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कमालपाशा अतातुर्क से ही सीख ले लें!

धर्मनारायण शर्मा

Thursday 18 April 2013 10:55:35 AM

कमालपाशा अतातुर्क ने कभी अंग्रेजों के सहयोग से तुर्की के खलिफाओं के शासन को उखाड़कर राष्ट्रवाद की स्थापना की थी। इस राष्ट्रवादी ने अनेक प्रश्न खड़े किए। इसने कहा! कि क्या अल्लाह को अरबी भाषा ही आती है? वह तो सर्वशक्तिमान हैं, वह तो इस जगत के नियंता-निर्माता हैं, इसलिए अब तुर्की में पावन कुरान टर्की भाषा में पढ़ी जाएगी, नमाज टर्की भाषा में अता होगी, यह कहते हुए टर्की में मजहबी कार्यकलाप टर्की भाषा में आरंभ कर दिए गए।
कमालपाशा अतातुर्क ने अपने शासनकाल में एक दिन सभी सचिवों और अधिकारियों को बुलाकर पूछा कि अपने देश में शासनकार्य की भाषा यदि टर्की लागू करना हो तो कितना समय लगेगा? शासकीय अधिकारियों में से किसी ने दस वर्ष व किसी ने बीस वर्ष का समय बताया। सबकी बातें सुनने के पश्चात अतातुर्क ने कहा कि यह मानलो कि आज ही दस-बीस वर्ष पूर्ण हो गए हैं, अब कल से तुर्की देश का संपूर्ण शासकीय कार्य टर्की भाषा में ही होगा। इस राष्ट्रवादी की दृढ़ता के कारण तुर्की देश में सभी शासकीय कार्य टर्की भाषा में आरंभ हो गए। इस दृढ़ राष्ट्राभिमानी नेतृत्व ने अपने देश की वेशभूषा, पहनने की टोपी, पगड़ी सभी में राष्ट्रीयता को प्रमुखता से प्रतिष्ठित किया।
इस कसौटी पर अपने भारत के नेतृत्व को परखें तो हमें क्या अनुभव होगा? भारत का अतीत, अतीव प्राचीन और गौरवशाली है। स्वयं भारत संसार का प्राचीनतम राष्ट्र है। भारत का संपूर्ण प्राचीन साहित्य संस्कृत भाषा में मिलता है। संस्कृत की पुत्री रूप में देवनागरी हिंदी आज प्रचलित है। संस्कृत-हिंदी दोनों की भाषा-शैली देवनागरी है। दोनों में से संस्कृत की व्याकरण व्यापक व समृद्ध है। इसलिए हिंदी में शब्दकोष के विस्तार का आधार संस्कृत व्याकरण व प्राकृत दोनों हैं। पर पैंसठ वर्ष के लम्बे आजाद भारत के शासकों ने न संस्कृत को महत्ता दी और न हिंदी को स्थापित किया। आज भारत के नेता रात दिन विदेशी अंग्रेजी में ही गुड़गुड़ाते हैं। दुर्भाग्य है कि एक अरब से अधिक जनसंख्या वाले भारत की जगत के सामने अब तक कोई राष्ट्रीय भाषा नहीं आ पाई है, क्यों नहीं आई? क्योंकि नेतृत्व मानसिक गुलामी से उबरा नहीं है।
राष्ट्रीय आंदोलन के काल में महात्मा गांधी जैसा श्रेष्ठ नेतृत्व भी भटक गया। टर्की के खलिफा की पुनःप्रतिष्ठा हेतु गांधीजी ने मुसलमानों के खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया था। यह आंदोलन असफल हो गया। इस पर क्रोधित मुसलमानों ने हिंदुओं पर आक्रमण कर अनेकों को मौत के घाट उतारा और अनेकों का धर्मांतरण किया। कांग्रेस और महात्मा गांधी ने इस पर मात्र लचर प्रतिक्रिया दी थी।
टर्की देश में उस देश के एक मुस्लिम युवा संगठन ने सत्ता परिवर्तन करके सत्ता हस्तगत की थी। किसी हिंदू ने टर्की पर शासन सत्ता स्थापित नहीं की थी, परंतु खिलाफत आंदोलन की असफलता का कहर हिंदुओं पर टूटा। क्या कहें इस मानसिकता को? इस मानसिकता को भारत में कई बार अनुभव किया गया है। हाकी में भारत की विजय व पाकिस्तान की हार पर भी दंगे, तोड़फोड़ तथा जिंदाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगते रहे हैं। जब एक देश के व्यक्ति ने मोहम्मद साहब का कार्टून बना दिया तो भारत में मुस्लिम भड़के और उन्होंने हिंदुओं व भारत की संपदा में आग लगा दी। उस कार्टून प्रसंग से न भारत का न हिंदुओं का कुछ संबंध था, हिंसा म्यामार में हुई और भयानक आग़जनी भारत के मुंबई जैसे तमाम शहरों में हुई क्यों? क्योंकि भारत में मुस्लिम यह मानते हैं कि हमारा शत्रु तो यह हिंदू ही है।
