आकांक्षा यादव
क्रांति की शक्ति सिर्फ पुरुषों को ही आकृष्ट नहीं करती है, बल्कि महिलाओं को भी वैसे ही आकृष्ट करती आ रही है, इसीलिए हर युग के इतिहास में महिलाओं की शौर्य गाथाओं का प्रमुखता से वर्णन मिलता है। भारत में सदैव नारी को आदर और श्रद्धा की देवी माना गया है। अवसर आया तो इसी नारी ने चंडी का भी रूप धरा और अपनी अदम्य शक्ति का लोहा मनवाया। यूं तो स्त्रियों की दुनिया घर के भीतर मानी जाती है और शासन-सूत्र का सहज स्वामी भी पुरूष ही है। शासन और समर से स्त्रियों का सरोकार नहीं है जैसी तमाम पुरुषवादी धारणाओं और स्थापनाओं को ध्वस्त करती उन भारतीय वीरांगनाओं का जिक्र किए बिना 1857 से 1947 तक की स्वाधीनता की दास्तान अधूरी है, जिन्होंने अंग्रेजों को लोहे के चने चबवा दिए। इन वीरांगनाओं में से अधिकतर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे किसी रजवाड़े में पैदा नहीं हुईं, बल्कि आम आदमी के घर जन्म लेकर अपनी योग्यता की बदौलत उच्चतर मुकाम तक पहुंचीं। भारत में 1857 की क्रांति की अनुगूंज में दो वीरांगनाओं का नाम प्रमुखता से लिया जाता है-लखनऊ में बेग़म हज़रत महल और झांसी में क्रांति का नेतृत्व करने वाली रानी लक्ष्मीबाई।
ऐसा नहीं है कि 1857 से पूर्व भारतीय वीरांगनाओं ने स्वतंत्रता आंदोलन में अपना जौहर नहीं दिखाया। सन् 1824 में कर्नाटक में कित्तूर की रानी चेनम्मा ने अंग्रेजों को मार भगाने के लिए फिरंगियों भारत छोड़ो का बिगुल बजाया था। उसने रणचंडी का रूप धरकर अपने अदम्य साहस और फौलादी संकल्प की बदौलत अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये थे। कहते हैं कि मृत्यु से पूर्व रानी चेनम्मा काशी में वास करना चाहती थीं पर उनकी यह चाह पूरी न हो सकी। क्या संयोग था कि रानी चेनम्मा की मौत के 6 साल बाद काशी में ही लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ। हां! इतिहास के पन्नों में अंग्रेजों से लोहा लेने वाली प्रथम वीरांगना रानी चेनम्मा ही रानी लक्ष्मीबाई मानी जाती है। बैरकपुर में मंगल पांडे को चर्बी वाले कारतूसों के बारे में सर्वप्रथम मातादीन ने ही बताया था और मातादीन को इसकी जानकारी उसकी पत्नी लज्जो ने दी थी शायद यह बात कम ही लोगों को पता होगी। लज्जो अंग्रेज अफसरों के यहां काम करती थी, जहां उसे यह सुराग मिला कि अंग्रेज गाय की चर्बी वाले कारतूस इस्तेमाल करने जा रहे हैं। इसी प्रकार 9 मई 1857 को मेरठ में विद्रोह करने पर 85 भारतीय सिपाहियों को हथकड़ी और बेड़ियां पहनाकर जेल भेज दिया गया और अन्य सिपाही उस शाम को जब घूमने निकले तो मेरठ शहर की स्त्रियों ने उनपर तंज कसे।
मुरादाबाद के जिला जज जेसी विल्सन ने इस घटना का वर्णन करते हुए लिखा है कि 'महिलाओं ने कहा कि-छिं! तुम्हारे भाई जेल खाने में और तुम यहां बाज़ार में मक्खियां मार रहे हो? तुम्हारे ऐसे जीने पर धिक्कार है।' इतना सुनते ही सिपाही जोश में आ गए और अगले ही दिन 10 मई को जेलखाना तोड़कर उन्होंने सभी कैदी सिपाहियों को छुड़ा लिया और उसी रात वे क्रांति का बिगुल बजाते हुए दिल्ली की ओर प्रस्थान कर गए, जहां से 1857 की क्रांति की ज्वाला चारों दिशाओं में फैल गई। लखनऊ में 1857 की क्रांति का नेतृत्व बेग़म हज़रत महल ने किया। अपने नाबालिग पुत्र बिरजिस क़दर को गद्दी पर बिठाकर उन्होंने अंग्रेजी सेना का स्वयं मुकाबला किया। उनमें संगठन की अभूतपूर्व क्षमता थी, इसी कारण अवध के जमींदार, किसान और सैनिक उनके नेतृत्व में आगे बढ़ते रहे। आलमबाग़ की लड़ाई के दौरान अपने जांबाज सिपाहियों की उन्होंने भरपूर हौसला आफजाई की और हाथी पर सवार होकर सैनिकों के साथ दिन-रात युद्ध करती रहीं। लखनऊ में पराजय के बाद वह अवध के देहातों मे चली गईं और वहां भी क्रांति की चिंगारी सुलगाई।
