कुसुम सिंह
लखनऊ। एक मुम्बई महाराष्ट्र में है और दूसरी मुम्बई दुनिया की चकाचौंध से दूर उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल और बिहार के शहरों, कस्बों और गांवों में तेजी से विकसित हो रही है। यूं तो पूर्वांचल और बिहार अपनी विविध मान्यताओं और लोक परंपराओं वाली साझा संस्कृति से बहुत ही समृद्धशाली माना जाता है और देखें तो यहां से भारतीय राजनीति और प्रशासनिक, कला-साहित्य और मनोरंजन के क्षेत्र में कई विश्वविख्यात नाम हैं, मुम्बई में भोजपुरी फिल्मों का अपना ही संसार है, वहां पर यहां की जोरदार उपस्थिति है। समय और सभ्यता के बदलते परिवेश में पूर्वांचल के गांवों-कस्बों में भी सब कुछ बदल रहा है। जिसकी यहां धूम है तो वह है पूर्वांचल के प्रसिद्ध और परंपरागत भोजपुरी लोक संगीत और यहां की जीवनशैली के सिर चढ़कर बोल रहा मुंबइया आर्केस्ट्रा। जी हाँ! मुंबइया आर्केस्ट्रा और उसके बिगड़ैल रूप का पूर्वांचल और बिहार में आज ही बड़ा जोर और शोर है।
पूर्वांचल के गांवों में यह निम्न वर्ग से लेकर उच्च वर्ग तक के शादी मुंडन और विविध शुभ कार्यक्रमों और समारोहों की प्रतिष्ठा और गर्म मनोरंजन बन चुका है। इसके बिना पूर्वांचल का कोई भी शुभ कार्यक्रम और पार्टी के कोई मायने ही नहीं हैं। इसकी चाल और चमचमाती रंगीन लाइटों की विविध तरंगों पर यहां बच्चे से लेकर बूढ़े तक थिरकते हैं। यौवन की दहलीज पर खड़े बच्चों या फिर इस दौर से गुजरने वालों को आर्केस्ट्रा लुभा रहा है और सच कहें तो बिगाड़ रहा है। बहुत से लोग कहते हैं कि मुम्बई की हवा के सामने भोजपुरी के तान फीकी लग रही है। यहां के समाज में इस खतरनाक मनोरंजन की घुसपैठ हो गई है, गनीमत है कि इसे नापसंद करने वाले लोग भी हैं क्योंकि उन्हें अपने नौनिहालों पर इसके खतरे दिखाई पड़ने लगे हैं।
पूर्वांचल में इसका असर इतना व्यापक है कि अब तो कई स्थानों पर स्थानीय प्रशासन के लोग भी स्टेज पर आकर डांसर बालाओं के साथ उनसे सटकर थिरकने से नही चूकते। वो प्रेरित करते हैं कि और ज्यादा-और ज्याद एवं और ज्यादा उत्तेजक संगीत हो। आमतौर पर इस प्रकार के कार्यक्रमों के लिए स्थानीय प्रशासन की अनुमति जरूरी होनी चाहिए क्योंकि इसका कानून-व्यवस्था से भी सीधा संबंध है, पर यहां पर इसकी जरूरत नही समझी जाती। वो लोग जो पार्कों में घूम रहे युगल जोड़ों को पीटते हैं और पब संस्कृति पर बवाल खड़ा करते हैं, जो त्यौहारों पर ऐसी संस्कृति के प्रदर्शन को देखते हैं, क्या उन्हें नही दिखाई दे रहा है कि पूर्वांचल की सभ्यता पर किस प्रकार आर्केस्ट्रा का दैत्य मंडरा रहा है और वह दिन दूर नही जब यह पूर्वांचल के सामाजिक ताने-बाने और रिश्ते-नातों को तार-तार कर देगा। भोजपुरी लोक संगीत गायब हो जाएगा। भोजपुरी गाने लिखने वालो ने भी इस अश्लीलता को यहां लाने में कोई कम भूमिका नही निभाई है। देवरिया से बलिया, बनारस तक, गोरखपुर, गोपालगंज तक, छपरा, रोहतास तक, गोरखपुर से बस्ती तक, आज़मगढ़ तक पूर्वांचल की कौन सी ऐसी जगह है गांव हैं, जहां यह अश्लील वायरस नही पहुंचा है।
