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भुल्लर की फांसी की सजा पर ‌कोर्ट की आलोचना

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Saturday 13 April 2013 09:31:44 AM

नई दिल्ली। न्यायालयों के फैसलों की अवहेलना, आलोचना और निंदा करना एक पैशन बनता जा रहा है। जबसे राजनेताओं और सरकारों ने अदालती फैसलों की उपेक्षा कर अपनी सुविधा के अनुसार उनकी व्याख्या शुरू की है, तबसे हर आदमी की अदालत के फैसलों की आलोचना करने की हिम्मत बढ़ती जा रही है। लोकतंत्र के नाम पर यह दुःसाहस बढ़ता रहा है। ऐसे कई दृष्टांत सामने हैं। देवेंदर पाल सिंह भुल्लर की फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदलने की याचिका सर्वोच्च न्यायालय से पुनः खारिज होने की पीयूडीआर ने कड़ी निंदा की है। पीयूडीआर ने कहा है कि इस याचिका की अस्वीकृति के साथ क्षमा, मृत्युदंड, पूर्व के निर्णयों और न्याय की हत्या जैसे कई सारे मुद्दे एक साथ जुड़े हुए हैं।
देवेंदर पाल सिंह भुल्लर को 1993 में दिल्ली युवा कांग्रेस के ऑफिस के बाहर हुए एक बम ब्लास्ट के आरोप में 2003 में फांसी की सजा सुनाई गई थी, जिसमें 9 लोगों की मौत हो गई थी। भुल्लर की आज दिमागी तौर पर हालत ठीक नहीं मानी जा रही है, उच्च न्यायालय की पीठ ने भी उसे एकमत से फांसी की सजा नहीं सुनाई थी। सर्वोच्च न्यायालय से फांसी की सजा मिलने के बाद उसने 2003 में राष्ट्रपति के पास अपनी दया-याचिका दायर की थी। राष्ट्रपति ने 8 साल बाद 2011 में उसकी दया याचिका को खारिज कर दिया। इसके बाद भुल्लर ने राष्ट्रपति के यहां दया-याचिका पर निर्णय में हुई अत्यधिक देरी के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय में अपनी फांसी की सजा को उम्रकैद में बदलने के लिए याचिका दायर की थी, जो खारिज कर दी गई है, जिसके बाद भुल्लर को फांसी पर लटकाने का रास्ता साफ हो गया है।
इसके विपरीत पीयूडीआर का कहना है कि न्यायशास्त्र के सिद्धांत के अनुसार किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दो बार दंडित नहीं किया जा सकता है। भुल्लर पहले ही जेल में 12 साल गुजार चुका है और इसलिए यदि उसे अब फांसी दी जाती है तो यह निश्चित रूप से न्यायशास्त्र के सिद्धांत का उल्लंघन होगा। फांसी की सजा पाए कैदी को लंबे समय तक फांसी के इंतजार में रखना एक निर्मम एवं क्रूरतापूर्ण व्यवहार है और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 की अवहेलना करता है। आदर्श रूप में न्यायिक प्रक्रिया में होने वाली देरी को देखने और उसके आधार पर राहत देने का एक मानक होना चाहिए। कुछ मामलों में तो देखा गया है कि दोषी को महज दो साल या ढाई साल की देरी के आधार पर ही राहत दी गई है।
टीवी वथीस्वरण बनाम तमिलनाडु राज्य (1983) 2 एससीसी 68 और इदिगा अनम्मा बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1974) 4 एससीसी 443 के मामलों में न्यायालय ने दो साल की देरी को ठीक माना, लेकिन उससे अधिक की देरी होने पर फांसी को उम्रकैद में बदलने की बात की। भगवान बक्स सिंह एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1978) 1 एससीसी 214 के वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने जहां ढाई साल की देरी के आधार पर सजा को उम्रकैद में बदलने की बात की, वहीं साधु सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1978) 4 एससीसी 428 के वाद में साढ़े तीन साल की देरी की स्थिति में सजा को उम्रकैद में बदलने की तरफदारी की, जबकि भुल्लर के मामले को यदि देखें तो सजा होने में 12 साल की देरी और राष्ट्रपति के निर्णय लेने में हुई 8 साल से ज्यादा की देरी के बावजूद न्यायालय ने कोई राहत नहीं दी।
पीयूडीआर को आश्चर्य है कि सर्वोच्च न्यायालय ने दया याचिका को खारिज करते समय भुल्लर की दिमागी हालत का भी खयाल नहीं रखा। दिमागी तौर पर बीमार किसी व्यक्ति को फांसी देना मानवता के खिलाफ एक अपराध है। सर्वोच्च न्यायालय का यह ऑर्डर गंभीर रूप से न्याय की हत्या प्रतीत होता है और खतरनाक रूप से यह आशंका उत्पन्न करता है कि कहीं इस तरह की अन्यायी न्यायिक कार्रवाई एक चलन न बन जाए। छह अप्रैल 2013 को ही सर्वोच्च न्यायालय ने एक प्रगतिशील कदम उठाते हुए फांसी की सजा की लाइन में खड़े आठ लोगों की सजा पर अस्थाई रूप से रोक लगा दी है। वर्तमान निर्णय से केवल यही डर नहीं है कि न्यायालय का यह निर्णय फांसी की कतार में खड़े अन्य लोगों की तकदीर के फैसले को भी प्रभावित कर सकता है, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय ने फांसी की सजा पर विरोधाभासी रूख अपनाने को लेकर भी एक चिंता उत्पन्न होती है कि किसी मामले में तो याचिका पर निर्णय में हुई देरी के आधार पर राहत दे दी जाती है, लेकिन किसी मामले में राहत नहीं दी जाती है।
पीयूडीआर का कहना है कि एक लोकतांत्रिक देश में जहां जीवन के अधिकार को एक मौलिक अधिकार के रूप में संरक्षण प्रदान किया गया है, मौत की सजा का कोई औचित्य नहीं है। वस्तुतः राज्य को अपनी हिरासत में किसी की हत्या को घृणित मानना चाहिए, मौत की सजा एक प्रतिशोध की कार्यवाही है और राज्य को प्रतिकारी न्याय के अंतर्गत एक निर्णायक के रूप में स्थापित करता है। पीयूडीआर मौत की सजा को राज्य हिंसा और घृणा की संस्कृति को बढ़ाने के रूप में देखता है। यह समाज में प्रतिशोध की एक भावना को बढ़ाता है और समाज को पुनः हिंसा के चक्र में धकेल देता है। पीयूडीआर ने कहा है कि वह जहां सर्वोच्च न्यायालय के इस दया याचिका को खारिज करने की निंदा करता है, वहीं सजा के तौर पर एक स्वीकृत रूप में मृत्युदंड को फिर से दोहराए जाने के खतरों को देखते हुए, मौत की सजा को पूरी तरह से समाप्त करने की मांग करता है।

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