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई
घुड़सवारी और तलवार चलाने में माहिर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीरता और शौर्य के किस्से तो जन-जन में सुने जा सकते हैं। नवम्बर 1835 में बनारस में मोरोपंत तांबे के घर जन्मी लक्ष्मीबाई का बचपन नाना साहब के साथ कानपुर के बिठूर में बीता। सन् 1855 में पति राजा गंगाधर राव की मौत के पश्चात उन्होंने झांसी का शासन संभाला पर अंग्रेजों ने उन्हें और उनके दत्तक पुत्र को शासक मानने से इंकार कर दिया। लक्ष्मीबाई ने झांसी में ब्रिटिश सेना को कड़ी टक्कर दी और बाद में तात्या टोपे की मदद से ग्वालियर पर भी कब्जा किया। उनकी मौत पर जनरल ह्यूगरोज ने कहा था-'यहां वह औरत सोई हुई है, जो व्रिदोहियों में एकमात्र मर्द थी।' मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर की बेग़म ज़ीनत महल ने दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में स्वातंत्र्य योद्धाओं को संगठित किया और देशप्रेम का परिचय दिया। सन 1857 की क्रांति में बहादुरशाह जफर को प्रोत्साहित करने वाली बेग़म ज़ीनत महल ने ललकारते हुए कहा था-'यह समय ग़ज़लें कहकर दिल बहलाने का नहीं है, बिठूर से नाना साहब का पैग़ाम लेकर देशभक्त सैनिक आए हैं, आज सारे हिंदुस्तान की आँखें दिल्ली की ओर और आपपर लगी हैं, ख़ानदान-ए-मुग़लिया का खून हिंद को ग़ुलाम होने देगा तो इतिहास उसे कभी क्षमा नहीं करेगा।' बेग़म ज़ीनत महल भी बाद में बहादुरशाह जफर के साथ बर्मा चली गईं थीं।
दिल्ली के शहज़ादे फिरोजशाह की बेग़म तुकलाई सुलतान जमानी बेग़म को जब दिल्ली में क्रांति की सूचना मिली तो उन्होंने ऐशोआराम का जीवन जीने की बजाय युद्ध शिविरों में रहना पसंद किया और वहीं से सैनिकों को रसद पहुंचाने और घायल सैनिकों की सेवा का प्रबंध अपने हाथों में ले लिया। अंग्रेजी हुकूमत ने कालांतर में उन्हें घर में नज़रबंद कर उनपर बम्बई न छोड़ने और दिल्ली प्रवेश करने पर प्रतिबंध लगा दिया था। बेग़म हज़रत महल और रानी लक्ष्मीबाई के सैनिक दल में तमाम महिलाएं शामिल थीं। लखनऊ में बेग़म हज़रत महल की महिला सैनिक दल का नेतृत्व रहीमी के हाथों में था, जिसने फौजी भेष अपनाकर तमाम महिलाओं को तोप और बंदूक चलाना सिखाया। रहीमी की अगुवाई में इन महिलाओं ने अंग्रेजों से जमकर लोहा लिया। लखनऊ की तवायफ हैदरीबाई के कोठे पर तमाम अंग्रेज अफसर आते थे और कई बार क्रांतिकारियों के खिलाफ योजनाओं पर बात किया करते थे, मगर हैदरीबाई ने भी पेशे से परे अपनी देशभक्ति का परिचय देते हुए ऐसी महत्वपूर्ण सूचनाएं क्रांतिकारियों तक पहुंचाईं और बाद में वह भी रहीमी के सैनिक दल में शामिल हो गई।
वीरांगना ऊदा देवी
