स्वतंत्र आवाज़
word map

'सारंगी' को नही जानते हैं क्या ?

असमा फातिमा

असमा फातिमा

सारंगी-guitar

लखनऊ। लखनऊ के भातखंडे संगीत महाविद्यालय में गिटार बजाना सीख रहे एक प्रशिक्षु कलाकार से मैने बस यूं ही सारंगी के बारे में पूछ लिया तो जानते हैं? उसका उत्तर निराशाजनक रहा यानि-'कुछ भी नहीं! उसका पलटकर सवाल था कि ये क्या होती है?' वाद्ययंत्र से जुड़ा यह प्रशिक्षु कलाकार जब सारंगी के बारे में नही जानता है तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि सारंगी सुनने वाले कितने बचे होंगे? इस सवाल के जवाब से हड़बड़ा कर जब मैं और जानकारी के लिए आगे बढ़ती हूं तो पता चलता है कि सारंगी के उस्ताद भी बस गिने चुने हैं और सीखने वाले तो नदारद हैं ही। इस वाद्य यंत्र की मधुर और कर्णप्रिय लय अब बहुत कम ही सुनने को मिलती है। भला हो गूगल सर्च इंजन का जिसने अपनी सर्च इमेज़ पर सारंगी के विविध मॉडल की नई-पुरानी तस्वीरें लगा रखी हैं, जिन्हें देखकर वो लोग सारंगी देखने की इच्छा पूरी कर सकते हैं, जिन्हें इस वाद्ययंत्र को देखने की तमन्ना है। जहां तक उसे सुनने का सवाल है तो किसी बड़े संगीत घराने या संगीतालय में ही यह अवसर मिल सकता है। मैं कह सकती हूं कि मुझे निराशा है कि यह मधुरतम वाद्ययंत्र संगीत की दुनिया से कहीं लुप्त न हो जाए।
उसको तो सारंगी के बारे में नहीं मालूम कि वो क्या होती है, पर क्या आप जानते हैं? यह प्रश्न भी कम महत्वपूर्ण नही है। यहां बताना ही होगा कि सारंगी भारतीय शास्त्रीय संगीत के वाद्ययंत्रो में सौ प्रकार की धुनों को निकालने वाला एक वाद्ययंत्र है, जो लोकगीत कलाकारों के बीच में तो बहुत ही प्रचलित वाद्ययंत्र रहा है। सारंगी आज संगीत की दुनिया में विलुप्त होने के कगार पर खड़ी होकर यही सोच रही है कि कभी उससे निकलती धुन पर लोग मदमस्त हो जाते थे, राजस्थान में कोई प्राचीन कथा सुनाने वाला सारंगी की धुनों पर कथा बाचने लगा रहता था, मंदिर में भगवान की स्तुति करने में सारंगी की जुगलबंदी देखते ही बनती थी, मगर आज संगीत सीखने या वाद्ययंत्र बजाने वाला ही सारंगी के बारे में नही जानता है तो बाकी क्या जानेंगे? यह चिंता की बात है कि अगर इक्के-दुक्के जानकार हैं भी तो बहुत कम, इस वजह से श्रोता भी सारंगी की ओर आकर्षित नहीं हो पा रहा हैं। क्या कारण है कि लखनऊ के भारतखंडे जैसे प्रसिद्ध संगीत संस्थान में सारंगी सीखने वाले युवाओं की संख्या न के बराबर है और सारंगी की धुनों पर आज का युवा संगीतकार पैठ नहीं बना पा रहा है।
सारंगी सिर्फ कुछ ही प्रसिद्ध संगीत घराने के बीच रह गई है अगर उन्होंने भी इसका साथ नहीं दिया तो सारंगी का नामोनिशान ही समाप्त हो जाएगा। सारंगी भारतीय शास्त्रीय संगीत का एक ऐसा वाद्ययंत्र है जो गति के शब्दों और अपनी धुन के साथ इस प्रकार से मिलाप करता है कि दोनों की तारतम्यता देखते ही बनती है। सारंगी मुख्य रूप से गायकी प्रधान वाद्ययंत्र है। इसको 'लहरा' अर्थात अन्य वाद्ययंत्रों की जुगलबंदी के साथ पेश किया जाता है। सारंगी शब्द हिंदी के 'सौ और रंग' से मिलकर बना है जिसका मतलब है सौ रंगों वाला। अठारहवीं शताब्दी में तो सारंगी ने एक परम्परा का रूप ले लिया हुआ था। सारंगी का इस्तेमाल गायक अपनी गायकी में जुगलबंदी के रूप में लेते रहे हैं। 'राग ध्रुपद' जो गायन पद्धति का सबसे कठिन राग माना जाता है, सारंगी के साथ इसकी तारतम्यता अतुल्य है।