भोजपुरी सभ्यता अपने मे एक राज्य है। यहां के परंपरागत संगीत में वह सब मनोरंजन मौजूद है जो बच्चे-जवान और बूढ़े को हर प्रकार से तृप्त करने की क्षमता रखता है। पूर्वी हिंदी की बोली होने से पूर्वी उत्तर प्रदेश से पश्चिमी बिहार में इसका व्यापक विस्तार है। इसके लोकगीत हर प्रकार का मनोरंजन करते हैं। सैंया मिले लड़कैया मै का करूं---? भोजपुरी में इस प्रकार के बहुत से लोकगीत हैं। यह लोकगीत भी भोजपुरी संगीत में मनोरंजक, भावना प्रधान और प्रेरक है, इसमें सामाजिक जुड़ाव और संबंधों को मज़ाक के अंदाज में भी प्रस्तुत किया गया है इसलिए इसकी बोल-चाल की शैली में भी अनूठा रस मिलता है। भोजपुरी के कई रचनाकारों ने जो गीत लिखे हैं उनमें शांत रस का भरपूर प्रयोग है। इस तरह के गीत लिखने में भरत शर्मा ‘व्यास’ विशेष स्थान रखते हैं जिन्होंने शरीर और संसार की निस्सारता को चित्रित किया। इसी तरह के गीतों की रचना आज के भोजपुरी गायक गीतकार और कलाकार मनोज तिवारी ने भी की है। मगर पूर्वांचल में अश्लील आर्केस्ट्रा के आते ही भोजपुरी के सुर-संगीत में बदलाव आ गया है और विकृत भाषा के गीतों के बिना यहां भोजपुरी के आधुनिक लोक-संगीत की कोई पूछ नही हो रही है। अश्लील आर्केस्ट्रा के दबाव में चल रहे भोजपुरी के गंदे गीतों के रचनाकारों में आज पवन, निरहउवा, राधेश्याम रसिया और गुड्डू रंगीला का नाम है जिनका कहना है कि पूर्वांचल में यह समय की मांग है। आर्केस्ट्रा आदि यहां एक इंडस्ट्री की तरह स्थापित हो चुका है।
इस आर्केस्ट्रा की धूम पूर्वांचल के विश्वविख्यात शहर बनारस की सभ्यता पर भी करारा व्यंग्य है। बनारस भारतीय संगीत सभ्यता की प्राचीन धरोहर है मगर आज वह भी इस आर्केस्ट्रा की ताल पर थिरक रहा है। भोजपुरी के प्राचीनतम लोक संगीत की एक अपनी जगह रही है। जब बेटा पैदा होता है, उस वक्त पांवंरियों के आने का रिवाज है जो कि खुशी को लोक कथाओं और गीतों के माध्यम से व्यक्त करते हैं। वे स्वस्थ मनोरंजन करते हैं पर आर्केस्ट्रा ने इस शैली को भी निष्क्रिय बना दिया है। महिलाओं के गाये लोक गीतों की परंपरा को आगे बढ़ाने में भोजपुरी समाज में विशेष ख्याति प्राप्त ‘रामायण’ का नाम समूह कभी आगे रहा है। पहले विवाह आदि के अवसर पर इसी को बुलाया जाता था, जो घर-घर की कहानी को बड़े रोचक ढंग में प्रस्तुत करते हुए सामाजिक समस्याओं के सुझाव भी प्रस्तुत करते हैं पर जैसे ही इस आर्केस्ट्रा के दैत्य ने यहां अपने पांव पसारे, इस नाच समूह की भी लगभग छुट्टी हो गई। अब इन्हें किसी बुजुर्ग की मृत्यु पर ही बुलाया जाता है।