वीरांगना ऊदा देवी भी अंग्रेजों से खूब लड़ी थी। इनके पति लखनऊ के चिनहट क्षेत्र की लड़ाई में वीरगति को प्राप्त हुए थे। ऐसा माना जाता है कि डब्ल्यू गार्डन अलक्जेंडर एवं तत्पश्चात क्रिस्टोफर हिबर्ट ने अपनी पुस्तक द ग्रेट म्यूटिनी में लखनऊ में सिकंदरबाग़ किले पर हमले के दौरान जिस वीरांगना के अदम्य साहस का वर्णन किया है, वह ऊदा देवी ही थी। वीरांगना ऊदा देवी ने पीपल के घने पेड़ पर छिपकर लगभग 32 अंग्रेज़ सैनिकों को मार गिराया था। अंग्रेज़ असमंजस में पड़ गए और जब हलचल होने पर कैप्टन वेल्स ने पेड़ पर गोली चलाई तो पेड़ से एक मानवाकृति गिरी। नीचे गिरने से उसकी लाल जैकेट का ऊपरी हिस्सा खुल गया, जिससे पता चला कि वह महिला है। उस महिला का साहस देख कैप्टन वेल्स की आंखें नम हो गईं, तब उसने कहा कि यदि मुझे पता होता कि यह महिला है तो मैं कभी गोली नहीं चलाता। ऊदा देवी का जिक्र अमृतलाल नागर ने बाकायदा अपनी कृति ‘गदर के फूल’ में किया है। मनियारपुर की सोगरा बीबी ने अपने 400 सैनिक और दो तोपें सुल्तानपुर के नाजिम और प्रमुख विद्रोही नेता मेंहदी हसन को दीं और क्रांतिकारियों की सहायता की।
लखनऊ की वीरांगना आशा देवी का यहां उल्लेख बहुत आवश्यक है, जिन्होंने 8 मई 1857 को अंग्रेजी सेना का सामना करते हुये शहादत पाई। आशा देवी का साथ देने वाली वीरांगनाओं में रनवीरी वाल्मीकि, शोभा देवी वाल्मीकि, महावीरी देवी, सहेजा वाल्मीकि, नामकौर, राजकौर, हबीबा गुर्जरी देवी, भगवानी देवी, भगवती देवी, इंदर कौर, कुशल देवी और रहीमी गुर्जरी इत्यादि शामिल थीं। ये वीरांगनाएं अंग्रेजी सेना से लड़ते हुए शहीद हुईं। बेग़म हज़रत महल के बाद अवध के मुक्ति संग्राम में जिस दूसरी वीरांगना ने प्रमुखता से भाग लिया, वह थी गोंडा की तुलसीपुर रियासत की रानी राजेश्वरी देवी। उसने होपग्रांट के सैनिक दस्तों से जमकर मुकाबला लिया। अवध की बेग़म आलिया ने भी अपने अद्भुत कारनामों से अंग्रेजी हुकूमत को चुनौती दी। बेग़म आलिया 1857 के एक वर्ष पूर्व से ही अपनी सेना में शामिल महिलाओं को शस्त्रकला में प्रशिक्षण देकर सम्भावित क्रांति की योजनाओं को मूर्तरूप देने में संलग्न हो गई थी। अपने भीतर महिला गुप्तचर के गुप्तभेदों के माध्यम से बेग़म आलिया ने समय-समय पर ब्रिटिश सैनिकों से युद्ध किया और कई बार अवध से उन्हें भगाया।
झलकारीबाई की कसम
झांसी की रानी ने महिलाओं की एक अलग टुकड़ी ‘दुर्गा दल’ बनाई हुई थी। इसका नेतृत्व कुश्ती, घुड़सवारी और धनुर्विद्या में माहिर झलकारीबाई के हाथों में था। झलकारीबाई ने कसम उठाई थी कि जब तक झांसी स्वतंत्र नहीं होगी, ना मैं श्रृंगार करूंगी और ना ही सिंदूर लगाऊंगी। अंग्रेजों ने जब झांसी का किला घेरा तो झलकारीबाई जोशो-खरोश के साथ लड़ी। उसका चेहरा और कद-काठी रानी लक्ष्मीबाई से काफी मिलती-जुलती थी, सो जब उसने रानी लक्ष्मीबाई को घिरते देखा तो उसने उन्हें महल से बाहर निकल जाने को कहा और दूसरी तरफ स्वयं घायल सिंहनी की तरह अंग्रेजों पर टूट पड़ी और शहीद हो गई। झलकारीबाई का जिक्र मराठी पुरोहित विष्णुराव गोडसे की कृति ‘माझा प्रवास’ में भी मिलता है। रानी लक्ष्मीबाई की सेना में जनाना फौजी इंचार्ज मोतीबाई और रानी के साथ चौबीस घंटे छाया की तरह रहने वाली सुंदर-मुंदर, काशीबाई, जूही, दुर्गाबाई भी दुर्गादल की ही सैनिक थीं। इन सभी ने अपने जान की बाजी लगाकर रानी लक्ष्मीबाई पर आंच नहीं आने दी और अंततोगत्वा वीरगति को प्राप्त हां गईं। कानपुर 1857 की क्रांति का प्रमुख गवाह रहा है। पेशे से तवायफ अजीजनबाई ने क्रांतिकारियों की संगत में आकर 1857 की क्रांति में भाग लिया।