सारंगी स्वर और शांति में संबंध स्थापित करती है। अपने में इतनी खूबियां समाए हुए सारंगी आज युवाओं से अलग-थलग है? सारंगी का आज के संगीत की मुख्य धारा से न जुड़ा होना इस बात की गवाही देता है कि ये आज के समय में उतना प्रचलित नहीं हो पा रही है जितना दूर वाद्ययंत्र। आज का युवा उसी वाद्ययंत्र को सीखने की ओर आकर्षित हो रहा है जिससे उसे नाम और पैसा दोनो मिलें। जिसको सीखने के बाद वह फिल्मी गानों में अपने वाद्ययंत्र को बजाने का हुनर दिखा सके, दूसरे को सिखाने की कोचिंग दे सके। आज का युवा स्वयं का म्युजिक बैंड बनाने पर जोर दे रहा है क्योंकि उसको रॉक करना है। सारंगी को सीखना कठिन है, जिस वजह से वाद्ययंत्र बजाने वाले युवा इसको पसंद नहीं करते हैं।
विलुप्त होती सारंगी एक खोखली लकड़ी के लम्बे डिब्बे के समान होती है जिस पर चमड़े की परत चढ़ी होती है। इसमें सिर्फ तीन तार होते हैं जिन पर सरगम को बजाना होता है। इसके बजाने वाले 'बो' को 'गज' कहते हैं। सारंगी वाद्ययंत्र बनाना भी कोई आसान कार्य नहीं है। सिर्फ मित्रा, बेहरा, राजेश धवन जो मेरठ में रहते हैं और दिल्ली के राज म्युजिकल ही इसको बनाते हैं। सारंगी सभी म्युजिक स्टुमेंट शॉप पर भी नहीं मिलती है। इसको लेने के लिए आर्डर देना पड़ता है, जिस वजह से ये एक महंगा वाद्ययंत्र भी बन गया है। आज का युवा संगीत प्रेमी और महफिलें इसकी सुरीली धुनों से महरूम हैं।
आज अगर सारंगी अपने अस्तित्व की जंग लड़ रही है तो वो सिर्फ साबरी खान, दोरबा घोष, अरूणा नारायण काले और सुरजीत सिंह के दम पर। ये सभी अपनी परफॉर्मेंस सारंगी के साथ करते हैं। साबरी खान ने सारंगी को बढ़ावा देने के लिए म्यूजिक अलबम भी लांच किया। सभी सारंगी वादक पारंपरिक रूप से और बहुत ही करीब से संगीत गायन से जुड़े हैं। जब सारंगी वादक आलाप गाते हैं तो वह सारंगी से निकलती धुन और उनके मुख से निकलते स्वरों से इस प्रकार जुड़ जाता है जैसे 'शरीर से आत्मा' का जुड़ाव।
यूं तो सारंगी के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए और युवाओं को उसमें रूचि पैदा करने के लिए स्कॉलरशिप की भी व्यवस्था की गई है, भातखंडे संगीत संस्थान भी सारंगी को और ज्यादा प्रचलित करने के लिए और युवाओं में इसका रुझान पैदा करने के लिए कार्यशालाओं का आयोजन करता है मगर इन सब के बावजूद सारंगी पीछे ही जाती दिख रही है। यदि सारंगी को संगीत की मुख्य धारा से जोड़े रखना है तो इसके अधिक से अधिक प्रचलन एवं प्रचार-प्रसार के साथ इसकी खूबियों को बताया जाना बहुत जरूरी है। साथ ही आज के फिल्मी गानों में भी इसका प्रयोग किया जाना चाहिए तभी सारंगी को वह स्थान प्राप्त होगा जब वह अपनी अलग पारंपरिक हैसियत रखती थी। संगीत जानने वालों और सुनने वालों में सारंगी को आज भी सम्मानित रूप से देखा जाता है लेकिन उसे युवा हाथों में फिर से आने के लिए विशेष प्रयास करने होंगे, बाकि काम सारंगी खुद कर लेगी जो अपनी चमत्कारिक और रंगों भरी धुनों से सभी को अपनी ओर आकर्षित करती जाएगी।

हिन्दी या अंग्रेजी [भाषा बदलने के लिए प्रेस F12]