स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम
Thursday 24 June 2021 02:18:43 PM
इंदौर। जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय श्रृंखला में बर्फ और ग्लेसियर तेजी से पिघल रहे हैं, हिमालय-काराकोरम श्रृंखला में सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों में जल आपूर्ति में बदलाव हो रहा है। दक्षिण एशिया के एचके क्षेत्र, जिसे अक्सर एशिया का वाटर टावर या थर्ड पोल कहा जाता है, पृथ्वी का सबसे ज्यादा ग्लेशियर वाला पर्वतीय क्षेत्र है। जलवायु परिवर्तन पर एचके नदियों की प्रतिक्रिया को समझना लगभग 1 अरब आबादी के लिहाज से काफी अहम है, जो काफी हदतक इन जल संसाधनों पर निर्भर है। पत्रिका 'साइंस' में प्रकाशित शोध 'ग्लेसियो-हाइड्रोलॉजी ऑफ द हिमालया-काराकोरम' के अनुसार कुछ अपवादों और भारी अनिश्चितताओं के साथ इन नदियों में कुल नदी अपवाह, ग्लेसियर के पिघलने और मौसमी प्रवाह में 2050 तक बढ़ोतरी का अनुमान है।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान इंदौर में सहायक प्रोफेसर डॉ मोहम्मद फारुक आजम की अगुवाई में हुए शोध में क्लाइमेट वार्मिंग, वर्षा परिवर्तन और ग्लेशियरों के सिकुड़ने के बारे में ज्यादा सटीक समझ काफी हदतक आम सहमति के करीब तक पहुंचने के लिए 250 से ज्यादा शोध पत्रों के परिणामों को इकट्ठा किया है। उन्होंने कहा कि शोध से पता चलता है कि गंगा और ब्रह्मपुत्र बेसिनों की तुलना में सिंधु के लिए ज्यादा जल विज्ञान संबंधी महत्व के साथ ग्लेशियर और बर्फ का पिघलना एचके नदियों के अहम घटक हैं। प्रोफेसर डॉ मोहम्मद फारुक आजम ने कहा कि हिमालयी नदी बेसिन में 27.5 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र आता है, इसका 5,77,000 वर्ग किलोमीटर का सबसे बड़ा सिंचित क्षेत्र है और 26,432 मेगावाट की दुनिया की सबसे ज्यादा स्थापित पनबिजली क्षमता है। उन्होंने कहा कि ग्लेशियरों के पिघलने से क्षेत्र की एक अरब से ज्यादा आबादी की पानी की जरूरतें पूरी होती हैं, जो इस सदी के दौरान ग्लेसियरों के टुकड़ों के पिघलने से काफी हदतक प्रभावित होगी और धीरे-धीरे जरूरी पानी आपूर्ति रुक जाएगी।
प्रोफेसर डॉ मोहम्मद फारुक आजम ने कहा कि क्षेत्रवार हर वर्ष की जल आपूर्ति पर कुल प्रभाव अलग-अलग होता है, ग्लेशियर पिघलने से निकला पानी ग्लेसियरों पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव गंगा और ब्रह्मपुत्र घाटियों की तुलना में सिंधु घाटी के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है, जो मुख्य रूपसे मानसून की वर्षा से पोषित होती है और वर्षा के पैटर्न में बदलाव से मुख्य रूपसे प्रभावित होती है। प्रोफेसर डॉ मोहम्मद फारुक आजम की एक पीएचडी छात्रा स्मृति श्रीवास्तव और शोध की सह-लेखिका का कहना है कि 21वीं सदी के दौरान नदी अपवाह की मात्रा और मौसमी तत्व में अनुमानित रुझान जलवायु परिवर्तन परिदृश्यों की एक पूरी श्रृंखला के अनुकूल है एवं कुल नदी अपवाह, ग्लेसियर पिघलना और मौसमी प्रवाह 2050 तक कुछ अपवादों एवं अनिश्चितताओं के साथ बढ़ने और फिर घटने का अनुमान है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के वित्तपोषित इन्सपायर फैकल्टी फेलोशिप समर्थित कार्य में हिमालयी जल संसाधनों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को समझने से जुड़ी खामियों की पहचान की है और इन खामियों को दूर करने के संभावित समाधानों को रेखांकित किया है। यह इन्स्पायर फैकल्टी प्रोजेक्ट के परिणामस्वरूप एक शोध वृत्तचित्र https://youtu.be/sPaqNs-bttI बनाया गया था।
नीति निर्माताओं को कृषि, पनबिजली, पेयजल, स्वच्छता और खतरनाक स्थितियों के लिए टिकाऊ जल संसाधन प्रबंधन को नदियों की वर्तमान स्थितियों और भविष्य में संभावित बदलाव के आकलन की जरूरत है। लेखकों ने चिह्नित खामियों को दूर करने केलिए एक चरणवार रणनीति की सिफारिश की है, इसमें निगरानी नेटवर्क का विस्तार शामिल है, जो चुनिंदा ग्लेसियरों पर पूर्ण रूपसे ऑटोमैटिक मौसम केंद्रों पर लागू किया जाए। वे ग्लेसियर क्षेत्र और मात्रा, ग्लेसियर के स्वरूप, पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने और स्नो व आइस बढ़ाने की प्रक्रिया की जांच के लिए तुलनात्मक परियोजनाओं के विकास का भी सुझाव देती है। इसके अलावा इन अध्ययनों की जानकारी को भावी बदलाव के अनुमानों में अनिश्चितता की कमी केलिए ग्लेशियर हाइड्रोलॉजी के विस्तृत मॉडलों में लागू करने की सिफारिश करता है।