कानपुर में नाना साहब के नेतृत्व में एक जून 1857 को जब तात्याटोपे, अजीमुल्ला खान, बालासाहब, सूबेदार टीका सिंह और शमसुद्दीन खान क्रांति की योजना बना रहे थे तो उनके साथ उस बैठक में अजीजनबाई भी मौजूद थी। क्रांतिकारियों की प्रेरणा से अजीजन ने मस्तानी टोली के नाम से 400 महिलाओं की एक टोली बनाई जो मर्दाना भेष में रहती थी। एक तरफ ये अंग्रेजों से अपने हुस्न के दम पर राज उगलवातीं, वहीं नौजवानों को क्रांति में भाग लेने के लिये प्रेरित करती थीं। सतीचौरा घाट से बचकर बीबीघर में रखी गईं 125 अंग्रेज महिलाओं और बच्चों की रखवाली का कार्य अजीजनबाई की टोली के ही जिम्मे था। बिठूर के युद्ध में पराजित होने पर नाना साहब और तात्याटोपे तो पलायन कर गए थे, लेकिन अजीजन पकड़ी गई। युद्धबंदी के रूप में उसे जनरल हैवलॉक के समक्ष पेश किया गया। जनरल हैवलॉक उसके सौन्दर्य पर रीझे बिना न रह सका और प्रस्ताव रखा कि यदि वह अपनी गलतियों को स्वीकार कर क्षमा मांग ले तो उसे माफ कर दिया जाएगा, किंतु अजीजन ने एक वीरांगना की भांति उसका प्रस्ताव ठुकरा दिया और पलट कर कहा कि माफी तो अंग्रेजों को मांगनी चाहिए, जिन्होंने इतने जुल्म ढाए हैं, इतने पर आग बबूला हैवलॉक ने अजीजन को गोली मारने के आदेश दे दिए और क्षणभर में ही अजीजन के शरीर के चिथड़े उड़ गए। इतिहास में दर्ज है कि बग़ावत की सजा हंसकर सह ली अजीजन ने, लहू देकर वतन को।
कानपुर के स्वाधीनता संग्राम में मस्तानीबाई की भूमिका भी कम नहीं है। बाजीराव पेशवा के लश्कर के साथ ही मस्तानीबाई बिठूर आई थी। अप्रतिम सौंदर्य की मलिका मस्तानीबाई अंग्रेजों का मनोरंजन करने के बहाने उनसे खुफिया जानकारी हासिल करके पेशवा को दिया करती थी। नाना साहब की मुंहबोली बेटी मैनावती भी देशभक्ति से भरपूर थी। नाना साहब बिठूर से पलायन कर गए तो मैनावती यहीं रह गई। जब अंग्रेज नाना साहब का पता पूछने पहुंचे तो मौके पर 17 वर्षीया मैनावती ही मिली। नाना साहब का पता न बताने पर अंग्रेजों ने मैनावती को जिंदा ही आग में झोंक दिया। ऐसी ही न जाने कितनी दास्तान हैं, जहां वीरांगनाओं ने अपने साहस और जीवटता के दमपर अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए। मध्यप्रदेश में रामगढ़ की रानी अवंतीबाई ने 1857 के संग्राम के दौरान अंग्रेजों का प्रतिकार किया और घिर जाने पर आत्मसमर्पण करने की बजाय स्वयं को खत्म कर लिया। मध्य प्रदेश में ही जैतपुर की रानी ने अपनी रियासत की स्वतंत्रता की घोषणा कर दतिया के क्रांतिकारियों को लेकर अंग्रेजी सेना से मोर्चा लिया। तेजपुर की रानी भी इस संग्राम में जैतपुर की रानी की सहयोगी बनकर लड़ीं। मुजफ्फरनगर के मुंडभर की महावीरी देवी ने 1857 के संग्राम में 22 महिलाओं के साथ मिलकर अंग्रेजों पर हमला किया।
अनूपशहर की चौहान रानी