मुसलमानों को भारत में रहते हुए एक हजार वर्ष से अधिक हुआ है, परंतु इन्होंने वास्तविक रूप से भारतीयता को अभी भी स्वीकारा नहीं है। मेरा प्रश्न है खुदा शब्द अरबी का नहीं है, वह संभवतः टर्की भाषा का है। मुसलमानों ने टर्की का खुदा शब्द स्वीकार कर लिया, परंतु भारत का भगवान और ईश्वर यह आज तक स्वीकार नहीं किया गया है, न अपने नाम व बच्चों के नाम भारतीय स्वीकारे हैं। कमाने के लिए गायक कभी ईश्वर, भगवान बोलते होंगे, परंतु उनके मदरसों की शिक्षा-दीक्षा में ईश्वर आज भी नापाक है।
जैसे-जैसे मदरसों की वृद्धि हो रही है, वैसे-वैसे वे भारतीयता से दूर हटते जा रहे हैं। वेशभूषा, बोलचाल ही नहीं देशभक्ति गान वंदेमातरम् आज तक स्वीकार नहीं हुआ है। क्या राष्ट्रीय महापुरुष भी मान्य हुए हैं? लगता तो नहीं है, श्रीराम, कृष्ण, शिवाजी, महाराणा प्रताप, गुरु गोविंद सिंह आदि मुसलमानों में सम्मानित हुए हैं? कहीं न कहीं अरबी, पाकिस्तानी मनोवृत्ति ने उन्हें घेर रखा है। सुना जाता है कि उनकी शिक्षा व योजना का लक्ष्य भारत को दारूल इस्लाम बनाना है। एक बार तो वे भारत को तोड़ ही चुके हैं और अभी भी जिहादी भारत में बम फोड़कर जिहाद चलाए हुए हैं। इस प्रकार की मानसिकता वाले मुसलमानों व मदरसों को वर्तमान कांग्रेस व सेक्युलर सरकार इन्हें पुष्ट बनाने हेतु बहुसंख्यक ‌हिंदू समाज की गाढ़ी कमाई पर टैक्स लगाकर उन्हें दे रही है। वे आज भी अरबी मानसिकता से बाहर नहीं आए हैं, यद्यपि अधिकांश मुस्लिम जबरन धर्मांतरित हिंदुओं की संतानें हैं, परंतु अफगानों की तरह आज भी अनेक में मूर्तिभंजन का भाव विद्यमान है। आज भी वे ‘हमने शासन किया है’ इस रोग से ग्रसित बने हुए अहंकार में झूम रहे हैं।
मुसलमानों की ऐसी भी मान्यता है कि मोहम्मद साहब के पूर्व भी अनेक नबी हो चुके हैं, मोहम्मद साहब को अंतिम नबी के रूप में अल्लाह ने जगत को संदेश देने भेजा था। मुसलमानों के पास नबी के कुछ काल्पनिक नाम भी हैं, परंतु कोई भी ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। सुना है कि कलकत्ता की एक बस्ती के एक मुस्लिम ने राम-कृष्ण बुद्ध, महावीर को भी नबी मानकर बोलना आरंभ किया तो कट्टरवादी मुसलमानों ने उस पर आक्रमण कर उसकी बेदर्दी के साथ पिटाई कर दी। क्यों उसकी पिटाई की? क्योंकि इस्लाम यथास्थितिवादी मजहब जो है। यह मजहब हिंदू सनातन धर्म की तरह चिरपुरातन व नितनूतन बने रहने की क्षमता नहीं रखता है। कट्टरता, आक्रमण यही इनके मुख्य हथियार‌ नज़र आते हैं। सत्य को विद्वान महानुभाव अनेक प्रकार से प्रतिपादित करते रहते हैं परंतु इस यथास्थितिवादी मजहब में इसकी भी छूट नहीं है।
इनकी मान्यता है कि कुरान ही अंतिम सत्य है, इसलिए वही बोलो जो किताब में लिखा है, इसी कारण मदरसों की शिक्षा-दीक्षा एक बंद पुस्तक तक सीमित रखी गई है। यद्यपि विज्ञान के सामने इनका सबकुछ अवैज्ञानिक बनता जा रहा है, परंतु बंद कपाट वे खोलने को तैयार नहीं हैं। हमें ताजी हवा नहीं चाहिए इसी मानसिकता ने वहां डेरा डाल रखा है। ‘उधो मन माने की बात दाख छुहारा अमृत फल छाडी विशकिरा विशखात’ यही है यथार्थ में मुस्लिम मनोवृत्ति।
जब तक वे भारतीयता को स्वीकार नहीं करते, जब तक वे अरबी मानसिकता को नहीं छोड़ते, जब तक भारत के महापुरुषों को महापुरूष नहीं मानते और जब तक आक्रमणकारियों से अपने संबंध विच्छेद नहीं करते, तब तक उनकी मानसिकता में सुधार संभव नहीं है। राष्ट्रीय नेतृत्व को बहुत गंभीरता के साथ इन प्रश्नों को हल करना होगा, तभी सच्चे अर्थ में भारत सुरक्षित व उन्नत हो सकेगा। भारत के नेतृत्व को भी विदेशपरस्ती छोड़कर राष्ट्रभाव को धारण करना होगा। भारत के स्व को प्रतिष्ठित करना होगा। भारत व भारतीय जन के हित को प्राथमिकता देनी होगी। विदेशी झूंठी पत्तलें चाटने के स्थान पर स्वदेशी को आधार बनाकर राष्ट्रहित को साधना होगा, कमालपाशा अतातुर्क से राष्ट्रवाद की सीख लेनी होगी, तभी भारत विश्व के अग्रगण्य व ज्ञान-विज्ञान संपन्न राष्ट्र के रूप में प्रकट होकर विश्व कल्याण करने में समर्थ हो सकेगा।

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