पूर्वांचल के द्वार तक आर्केस्ट्रा को पहुंचाने में अंग्रेजी बैंड का भी हाथ माना जाता है जिसमें पुरुष-महिला का रूप धारण कर नाचते थे। समय के साथ-साथ लड़की भी स्टेज पर पहुंच गई। इस मुंबइया संस्कृति को पूर्वांचल ने आत्मसात कर लिया है। भोजपुरी समाज के सुधारक एवं कर्णधार जगह-जगह भोजपुरी कार्यक्रमों का आयोजन करते हुए उसको सम्मान दिलाने के लिए अनेक तर्क-वितर्क करते दिखाई देते हैं, पर भोजपुरी समाज की सभ्यता पर आर्केस्ट्रा के भारी पड़ने पर एक शब्द भी नही बोलते। बोलें भी कैसे? जब इसको बढ़ाने में इनका भी उतना ही हाथ है जितना कि अन्य घटकों का। आयोजनों में अश्लील गीतों के कई रचनाकारों को सम्मानित कर प्रोत्साहन दिया जाता है कि वे ज्यादा से ज्यादा उत्तेजक गीतों का निर्माण करें।
भोजपुरी को संविधान की दसवीं अनुसूची में शामिल करने की बात करने वाले पूर्वांचल में बन रही इस अश्लील अनुसूची पर भी तो बात करें कि इसको क्या स्थान दिया जाना चाहिए? छोटी-छोटी बच्चियों को भी इस आर्केस्ट्रा में उतार कर इन्हें इसके रंग में रंग दिया जाता है ताकि ये आगे विरोध न कर सकें। हद तो ये है कि लड़कियों को नचाने में मां-बाप का विशेष योगदान है। पूर्वांचल में जो साधन संपन्न परिवार हैं उनकी खुशियों में मुंबई, दिल्ली जैसे बड़े शहरों के आर्केस्ट्रा का ही शोर होता है लेकिन निम्न और मध्यम वर्गीय परिवार स्थानीय या आस-पास के आर्केस्ट्रा से काम चलाते हैं। इनकी यह मजबूरी है कि अपने को सामाजिक रूप से आगे रखने के लिए ये भी वो सब करें जो कि अभिजात्य वर्ग करता है। शादी, रिश्तों में पूछा जाता है कि मनोरंजन की क्या व्यवस्था है? मेहंदी की रस्म भी आर्केस्ट्रा से अछूती नही है। एक गरीब परिवार के लिए यह घरेलू कारण मुसीबत बनता जा रहा है।
दिल्ली-मुंबई और यूपी-बिहार के सत्ता के गलियारों में भोजपुरी-भोजपुरी चिल्लाने वाले और पूर्वांचल राज्य की मांग करने वाले अधिकांश राजनीतिक और सामाजिक नेता इस भ्रष्ट मनोरंजन संस्कृति पर नहीं बोल रहे हैं क्योंकि उनकी सभाओं और पार्टियों में भीड़ जुटाने का ये आर्केस्ट्रा भी एक सहारा जो है। क्या वे पूर्वांचल और खासतौर से उसके गांवों में बची भोली और सुसंस्कृत सभ्यता को इस अश्लील आर्केस्ट्रा से बचा पायेंगे? कौन हैं जिन्होंने अश्लील आर्केस्ट्रा को पूर्वांचल का दरवाजा और घर आंगन दिखाया है और दिखा रहे हैं? परंपरावादी भोजपुरी संगीत आर्केस्ट्रा के सामने क्या संरक्षित और सुरक्षित रह पायेगा? आज हर नेता, हर साहित्यकार गीतकार और हर दार्शनिक भोजपुरी की बड़ी-बड़ी बातें करता है। लेकिन इस अश्लीलता पर उसकी प्रतिक्रिया सामने नहीं आ रही है। लोक-लिहाज की वह पुरानी सभ्यता यहां तार-तार हो जाती है जब गावों में देर रात और भोर तक माइक बंद किये बिना आर्केस्ट्रा के असली रूप का नंगा नाच होता है।