अनूपशहर की चौहान रानी ने घोड़े पर सवार होकर हाथों में तलवार लिए अंग्रेजों से युद्ध किया और अनूपशहर के थाने पर लगे यूनियन जैक को उतारकर हरा राष्ट्रीय झंडा फहरा दिया। इतिहास गवाह है कि 1857 की क्रांति के दौरान दिल्ली के आस-पास के गावों की लगभग 255 महिलाओं को मुजफ्फरनगर में गोली से उड़ा दिया गया था। पहलीबार महिलाओं ने सार्वजनिक रूपसे खुलकर 1905 के बंग-भंग आंदोलन में भाग लिया था। स्वामी श्रद्धानंद की पुत्री वेद कुमारी और आज्ञावती ने इस आंदोलन के दौरान महिलाओं को संगठित किया और विदेशी कपड़ों की होली जलाई। कालांतर में 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान वेद कुमारी की पुत्री सत्यवती ने भी सक्रिय भूमिका निभाई। सत्यवती ने 1928 में साइमन कमीशन के दिल्ली आगमन पर काले झंडों से उसका विरोध किया था। सन 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान ही अरूणा आसफ अली तेजी से उभरीं और इस दौरान अकेले दिल्ली से 1600 महिलाओं ने गिरफ्तारी दी। गांधी-इरविन समझौते के बाद जहां अन्य आंदोलनकारी नेता जेल से रिहा कर दिए गए थे, वहीं अरूणा आसफ अली को बहुत दबाव पर और बाद में छोड़ा गया था।
सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान जब सभी बड़े नेता गिरफ्तार कर लिए गए तो कलकत्ता के कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता एक महिला नेली सेनगुप्त ने की। इस क्रांतिकारी आंदोलन में भी महिलाओं ने भागीदारी की थी। सन 1912-14 में बिहार में जतरा भगत ने जनजातियों को लेकर टाना आंदोलन चलाया। उनकी गिरफ्तारी के बाद उसी गांव की महिला देवमनियां उरांइन ने इस आंदोलन की बागडोर संभाली। सन 1931-32 के कोल आंदोलन में भी आदिवासी महिलाओं ने सक्रिय भूमिका निभाई थी। स्वाधीनता की लड़ाई में बिरसा मुंडा के सेनापति गया मुंडा की पत्नी ‘माकी’ बच्चे को गोद में लेकर फरसा-बलुआ से अंग्रेजों से अंत तक लड़ती रही। सन 1930-32 में मणिपुर में अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष का नेतृत्व नागा रानी गुइंदाल्यू ने किया। इनसे भयभीत अंग्रेजों ने इनकी गिरफ्तारी पर पुरस्कार की घोषणा की और कर माफ करने के आश्वासन भी दिए। सन 1930 में बंगाल में सूर्यसेन के नेतृत्व में हुए चटगांव विद्रोह में युवा महिलाओं ने पहली बार क्रांतिकारी आंदोलनों में स्वयं भाग लिया। ये क्रांतिकारी महिलाएं क्रांतिकारियों को शरण देने, संदेश पहुंचाने और हथियारों की रक्षा करने से लेकर बंदूक चलाने तक में माहिर थीं।
वीरांगना प्रीतिलता वाडेयर ने एक यूरोपीय क्लब पर हमला किया और कैद से बचने के लिए आत्महत्या कर ली। कल्पना दत्त को सूर्यसेन के साथ ही गिरफ्तार कर 1933 में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई और 5 साल के लिए अंडमान की काल कोठरी में कैद कर दिया गया। दिसम्बर 1931 में कोमिल्ला की दो स्कूली छात्राओं शांति घोष और सुनीति चौधरी ने जिला कलेक्टर को दिनदहाड़े गोली मार दी और काला पानी की सजा हुई। बीना दास ने छह फरवरी 1932 को कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में उपाधि ग्रहण करने के समय गवर्नर पर बहुत नजदीक से गोली चलाकर अंग्रेजी हुकूमत को चुनौती दी। सुहासिनी अली तथा रेणुसेन ने भी अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों से 1930-34 के मध्य बंगाल में धूम मचा दी थी। चंद्रशेखर आजाद के अनुरोध पर दि फिलॉसफी ऑफ बम दस्तावेज तैयार करने वाले क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा की पत्नी ‘दुर्गा भाभी’ नाम से मशहूर दुर्गा देवी बोहरा ने भगत सिंह को लाहौर जिले से छुड़ाने का प्रयास किया। अंग्रेज अफसर सांडर्स को मारने के बाद सन 1928 में जब भगत सिंह और राजगुरु लाहौर से कलकत्ता के लिए निकले, तो कोई उन्हें पहचान न सके, इसलिए दुर्गा भाभी की सलाह पर एक सुनियोजित रणनीति के तहत भगत सिंह उनके पति, दुर्गा भाभी उनकी पत्नी और राजगुरु नौकर बनकर वहां से निकल लिए।
