Monday 23 December 2019 11:56:51 AM
अवधेश कुमार
नागरिकता संशोधन कानून की आड़ में देश को सिर पर उठाने की कोशिश हो रही है। इस कोशिश में हिंसा तो है ही, घृणा है, सांप्रदायिकता है और वोट बैंक है। दिल्ली के जामिया इलाके से 15 दिसंबर को ही प्रारंभिक हिंसक विरोध प्रदर्शन ने संकेत दे दिया था कि इसके पीछे गहरे षडयंत्र हैं, लेकिन नरेंद्र मोदी एवं अमित शाह के विरोध में नेता अंधे हो गए हैं जिन्होंने अभी तक एक शब्द भी हिंसा के विरुद्ध नहीं बोला है। किसी नेता का एक ट्विट हिंसा रोकने या न करने की अपील का नहीं है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तो 16 दिसंबर को स्वयं मोर्चा संभालते हुए कोलकाता में विरोध प्रदर्शन किया। अंदाजा लगाएं कि जब मुख्यमंत्री सड़क पर उतर जाए तो फिर शासन के लिए कैसी स्थिति पैदा होगी? नागरिकता क़ानून के खिलाफ वामदलों की ओर से 19 तारीख को भारत बंद का ऐलान किया गया था। भारत बंद को राजद, सपा, कांग्रेस समेत कई विपक्षी पार्टियों ने अपना समर्थन दिया था। इसके अलावा दूसरे संगठनों ने भी अपने-अपने राज्यों में बंद या विरोध प्रदर्शन का आह्वान किया था। कर्नाटक में वाम और मुस्लिम संगठन तो कुछ छात्र संगठनों ने बिहार बंद का आह्वान किया था। उत्तर प्रदेश में भी राज्यव्यापी बंद का आह्वान किया गया था।
नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ किसी को भी राज्य या भारत बंद करने में सफलता तो नहीं मिली, लेकिन जिस तरह का हिंसक और आग़जनी उत्पात उस दिन और उसके बाद से दिख रहा है, उससे यह पुष्टि हो गई कि 15 दिसंबर की हिंसा अचानक नहीं थी। दिल्ली में जामिया, ओखला, न्यू फ्रेंड्स कालोनी, सीलमपुर, जाफराबाद आदि इलाकों में सख्त सुरक्षा व्यवस्था के कारण 15 दिसंबर दोहराया नहीं जा सका, लेकिन अगले दिन जुम्मे की नमाज के बाद जामा मस्जिद से निकला जुलूस अंततः हिंसक हो ही गया। उत्तर प्रदेश में प्रशासन ने जगह-जगह धारा 144 लागू की हुई थी और ऐसे ही अन्य राज्यों ने भी किया, इसके बावजूद एक समुदाय के लोगों को सड़कों पर उतारने में सफलता मिल गई। अनेक प्रकार से हिंसक उपद्रव मचाया गया। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में जिस ढंग की हिंसा हुई, वह जनता के सामान्य आक्रोश का प्रकटीकरण नहीं हो सकता। पुलिस चौकियों को जलाने तथा भारी संख्या में वाहनों को फूंक दिए जाने से साफ हुआ कि हिंसा की पूरी योजना पहले से बनाई गई थी।
ग़ौर कीजिएगा कि उत्तर प्रदेश के संभल में बस के साथ कई गाड़ियां फूंकी गईं, फिर 20 दिसंबर को जुमे की नमाज़ के बाद मेरठ से लेकर बिजनौर, बुलंदशहर, मुजफ्फरनगर, कानपुर फर्रुखाबाद, ऐटा आदि जिलों में हिंसा की वही शैली। केरल से लेकर कर्नाटक, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली यानी सब जगह विरोध का वही एक तरीका और असर दिखा। दिल्ली में 15 दिसंबर को हुई भयानक हिंसा ने संकेत दे दिया था कि कहने के लिए विरोध नागरिकता कानून का है, लेकिन इरादा कुछ और है। बड़े-बड़े पत्थर, आग लगाने की सामग्रियां, तोड़फोड़ और हमले के लिए बड़े-बड़े डंडे, पेट्रोल बम, लोहे की रॉड आदि विरोध प्रदर्शन के दौरान कुछ मिनट में नहीं आ सकतीं। जाहिर है कि सभी राज्यों में पहले से आगजनी और हिंसा की तैयारी की गई थी। दिल्ली में 20-25 मिनट में छः बसों का फूंक दिया जाना अभ्यस्त अपराधियों का ही कार्य हो सकता है। दो दिन बाद सीलमपुर एवं जाफराबाद में हिंसा भी पूर्व तैयारी की ही परिणति थी। बच्चों से भरी बस को रोककर तोड़फोड़ का वीभत्स दृश्य देश ने देखा है। कई राज्यों में पुलिस वालों को घेरकर पीटते हुए वीडियो भी सामने आए हैं। स्वतः स्फूर्त विरोध उत्तर पूर्व में अवश्य हुआ था, हालांकि वहां भी जिन लोगों ने विरोध का आह्वान किया था, उन्हें भी समझ नहीं आया कि हिंसा और आगजनी किसने की है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में विरोध प्रदर्शन स्वाभाविक है, लेकिन विरोध में कुछ भी करने यानी पुलिस पर पत्थरों से हमला या पेट्रोल बम फेंकने का किसी को कोई अधिकार नहीं है। इससे अपराध और सत्याग्रह में अंतर ही मिट जाएगा। आप हिंसा करें तो सही और पुलिस अपनी जिम्मेदारी के तहत कार्रवाई करे तो वह बर्बर? जामिया मिलिया इस्लामिया में वह वीडियो सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध