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वित्त आयोग ने की राज्यों की उपेक्षा

डा विष्णुदत्त नागर

संसदमें पेश बहुप्रतीक्षित तेरहवें वित्त आयोग की रिपोर्ट के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही पक्ष जनसामान्य और आर्थिक विशेषज्ञों के सामने हैं। वित्त आयोग ने अपने सुझावों में सात उद्देश्य रखे हैं-आर्थिक अनुशासन, राज्यों को हस्तांतरित की जाने वाली राशि में न्याय, विकास प्रोत्साहन, बेहतर कार्य निष्पादन, स्थानीय प्रशासन में समता, पर्यावरणीय स्थिरता और केंद्र एवं राज्य सरकारों के बीच आर्थिक संबंधों में न्यूनतम विवाद। आयोग की प्रशंसा की जानी चाहिए कि उसने वित्तीय सुदृढ़ीकरण की दिशा में हस्तांतरण फार्मूले में आर्थिक अनुशासन को अधिकतम महत्व का माना। बारहवें वित्त आयोग ने राज्यों को हस्तांतरण की जाने वाली राशि 30.5 प्रतिशत निर्धारित की थी, जिसे बढ़ाकर तेरहवें वित्त आयोग में 32 प्रतिशत कर दिया। यदि अनुदानों को भी शामिल कर लिया जाए तो बंटने वाली राशि 39 प्रतिशत हो जाएगी, जबकि यह पूर्व में 37 प्रतिशत थी। साथ ही अयोग ने हस्तांतरण में समता तत्व को मापने में बारहवें वित्त आयोग से हटकर आय आधारित राष्ट्रीय समरूपता सुनिश्चित करने के प्रयास किये। विद्युत जैसी महत्वपूर्ण सार्वजनिक उपयोगिताओं की हानियां 2010-11 में 68643 करोड़ थी, 2014-15 में बढ़कर करीब 1,16,000 करोड़ हो जाएगी। लेकिन वित्त आयोग ने इस हानि के पीछे पारेषण, चोरी और वितरण में हो रही हानियों के प्रति राज्य सरकारों की निष्क्रियता को दूर करने के लिए कड़े कदम नहीं सुझाये। वित्त आयोग ने इतना अवश्य सुझाव दिया है कि जो राज्य प्रतिवर्ष अपने विद्युत शुल्कों में 7 प्रतिशत की वृद्धि करेंगे, उन्हें अधिक सब्सिडी देकर पुरस्कृत किया जाना चाहिए।
चिंतनीय बात यह है कि केंद्र सरकार से भी कहा गया है कि वह करारोपण, सरचार्ज और उपकरों को कम से कम लगाए, क्योंकि इन्हें विभाजन योग्य राशि में नहीं जोड़ा जाता। सन्‍ 2014 तक वित्त आयोग ने केंद्र और राज्य सरकारों का सार्वजनिक ऋण सकल घरेलू उत्पाद का 68 प्रतिशत निश्चित किया है। स्थानीय निकायों को अधिक राशि हस्तांतरित करने के अलावा राज्य सरकारों को उन्हें अच्छे कार्य निष्पादन के लिए अधिक अनुदान देकर पुरस्कृत करने की सिफारिश की है। लेकिन तेरहवें वित्त आयोग की सिफारिशों से मध्य आय वाले और पिछड़े राज्यों को निराशा हुई है। वे मांग कर रहे थे कि 30 प्रतिशत से बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दिया जाए। उनकी यह भी मांग थी कि सिंचाई, सड़क, स्वास्थ्य और शिक्षा क्षेत्रों में केंद्र से प्रायोजित योजनाओं को राज्यों को हस्तांतरित कर उन्हें इनके क्रियान्वयन की जिम्मेदारी दी जाए। अधिक धनराशि और योजनाओं को हस्तांरित करने के पीछे तर्क यह था कि केंद्र स्वयं तो दो तिहाई कर राजस्व एकत्रित करता है और एक तिहाई केवल राज्यों के लिए छोड़ता है। खर्च के अनेक मदों पर राज्य सरकारों को 80 प्रतिशत तक खर्च करना पड़ता है। दिलचस्प बात यह है कि प्रारंभ में केंद्र ने जब इन योजनाओं को शुरू किया, तब 80 प्रतिशत खर्च करने की बात कही थी और धीरे-धीरे उसने इससे हाथ खींच लिया। राज्यों का दर्द यह भी है कि वित्त आयोग ने वस्तु और सेवाकर लागू करने पर हुए नुकसान की क्षतिपूर्ति करने के लिए केवल 50 हजार करोड़ रुपये की ही राशि का प्रावधान किया है, जबकि उनकी मांग थी कि यह राशि 80 हजार करोड़ होनी चाहिए।