लाला लाजपतराय का योगदान
लाला लाजपतराय की सन 1927 में मौत हुई। ये वो लोग थे, जो क्रांतिकारियों को आर्थिक सहायता मुहैया करा रहे थे, जो अंग्रेजों को बर्दाश्त नहीं थी। इसका बदला लेने के लिए लाहौर में बुलाई गई थी, जिसकी अध्यक्षता दुर्गा भाभी ने की थी। बैठक में अंग्रेज पुलिस अधीक्षक जेए स्कॉट को मारने का जिम्मा वे खुद लेना चाहती थीं पर संगठन ने उन्हें यह जिम्मेदारी नहीं दी। बम्बई के तत्कालीन गर्वनर हेली को मारने की योजना में टेलर नामक एक अंग्रेज अफसर घायल हो गया, जिस पर दुर्गा भाभी ने ही गोली चलाई थी। इस केस में उनके विरुद्ध वारंट भी जारी हुआ और दो वर्ष से ज्यादा समय तक फरार रहने के बाद 12 सितम्बर 1931 को दुर्गा भाभी लाहौर में गिरफ्तार कर ली गईं। यह संयोग ही कहा जाएगा कि भगत सिंह और दुर्गा भाभी, दोनों की जन्म शताब्दी वर्ष 2007 में ही पड़ा। क्रांतिकारी आंदोलन के दौरान सुशीला दीदी ने भी प्रमुख भूमिका निभाई और काकोरी कांड के कैदियों के मुकद्मे की पैरवी के लिए अपनी स्वर्गीय माँ द्वारा शादी की खातिर रखा 10 तोला सोना उठाकर दान में दे दिया और यही नहीं, उन्होंने क्रांतिकारियों का केस लड़ने के लिए ‘मेवाड़पति’ नामक नाटक खेलकर चंदा भी इकट्ठा किया। सन 1930 के सविनय अविज्ञा आंदोलन में इंदुमति के छद्म नाम से सुशीला दीदी ने भाग लिया और गिरफ्तार हुईं।
हसरत मोहानी और उनकी पत्नी का स्वतंत्रता आंदोलन में खासा योगदान रहा है। जब उन्हें जेल की सजा मिली तो उनके कुछ दोस्तों ने जेल की चक्की पीसने के बजाय उनको माफी मांगकर छूटने की सलाह दी। इसकी जानकारी जब बेग़म हसरत मोहानी को हुई तो उन्होंने पति की हौसला अफ्ज़ाई की और दोस्तों को नसीहतें दीं। मर्दाना वेष धारणकर उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया और बाल गंगाधर तिलक के गरम दल में शामिल होने पर गिरफ्तार कर जेल भेज दी गई, जहां उन्होंने भी चक्की को पीसा। महिला मताधिकार को लेकर 1917 में सरोजिनी नायडू के नेतृत्व में वायसराय से मिलने गए प्रतिनिधिमंडल में वह भी शामिल थीं। सन 1925 में कानपुर में कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता कर ‘भारत कोकिला’ के नाम से मशहूर सरोजिनी नायडू को कांग्रेस की प्रथम भारतीय महिला अध्यक्ष बनने का गौरव प्राप्त हुआ। सरोजिनी नायडू ने भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास में कई पृष्ठ जोड़े। कमला देवी चट्टोपाध्याय ने 1921 में असहयोग आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। इन्होंने बर्लिंन में अंतर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व कर तिरंगा झंडा फहराया। अली बंधुओं की मां बाई अमन ने भी सन 1921 के दौर में लाहौर से निकलकर तमाम महत्वपूर्ण नगरों का दौरा किया और जगह-जगह हिंदू-मुस्लिम एकता का संदेश फैलाया। सितम्बर 1922 में बाई अमन ने शिमला दौरे के समय वहां की फैशनपरस्त महिलाओं को खादी पहनने की प्रेरणा दी।
