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Friday 20 March 2020 02:34:52 PM
मैसूर/ नई दिल्ली। वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) के वैज्ञानिकों ने टेक्टेरिया मैक्रोडोंटा फर्न के जींस के उपयोग से कपास की एक कीट प्रतिरोधी ट्रांसजेनिक किस्म विकसित की है। यह किस्म सफेद मक्खी के हमले से कपास की फसल को बचाने में मददगार हो सकती है। जल्दी ही कपास की इस किस्म का परीक्षण भी शुरु कर दिया जाएगा। यह जानकारी सीएसआईआर के महानिदेशक डॉ शेखर सी मांडे ने हाल में मैसूर में एक कार्यक्रम के दौरान दी। कपास की यह किस्म सीएसआईआर-एनबीआरआई लखनऊ के वैज्ञानिकों ने विकसित की है। एनबीआरआई के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ पीके सिंह ने इंडिया साइंस वायर को बताया है कि पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना के फरीदकोट केंद्र में अप्रैल से अक्टूबर के दौरान कपास की इस किस्म का परीक्षण किया जाएगा।
वैज्ञानिक डॉ पीके सिंह ने बताया कि यह कीट प्रतिरोधी किस्म विकसित करने के लिए शोधकर्ताओं ने पौधों की जैव विविधता से 250 पौधों की पहचान की है, जिनमें ऐसे प्रोटीन अणुओं का पता लगाया जा सकेगा, जो सफेद मक्खी के लिए विषैले होते हैं। उन्होंने बताया कि सभी पौधों के पत्तों के अर्क को अलग-अलग तैयार किया गया था और सफेद मक्खी को उन पत्तों को खाने के लिए दिया गया था, इन पौधों में से एक खाद्य फर्न टेक्टेरिया मैक्रोडोंटा का पत्ती अर्क सफेद मक्खी में विषाक्तता पैदा करते हुए पाया गया है। डॉ पीके सिंह ने बताया कि इसी आधार पर टेक्टेरिया मैक्रोडोंटा के जीन्स के उपयोग से कपास की यह ट्रांसजेनिक प्रजाति विकसित की गई है। टेक्टेरिया मैक्रोडोंटा संवहनी पादप (ट्रैकेओफाइट) समूह का हिस्सा है, इस पौधे को नेपाल में सलाद के रूपमें उपयोग किया जाता है। एशिया के कई क्षेत्रों में गैस्ट्रिक विकारों को दूर करने के लिए भी इस समूह के पौधों का उपयोग होता है, जो इनमें कीटनाशक प्रोटीन के मौजूद होने की संभावना को दर्शाते हैं। इस समूह के पौधों में लिगिनत ऊतक (जाइलम) पाए जाते हैं, जो भूमि से प्राप्त जल एवं खनिज पदार्थों को पौधे के विभिन्न अंगों तक पहुंचाने का कार्य करते हैं।
सफेद मक्खियों को जब कीटनाशक प्रोटीन की सीमित मात्रा के संपर्क में रखा गया तो उनके जीवनचक्र में कई महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिले, इन बदलावों में सफेद मक्खी द्वारा खराब एवं असामान्य अंडे देना औरनिम्फ, लार्वा तथा मक्खियों का असाधारण विकास शामिल है। हालांकि दूसरे कीटों पर इस प्रोटीन को प्रभावी नहीं पाया गया है। डॉ पीके सिंह ने कहा कि इससे पता चलता है कि यह प्रोटीन विशेष रूपसे सफेद मक्खी पर अपना असर दिखाता है एवं प्रोटीन की विषाक्तता का परीक्षण चूहों पर करने पर इसे स्तनधारी जीवों के लिए भी सुरक्षित पाया गया है। सफेद मक्खी न केवल कपास, बल्कि अन्य फसलों को भी नुकसान पहुंचाने के लिए जानी जाती है। यह दुनिया के शीर्ष दस विनाशकारी कीटों में शामिल है, जो दो हजार से अधिक पौधों की प्रजातियों को नुकसान पहुंचाते हैं और 200 से अधिक पादप वायरसों के वेक्टर के रूपमें भी कार्य करते हैं।
सफेद मक्खी के प्रकोप से वर्ष 2015 में पंजाब में कपास की दो तिहाई फसल नष्ट हो गई थी, जिसके कारण किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ा और वे कपास की खेती से मुंह मोड़ने लगे थे। वैज्ञानिकों का कहना यह भी है कि बेलिस थ्यूरेनजिनेसिस कपास मुख्य रूपसे बॉलवर्म जैसे कीटों से निपटने के लिए विकसित की गई थी, जो फसल को सफेद मक्खी के प्रकोप से बचाने में कारगर नहीं है। फसलों पर इसके प्रकोप को देखते हुए वर्ष 2007 में ही एनबीआरआई के वैज्ञानिकों ने सफेद मक्खी से निपटने के लिए कार्य करना शुरू कर दिया था। डॉ पीके सिंह ने बताया कि सफेद मक्खीरोधी जिन गुणों को कपास में शामिल किया गया है, यदि फील्ड में किए गए परीक्षणों में भी उन्हें प्रभावी पाया जाता है तो इस किस्म को किसानों को खेती के लिए दिया जा सकता है। उन्होंने कहा कि इससे पहले हमें यह देखना होगा कि क्या यह विशेषता कृषि वातावरण में भी उसी तरह देखने को मिलती है, जैसाकि प्रयोगशाला के परीक्षणों में देखी गई है।