देवेंद्र प्रकाश मिश्रा
नई दिल्ली। भारत में पूज्य माने जाने वाले 'गजराज' को अपने अस्तित्व के लिए आजकल एक नई लड़ाई लड़नी पड़ रही है। उनके शिकार, घटते जंगल और आहार में कमी और उससे भी ज्यादा इनकी आए दिन मनुष्य के साथ मुठभेड़ या गुस्से में इनका उपद्रव इनके लिए बड़ी मुसीबत बनता जा रहा है। कहीं इनकी संख्या लगातार कम होती जा रही है तो कहीं बढ़ रही है। वन्य पशुओं के आने-जाने के रास्ते पर बढ़ते अतिक्रमण के चलते रोजमर्रा के टकराव की कीमत दूसरे वन्यजीवों को भी चुकानी पड़ती है।
पिछले कुछ सालों से भारत सरकार को पूर्वोत्तर के पड़ोसी देशों एवं लोगों से अपील करनी पड़ रही है कि उनके गांवों-खेतों में गलती से घुस आए हाथियों की हत्या न की जाए। प्रजनन, मौसम की मार से बचने और खाने की तलाश में वन्य जीव हर साल एक निश्चित अवधि या मौसम में एक इलाके से दूसरे इलाके की ओर जाते हैं। इस प्रक्रिया को आव्रजन कहा जाता है। ये हाथी हर साल थाईलैंड से भूटान की तराई में जाते हैं, जिसके बीच पूर्वोत्तर भारत का हिस्सा पड़ता है। हर साल ये हाथी रास्ते में आने वाले कई गांव उजाड़कर कई लोगों को मार देते हैं और कई लोग इन मुठभेड़ों में घायल भी हो जाते हैं। टकराव के रास्ते समस्या यह है कि जंगल में बने हाथियों के प्राचीन रास्तों पर लोगों ने गांव बसा लिए हैं, जिस वजह से हाथी भारत वापस जाने के लिए अपना रास्ता नहीं ढूंढ़ पा रहे हैं और भटक कर हिंसक हो रहे हैं।
ये हाथी थाईलैंड से भूटान की ओर आते हैं और भारत का पूर्वोत्तर हिस्सा उनके रास्ते में पड़ता है। मगर अधिकारियों का कहना है कि पिछले कुछ वर्षों में हाथियों की संख्या बढ़ी है। इसी वजह से हाथी अलग-अलग रास्तों से जंगलों में घुसने की कोशिश करते हैं। यह समस्या सिर्फ बांग्लादेश, थाईलैंड या भूटान की ही नहीं, बल्कि भारत के पूर्वोत्तर राज्यों की भी है। सिर्फ असम में ही पिछले 15 वर्षों में हाथियों ने 600 से अधिक लोगों की जान ली है। पूर्वोत्तर भारत में जंगली हाथी अच्छी-खासी संख्या में पाए जाते हैं और अकेले असम में इनकी संख्या पांच हज़ार से अधिक बताई जाती है। जैसे-जैसे असम में लोगों की आबादी बढ़ती गई, लोगों ने ऐसे इलाकों में पांव पसारने शुरू कर दिए, जो हाथियों के आने-जाने के रास्ते थे। नतीजतन हाथी उनके रास्ते में आने वाले गांवों में तबाही मचा देते हैं, जिसका उन्हें अपनी जान देकर ख़ामियाजा भुगतना पड़ता है। हाथियों के उपद्रव से भड़के लोग इन्हें अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते हैं और कभी गुड़ में जहर रखकर तो कभी शिकारियों को बुलाकर हाथियों की जान ले लेते हैं।
हाथी एक सामाजिक प्राणी है और झुंड बनाकर रहता है। यह प्राणी काफी संवेदनशील होता है। जानवरों में हाथी की याददाश्त काफी तेज मानी जाती है, यहां तक कि अपने झुंड़ के किसी सदस्य के मारे जाने पर अकसर हाथी गुस्से में आकर तबाही मचा देते हैं। सैटेलाइट से मिली तस्वीरें ताजे अध्ययनों में बताती हैं कि असम में 1996 से 2006 के बीच जंगल की लगभग चार लाख हेक्टेयर जमीन पर गांव वालों ने अतिक्रमण कर आबादी बसाकर खेती-बाड़ी शुरू कर दी है। अब जरूरत है ऐसे उपायों की जिनसे मनुष्य की हाथियों से मुठभेड़ को टाला जा सके। हाथियों के अकसर आबादी वाले इलाके में घुसने से जानमाल का बड़ा नुकसान भी होता है, पर इस घुसपैठ का कारण ढूंढ़ने के लिए, पहले ये सोचना होगा कि हाथी हमारे इलाकों में घुस आए हैं या फिर हम ही उनके इलाके में घुस गए हैं।