भारत छोड़ो आंदोलन में महिलाओं ने प्रमुख भूमिका निभाई है। अरुणा आसफ अली और सुचेता कृपलानी ने अन्य आंदोलनकारियों के साथ भूमिगत होकर आंदोलन को आगे बढ़ाया तो ऊषा मेहता ने भूमिगत रहकर कांग्रेस-रेडियो से प्रसारण किया। अरुणा आसफ अली को तो 1942 में उनकी सक्रिय भूमिका के कारण ‘दैनिक ट्रिब्यून’ ने ‘1942 की रानी झांसी’ नाम दिया। अरुणा आसफ अली ‘नमक कानून तोड़ो आंदोलन’ के दौरान भी जेल गईं। सन 1942 के आंदोलन के दौरान ही दिल्ली में गर्ल गाइड की 24 लड़कियां अपनी पोशाक पर विदेशी चिन्ह धारण करने और यूनियन जैक फहराने से इनकार करने के कारण अंग्रेजी हुकूमत द्वारा गिरफ्तार हुईं और उनकी बेदर्दी से पिटाई की गई। इसी आंदोलन के दौरान तमलुक की 73 वर्षीय किसान विधवा मातंगिनी हाजरा ने गोली लग जाने के बावजूद राष्ट्रीय ध्वज ऊंचा उठाए रखा। महिलाओं ने स्वतंत्रता संघर्ष में प्रभावी भूमिका निभा रहे लोगों को काफी सहयोग दिया है। बारदोली सत्याग्रह पर सरदार वल्लभभाई पटेल को ‘सरदार’ की उपाधि वहां की महिलाओं ने ही दी थी। महात्मा गांधी को उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी ने पूरा समर्थन दिया। भारत छोड़ो आंदोलन प्रस्ताव पारित होने के बाद महात्मा गांधी पूना में आगा खां पैलेस कैद कर लिए गए तो कस्तूरबा गांधी भी उनके साथ जेल गईं। डॉ सुशीला नैयर, जो गांधीजी की निजी डॉक्टर भी थीं, वे भी 1942-44 तक महात्मा गांधी के साथ जेल में रहीं।
इंदिरा गांधी ने 6 अप्रैल 1930 को बच्चों को लेकर ‘वानर सेना’ का गठन किया, जिसने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अपना अद्भुत योगदान दिया। यह सेना स्वतंत्रता सेनानियों को सूचना देने और सूचना लेने का कार्य करती और हर प्रकार से उनकी मदद करती थी। विजयलक्ष्मी पंडित भी गांधीजी से प्रभावित होकर जंग-ए-आजादी में कूद पड़ीं। वह हर आंदोलन में आगे रहतीं, जेल जातीं, रिहा होतीं और फिर आंदोलन में जुट जातीं। सन 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ के सैन फ्रांसिस्को सम्मेलन में विजयलक्ष्मी पंडित ने भारत का प्रतिनिधित्व भी किया। सुभाषचंद्र बोस की 'आरजी हुकूमते आजाद हिंद सरकार' में महिला विभाग की मंत्री और आजाद हिंद फौज की रानी झांसी रेजीमेंट की कमांडिंग ऑफिसर रहीं कैप्टन लक्ष्मी सहगल ने भी आजादी में अपनी भूमिका निभाई। सुभाषचंद्र बोस के आह्वान पर उन्होंने सरकारी डॉक्टर की नौकरी छोड़ दी। कैप्टन सहगल के साथ आजाद हिंद फौज की रानी झांसी रेजीमेंट में लेफ्टिनेंट रहीं लेफ्टिनेंट मानवती आर्या ने भी सक्रिय भूमिका निभाई। अभी भी ये दोनों सेनानी कानपुर में तमाम रचनात्मक गतिविधियों में सक्रिय हैं। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की गूंज भारत के बाहर भी सुनाई दी। विदेशों में रह रही तमाम महिलाओं ने भारतीय संस्कृति से प्रभावित होकर भारत और अन्य देशों में स्वतंत्रता आंदोलन की अलख जगाई।
लंदन की एनीबेसेंट
लंदन में जन्मीं एनीबेसेंट ने ‘न्यू इंडिया’ और ‘कामन वील’ पत्रों का सम्पादन करते हुए आयरलैंड के ‘स्वराज्य लीग’ की तर्ज पर सितम्बर 1916 में ‘भारतीय स्वराज्य लीग’ यानी होमरूल लीग की स्थापना की, जिसका उद्देश्य स्वशासन स्थापित करना था। एनीबेसेंट को कांग्रेस की प्रथम महिला अध्यक्ष होने का गौरव भी प्राप्त है। एनीबेसेंट ने ही 1898 में बनारस में सेंट्रल हिंदू कॉलेज की नींव रखी, जिसे 1916 में महामना मदनमोहन मालवीय ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के रूप में विकसित किया। भारतीय