरों में लोगों के डंडों की मार भी सहते हैं, घायल होते हैं तो भी मनुष्य का साथ नहीं छोड़ते। कोई अनजान, अज्ञात प्राकृतिक प्रेम ही उन्हें मनुष्यों से जोड़े रखता है और यह प्रेम अद्वितीय है। इतिहास के गर्भ में कहीं न कहीं इस प्रेमकथा के बीज जरूर होंगे। साहचर्य है तो इस साहचर्य का इतिहास भी होगा।
महाभारत में कुत्तों का उल्लेख कई बार आया है। महाभारतकार ने युद्ध की विभीषिका के वर्णन में युद्धरत राजाओं की तुलना मांसलोभी कुत्तों से की है यानी जैसे मांस लोभी कुत्ते लड़ते हैं, वैसे ही राजा भी लड़ते हैं। यहां राजाओं को लोभी कहने के लिए कुत्तों का उदाहरण दिया गया है, मगर कुत्ते तो लोभी नहीं होते हैं। वे भूखे होने के कारण लोभी दिखाई पड़ते हैं। कुत्तों का मनुष्य के निकट होना यहां विशेष बात है। स्वार्गारोहण में कुत्ते की चरम संभावना का वर्णन है। युधिष्ठिर के साथ स्वर्ग की यात्रा में अंत में कुत्ता ही शेष रहा। चार भाई और द्रोपदी तमाम कारणों से स्वर्ग नहीं जा सके। कुत्ते जीवधारी हैं। प्रकृति ने उन्हें मनुष्य समाज के निकट बैठाया है। प्रकृति में सबके लिए स्थान है। पशु पक्षी अपने शरीर के आकारभर जगह लेते हैं। वे घर नहीं बनाते। जहां बैठे, सोए, प्रजनन हुआ, वहीं थोड़े समय का घर या आश्रय। उनके हृदय में हम मनुष्यों के लिए प्यार है, हमारे भी मन में वैसा ही प्यार हो तो प्रकृति का अंतरसंगीत भीतर से बाहर तक भी गूंज सकता है। जैव विविधिता प्रकृति का ही प्रसाद है।

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