असम में जंगली हाथियों के नियंत्रण के लिए 'कुंकी' नाम से जाने, जाने वाले पालतू हाथियों की मदद ली जा रही है। असम और पश्चिम बंगाल के बहुत से इलाकों में अकसर उग्र हाथियों के झुंड खेतों, गांवों और लोगों पर हमला कर भारी तबाही मचाते हैं। विशेषज्ञों ने उग्र हाथियों को पालतू हाथियों के जरिये घेरकर उन्हें रास्ते पर लाने की कोशिश की है। इसके नतीजे भी सार्थक निकले हैं। सबसे अधिक प्रभावित इलाकों में इस रणनीति को अपनाया गया, वहां हाथियों की हिंसा से मरने वालों की संख्या में आश्चर्यजनक रुप से कमी हुई है। इस परियोजना के अधिकारी जंगली हाथियों के झुंड की गतिविधियों पर नजर रखते हैं और उनको पालतू हाथियों से घेरकर गांव से दूर रखते हैं। इस योजना को वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड से भी मदद हासिल है। हाथियों को भगाने के क्रूर पारम्परिक तरीकों जैसे करंट लगाना, फन्दे कसना और बम फोड़ना आदि से यह रणनीति काफी कारगर सिद्ध हुई है और वन्यजीव प्रेमी भी इस पहल से उत्साहित हैं।
हाथियों की बढ़ती समस्या के बाद भारत में अब कोशिश की जा रही हैं कि दो जंगलों के बीच एक गलियारा विकसित कर उसका संरक्षण किया जा सके। सुरक्षित रास्ता देने के लिए हाथियों के गलियारे पर तैयार की गई रिपोर्ट पर लगभग सभी बड़े विशेषज्ञों की राय ली गई थी और उम्मीद है कि इससे हाथियों को जंगलों में ही रोकना संभव होगा और उनके आबादी वाले इलाकों में घुसने की घटनाओं में कमी आएगी। भारत में ऐसे 88 गलियारों की पहचान की गई है और उन पर कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं सरकार के साथ मिलकर काम भी कर रही हैं, पर भारत में वन्यजीवों के रहवास के लिए किए जा रहे सभी प्रयासों में एक समस्या मुंह बाए खड़ी रहती है, वह है बढ़ती जनसंख्या। लगातार बढ़ती जनसंख्या और जंगल पर बढ़ते दबाव ने पिछले कुछ दशकों में हाथियों की समस्या को बढ़ाया है। इसके लिए देखना होगा कि हाथी दो जंगलों के बीच जिन इलाकों का उपयोग ऐतिहासिक रूप से करते रहे हैं, वहां कितने गांव हैं, आबादी का कितना घनत्व है इत्यादि।
दरअसल यही वो इलाके हैं जिन्हें विशेषज्ञ कॉरिडोर कहते हैं और इनके बंद हो जाने के कारण हाथियों ने मानव रहवासी क्षेत्रों में घुसपैठ कर मुसीबतें बढ़ा दी हैं। देश के विभिन्न राज्यों में स्थित इन गलियारों को अब हाथियों के आवागमन के लिए संरक्षित करने की कोशिश की जा रही है। इस योजना से वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया, इंटरनेशनल फंड फॉर एनिमल वेलफेयर, यूएस विश एंड वेलफेयर सर्विस और एशियन नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन जुड़े हैं। इसके अलावा गलियारों के संरक्षणों के लिए केंद्र और राज्य सरकार की भी सहायता ली जा रही है। अब उम्मीद यही है कि इन गलियारों को 'राजकीय गलियारा' घोषित कर दिया जाए और लोगों को जानकारी दी जाए कि इन इलाकों में विकास कार्य नहीं किए जा सकते। अब ऐसे इलाकों में लोगों को सिर्फ हाथियों से बचना ही नहीं है, हाथियों को बचाना भी जरूरी है। यह जागरूकता प्राकृतिक संतुलन कायम करने के लिए सबसे जरूरी है।