मूल की फ्रांसीसी नागरिक मैडम भीकाजी कामा ने लंदन, जर्मनी और अमेरिका का भ्रमणकर भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में माहौल बनाया। उनका पेरिस से प्रकाशित ‘वंदेमातरम्’ पत्र प्रवासी भारतीयों में काफी लोकप्रिय हुआ। सन 1909 में जर्मनी के स्टटगार्ट में अंतर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस में मैडम भीकाजी कामा ने प्रस्ताव रखा कि भारत में ब्रिटिश शासन जारी रहना मानवता के नाम पर कलंक है, एक महान देश भारत के हितों को इससे भारी क्षति पहुंच रही है। उन्होंने लोगों से भारत को दासता से मुक्ति दिलाने में सहयोग की अपील की और भारतवासियों का आह्वान किया कि आगे बढ़ो, हम हिंदुस्तानी हैं और हिंदुस्तान हिंदुस्तानियों का है।
भीकाजी कामा ने इस कांफ्रेंस में ‘वंदेमातरम्’ अंकितकर भारतीय ध्वज फहरा कर अंग्रेजों को कड़ी चुनौती दी। मैडम भीकाजी कामा लंदन में दादाभाई नौरोजी की प्राइवेट सेक्रेटरी भी रहीं। आयरलैंड की मूल निवासी और स्वामी विवेकानंद की शिष्या मारग्रेट नोबुल यानी भगिनी निवेदिता ने भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में तमाम मौकों पर अपनी सक्रियता दिखाई। कलकत्ता विश्वविद्यालय में 11 फरवरी 1905 को आयोजित दीक्षांत समारोह में वायसराय लार्ड कर्जन के भारतीय युवकों के प्रति अपमानजनक शब्दों का उपयोग करने पर भगिनी निवेदिता ने खड़े होकर निर्भीकता के साथ प्रतिकार किया। ब्रिटिश नौसेना के एडमिरल की पुत्री मैडेलिन ने भी गांधीजी से प्रभावित होकर भारत को अपनी कर्मभूमि बनाया। ‘मीरा बहन’ के नाम से मशहूर मैडेलिन भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के साथ आगा खां महल में कैद रहीं। मीरा बहन ने अमेरिका और ब्रिटेन में भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में माहौल बनाया। मीरा बहन के साथ-साथ ब्रिटिश महिला म्यूरियल लिस्टर भी गांधीजी से प्रभावित होकर भारत आईं और अपने देश इंग्लैंड में भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में माहौल बनाने का प्रयास किया। द्वितीय गोलमेज कांफ्रेंस के दौरान गांधीजी इंग्लैंड में म्यूरियल लिस्टर के ‘किंग्सवे हॉल’ में ही ठहरे थे। इस दौरान म्यूरियल लिस्टर ने गांधीजी के सम्मान में एक भव्य समारोह भी आयोजित किया था।
अवध में सिमरपहा के तालुकेदार वसंत सिंह बैस की पत्नी और बाराबंकी की मिर्जापुर रियासत की रानी तलमुंद कोइर, भदरी की तालुकेदार ठकुराइन सन्नाथ कोइर ने विद्रोही नाजिम फजल अजीम को अपने कुछ सैनिक और तोपें दीं। अवध क्षेत्र में स्वतंत्रता संग्राम लड़ने वाली अनेक महिलाओं का नाम अज्ञात है, जिनको जाने अनजाने में स्वतंत्रता इतिहास में स्थान नहीं मिला है। उस दौर में भी एक ऐसी राजनीति मौजूद थी, जिसमें स्वतंत्रता सेनानियों के कुछ नेता यश देने और यश लेने में भी भेद करते थे। स्वतंत्रता के इतिहास में ऐसे कई घटनाक्रमों का उल्लेख है और बहुतों ने तो अपनी आत्मकथा में निष्पक्ष रूपसे इस दर्द को बयां किया है। बहरहाल इन अनेक वीरांगनाओं के अनन्य राष्ट्रप्रेम, अदम्य साहस, अटूट प्रतिबद्धता और उनमें से कईयों का गौरवमयी बलिदान भारतीय इतिहास की एक जीवंत दास्तां है। यह पक्का हो सकता है उनमें से कईयों को इतिहास ने विस्मृत कर दिया हो, पर लोक चेतना में वे अभी भी मौजूद हैं। जय हिंद!