है जिसमें पुलिस लाउडस्पीकर से अपील कर रही है कि बच्चों आप लोग पत्थर, शीशा आदि हम पर न फेकें, हम आपकी सुरक्षा के लिए हैं। यदि पत्थरों और पैट्रोल बमों से हमला होता रहे तो पुलिस फूलमाला पहनाने नहीं खड़ी है, वह भी उस स्थिति में जब उससे कुछ ही दूरी पर बसें जल रहीं हो, गाड़ियां तोड़ी जा रही हों, हिंसक हमले हो रहे हों। जामिया की उप कुलपति नजमा अख्तर कहती हैं कि पुलिस बिना अनुमति जामिया परिसर में प्रवेश नहीं कर सकती। हम भी मानते हैं कि विश्वविद्यालय परिसरों में पुलिस को सामान्यतः प्रवेश नहीं करना चाहिए, किंतु ऐसा कोई कानून नहीं है कि जो पुलिस के प्रवेश का निषेध करता हो। वह भी उस स्थिति में जब भयानक हिंसा और आगजनी करने वालों के विश्वविद्यालय परिसर में छिपे होने की आशंका और सूचना हो। हालांकि जितने छात्र हिरासत में लिए गए थे, वो सब बाद में रिहा भी कर दिए गए। पुलिस की ओर से एक भी गोली नहीं चली, जबकि गोली चलाने की परिस्थितियां पैदा हो गईं थीं। काफी पुलिस वाले और अग्निशमन विभाग के कर्मी घायल हुए।
लखनऊ के इस्लामिक शिक्षण संस्थान नदवा के छात्र किस तरह अंदर से पुलिस पर पत्थरों से हमला कर रहे थे, वह दृश्य किसने नहीं देखा? अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के डरावने दृश्य को कौन भूल सकता है? वहां पांच दर्जन से ज्यादा लोग घायल हुए जिनमें पुलिस वाले भी हैं। जाधवपुर विश्वविद्यालय में तो सरकारी संरक्षण में ही हंगामा मचा हुआ था। इस दुर्भाग्यपूर्ण सच को नज़रअंदाज किया जा सकता है कि विपक्षी दल कांग्रेस, वामपंथ, सपा, बसपा, टीएमसी, आरजेडी के किसी नेता ने एक बार भी हिंसा न करने की अपील की है और उसकी निंदा की हो? सोनिया गांधी के नेतृत्व में 18 दिसंबर को विपक्ष के नेता राष्ट्रपति से मिले और बाहर आने पर क्या बयान दिया? उपद्रवियों और हिंसक जेहादी तत्वों की हिंसा के विरुद्ध एक शब्द भी नहीं बोला। सोनिया गांधी ने बीस दिसंबर को जो वीडियो संदेश जारी किया, उसमें भी उन्होंने हिंसा न करने की अपील नहीं की, बल्कि उनके साथ खड़ा होने की घोषणा की। प्रियंका बाड्रा इंडिया गेट पर जामिया में पुलिस कार्रवाई के विरोध में धरने पर बैठ गईं। जिस समय न्यू फ्रेंड्स कालोनी दिल्ली में हिंसा हुई तो वो वहां अपने घर में थीं। वहां से निकलते समय पत्रकारों ने प्रतिक्रिया लेनी चाही तो कार का शीशा तक खोलने को तैयार नहीं हुईं। यह क्यों न माना जाए कि ये नेता चाहते हैं कि नागरिकता कानून के विरोध के नाम पर स्थिति सरकार के नियंत्रण से बाहर जाए ताकि उनको राजनीतिक करने के अवसर मिलें? नागरिकता संशोधन विरोध पर उतरे लोगों को देखकर साफ हो जाता है कि उनके अंदर मोदी सरकार के विरोध में गुस्सा पैदा किया गया है। जैसे कोई कहता है कि इस कानून से मुसलमानों की नागरिकता छीन ली जाएगी तो कोई यह कि हमको देश से निकाल दिया जाएगा।
किसी से पूछिए कि नागरिकता कानून में ऐसा क्या है, जिसका वे विरोध कर रहे हैं तो वे एनआरसी पर बात करने लगते हैं। पहले दिन से ही नरेंद्र मोदी सरकार की मुस्लिम विरोधी छवि बनाने की कोशिश होती रही है। असहिष्णुता, पुरस्कार वापसी, मॉब लिंचिंग जैसे अभियान याद रखने होंगे। अब इस मानवीयता और स्वाभाविक जिम्मेदारी वाले कानून को मुसलमान विरोधी बताकर पूरे देश में सांप्रदायिक माहौल बनाने का खेल चल रहा है। एक साथ तीन तलाक के विरुद्ध कानून को शरियत विरोधी बताकर भड़काया गया है। अनुच्छेद 370 हटाने को भी मुलसमानों के खिलाफ बताया गया है। अयोध्या पर कोर्ट के फैसले का भी विरोध किया गया है। इस मामले पर भड़काने की पूरी कोशिश हुई, इसके बावजूद शांति कायम है। नागरिकता कानून और इसके बाद एनआरसी लाने की घोषणा ने इनको अवसर दे दिया कि लोगों के अंदर नागरिकता छीनने और ट्रांजिट कैम्प में रखने या बाहर निकाले जाने का भय पैदा करके कोहराम मचा दो। हिंसा में जो लोग पकड़े जा रहे हैं, उनमें ऐसे लोग शामिल हैं, जिनका आपराधिक रिकॉर्ड है, इसीलिए कहना पड़ता है कि हमारे नेता अपना राजनीतिक वनवास खत्म करने के लिए आग से खेल रहे हैं। एक बार आग लगा देने के बाद बुझाना कठिन हो जाता है। यह सब देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने जैसा है। राजनीति जरूर कीजिए लेकिन देश के खिलाफ नहीं, अमन-चैन के खिलाफ नहीं!