असल में आयोग ने इस राजनीतिक वास्तविकता को नजरअंदाज कर दिया कि उसके सुझाए गए वस्तु और सेवाकर मॉडल को कुछ राज्यों ने स्वीकार नहीं किया है। इसलिए प्रश्न यह उठता है कि यदि 1 अप्रैल, 2011 को लागू होने वाली जीएसटी (वस्तु और सेवाकर) मॉडल आयोग के सुझाये मॉडल से भिन्न हुआ तो क्षतिपूर्ति का अनुदान किस प्रकार निर्धारित होगा? कठिनाई यह भी है कि आयोग ने उन राज्यों के लिए कुछ ऐसी निरुत्साही शर्तें और पूर्व आवश्यकताएं डाल दी हैं, जो आयोग आर्थिक अनुशासन और अन्य सिफारिशों को लागू नहीं करेंगे। इसलिए कुछ राज्य यह भी मांग कर सकते हैं कि इस प्रकार का दण्ड उनकी स्वायत्तता पर अंकुश लगाता है। मध्य आय, विशेषकर गरीब राज्यों की विवशता यह भी है कि वे अपने यहां आर्थिक और राजनीतिक संतुलन बनाए रखने के लिए न तो अधिक कर लगा सकते हैं और न ही सामाजिक, आर्थिक क्षेत्रों की विभिन्न परियोजनाओं पर खर्च कम कर सकते हैं। ऐसे मध्य आय वाले राज्य हैं-आंध्र प्रदेश, केरल, तमिलनाडु, हरियाणा, झारखंड, कर्नाटक और छत्तीसगढ़। बिहार, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान मांग कर रहे थे कि उन्हें विशेष पैकेज दिए जायं। बिहार ने अपने प्रयासों से करीब 11 प्रतिशत की विकास-दर प्राप्त की लेकिन उसे पुरस्कृत नहीं किया गया। यह सबको बुरा लगा।
राज्यों को इस बात का झटका लगा कि आयोग ने स्वास्थ्य अनुदानों को बंद करने और शिक्षा अनुदान केवल प्रारंभिक शिक्षा तक ही सीमित रखने की सिफारिश की, जबकि सच्चाई यह है कि स्वास्थ्य क्षेत्र को अधिक संसाधनों की आवश्यकता है। यद्यपि आयोग के विचारणीय मुद्दों में पर्यावरण भी शामिल किया गया था, लेकिन इस संबंध में आयोग ने कोई महत्वपूर्ण सिफारिश नहीं की। उसने सिर्फ यह कहकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली कि इस पर गंभीर चिंतन और विचार-विमर्श करने की आवश्यकता है। आयोग ने वित्तीय सुदृढ़ीकरण करने की दिशा में 2014-15 तक रोड मैप (निर्देश-पथ) भी तैयार किया है, जिसके अनुसार 2014-15 तक वित्तीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद का 3 प्रतिशत रह जाएगा। दिलचस्प बात यह भी है कि आयोग ने 2010-11 के लिए जो राजस्व घाटा 3.2 और वित्तीय घाटा 5.7 प्रतिशत निर्धारित किया, वह वित्तमंत्री के बजट प्रस्तुत करते समय क्रमशः 3 प्रतिशत और 5.5 प्रतिशत से ज्यादा है। लेकिन आयोग ने इस तथ्य की भी अनदेखी कर दी कि राज्य सरकारों को अतिरिक्त कर्ज की राहत देने के कारण केंद्र का वित्तीय भार बढ़ जाएगा। दूसरी ओर कर्ज की राहत देने से राज्यों के पास अधिक संसाधन हो जाएंगे, लेकिन केंद्र को वित्तीय अनुशासन के कड़े नियम का पालन करना कठिन हो जाएगा।
वित्त आयोग से यह भी कहा गया था कि वह तेल और उर्वरक ब्रांडो को बजटीय वित्त पोषण से अलग रखे, क्योंकि इनके कारण केंद्र का खर्च और दायित्व बढ़ जाएगा। इन दायित्वों को आने वाली पीढ़ियों को वहन करना होगा। इसके विपरीत आयोग ने सुझाव दिया है कि केंद्र को अपने संसाधन बढ़ाने के लिए विनिवेश प्रक्रिया इस प्रकार अपनानी चाहिए कि 2010-11 तक वह सकल घरेलू उत्पाद की 0.5 प्रतिशत राशि जुटा सके और 2014-15 के आते-आते यह एक प्रतिशत हो जाए। लेकिन विनिवेश प्रक्रिया शेयर बाजार के उतार-चढ़ाव पर निर्भर करती है। हाल में ही सरकार ने एनटीपीसी के अपने शेयर बेचने का कड़वा स्वाद चखा है। वित्त आयोग ने यह भी सिफारिश की है कि विनिवेश से प्राप्त राशि को बजट की कर्ज-पूंजी प्राप्ति मानी जाए।
विद्युत शुल्कों के संबंध में आयोग ने सिफारिश की है कि यह प्रतिवर्ष 7 प्रतिशत बढ़ायी जानी चाहिए। इस प्रकार की सिफारिश करते समय आयोग ने विभिन्न राज्यों की आर्थिक, राजनीतिक विवशताओं को तो नजरअंदाज किया ही, साथ ही मुद्रास्फीति पर पड़ने वाले प्रभावों का भी ध्यान नहीं रखा। बहरहाल, 13वें वित्त आयोग की सिफारिशों ने जहां एक ओर सकारात्मक पक्ष के माध्यम से वित्तीय सुदृढ़ीकरण का मार्ग प्रशस्त किया है, वहीं दूसरी ओर मध्य आय और गरीब राज्यों की आर्थिक-राजनीतिक लाचारी को नजरअंदाज कर दिया है। पहले तो कहा गया था कि समता के सिद्धांत को ध्यान में रखा जाएगा, लेकिन रिपोर्ट में वित्त आयोग ने ऐसे बीज बो दिए हैं जिससे भविष्य में वित्तीय असमानताएं और बढ़ जाएंगी।

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