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ईस्ट इंडिया कंपनी पर भी लहराया तिरंगा

तेजेन्द्र शर्मा

तेजेन्द्र शर्मा

संजीव मेहता की ईस्ट इंडिया कंपनी

लंदन।जलियांवाला बाग़ में 13 अप्रैल 1919 में जनरल डायर ने निहत्थे भारतीयों को भून डाला और उसके ठीक 21 साल बाद ऊधम सिंह ने सन् 1940 में लंदन में जाकर बदला लिया और जनरल डायर की हत्या कर जलियांवाला बाग़ का हिसाब पूरा कर दिया। ठीक इसी तरह मलिका नूरजहां ने 1516 में अपने पति बादशाह जहांगीर की शाही मुहर लगा कर ईस्ट इंडिया कंपनी को सूरत में फ़ैक्टरी लगाने की अनुमति देकर मुग़ल सल्तनत के पतन पर मुहर लगाई थी। इसके बाद यही ईस्ट इंडिया कंपनी पूरे भारत पर राज करने लगती है। मुंबई का संजीव मेहता नाम का एक युवक लंदन में आकर गुमनामी के अंधेरे में डूबी इस कंपनी का पता लगाता है और पांच साल की लगातार मेहनत के बाद उस कंपनी को ख़रीद कर अपने नाम करने में सफल होता है।
संजीव मेहता आज भारत को 63वें स्वतंत्रता दिवस पर तोहफ़े के रूप में भारत की जनता को ईस्ट इंडिया कंपनी पेश करते हैं। ईस्ट इंडिया के क़रीब तीस से चालीस मालिक थे। संजीव मेहता ने एक-एक को ढूंढ कर कंपनी के मालिक़ाना हक़ अपने नाम करवाए। अगले साल संजीव ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत लाने की योजना बना रहे हैं। यानि कि चक्र पूरा होगा और यह कंपनी इस बार अपने भारतीय पैरों के साथ दोबारा भारत पहुंचेगी। ये वही ईस्ट इंडिया है जो अंग्रेज़ों के राज के दौरान कभी 18वीं और 19वीं सदी में भारत पर हुकूमत चलाती थी और विश्व में करीब 50 फ़ीसदी कारोबार पर इसका कब्ज़ा था।
भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का यथोचित विकास टामस रो के आगमन से आरंभ हुआ, जब उसके व्यवसायिक केंद्र सूरत, आगरा, अहमदाबाद तथा भड़ोच में स्थापित हुए। तत्पश्चात् बड़ी योजना और पूर्ण विधि से अन्य केंद्रों की स्थापना हुई। मुख्य केंद्र समुद्री तटों पर ही बसे। उनकी किलेबंदी भी की गई। इस प्रकार मुगल दखलअंदाजी से वे दूर रह सकते थे। संकट के समय उन्हें समुद्री सहयोग सुलभ था। शांति के समय वे वहीं से वांछित दिशाओं में बढ़ सकते थे। इस तरह मचिलीपटणम् (1611), बालासोर (1631), मद्रास (1639), हुगली (1651), बंबई (1669), तथा कलकत्ता (1698) के केंद्रों की स्थापना हुई। बंबई, कलकत्ता, मद्रास विशाल व्यावसायिक केंद्र होने के अतिरिक्त, कंपनी के बड़े महत्वपूर्ण राजनीतिक और शक्ति केंद्र भी बने। इनकी समृद्धि और शक्तिवर्धन से भारतीय व्यवसायियों ने भी, जिनके लिए आयात निर्यात के बड़े लाभप्रद द्वार खुल गए थे, पूर्ण सहयोग दिया। वस्तुत: अंग्रेजों और भारतीय व्यवसायियों का गठबंधन कंपनी की प्रगति में बहुत सहायक सिद्ध हुआ।
संजीव मेहता बताते हैं- 'ईस्ट इंडिया कंपनी को ब्रितानी साम्राज्य ने 1874 में पूरी तरह से अपने अधीन ले लिया था, अस्सी के दशक में लंदन में कुछ 30-40 लोगों को लगा कि ईस्ट इंडिया कंपनी बहुत ही शक्तिशाली ब्रैंड है, उन्होंने इसे ख़रीद लिया और फिर से बिज़नेस शुरु किया, उन्होंने काफ़ी पैसा भी लगाया, लेकिन मैने देखा कि उनका कंपनी से कोई भावनात्मक रिश्ता नहीं था, मालिकों में से कोई भी हिंदुस्तानी नहीं था, लेकिन भारत से होने के नाते मैं इस कंपनी का महत्व और भावनात्मक अहमियत समझ रह था, मैने कंपनी को खरीदने का फ़ैसला किया, मैने कुछ साल पहले उनसे संपर्क किया और पिछले छह वर्षों में उनसे पूरी कंपनी ख़रीद ली।'
संजीव कहते हैं कि बिज़नेस के हिसाब से भी ये फ़ायदे का सौदा है क्योंकि इसके लिए पब्लिसिटी या मार्केटिंग की ज़रूरत नहीं है। पंद्रह अगस्त को अब लंदन के मेयफ़ेयर इलाक़े में कंपनी का स्टोर खुल रहा है जिसे लक्ज़री स्टोर के तौर पर पेश किया जा रहा है। इसमें खाद्य सामग्री, होम फ़र्नीचर वगैरह होंगे। इस कंपनी को ख़रीदने के पीछे संजीव मेहता के व्यापारिक कारण शायद कम हैं। इसके पीछे मूल उद्देश्य भावनात्मक हैं। जब वह इस विषय में बात करते हैं तो उनकी आवाज़ में अलग किस्म का देश प्रेम सुनाई देता है।
वे बताते हैं- 'मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकता कि मुझे कैसा महसूस हो रहा है, आप ख़ुद को मेरी जगह रखकर देखिए तो आपको अंदाज़ा होगा, गौरव का अनुभव हो रहा है, अलग सी संतुष्टि है, क्योंकि धंधा तो सब करते हैं, फ़ायदा भी बहुत लोगों को होता है लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ जुड़ना कोई आम बात नहीं है, ये एक ऐसी अनुभूति है जिसकी तुलना किसी चीज़ के साथ नहीं की जा सकती, इस कंपनी को ख़रीदने के बाद मुझे दुनिया भर में बसे भारतीयों के ईमेल आए हैं, फीजी, सियरा लोन, बारबाडोस, दुबई, दक्षिण अफ़्रीका, बॉस्टन से लोगों ने संपर्क किया है, इससे हमें भी अंदाज़ा लगता है कि लोग आज भी भावनात्मक रूप से कितना जुड़े हुए हैं अपने इतिहास से, ये सिर्फ़ धंधा नहीं है, ये एक विरासत है, मेरे इस फैसले और सफलता पर भारत में मेरे दोस्त, स्कूल के शिक्षक तक ने खुशी जताई है।'
संजीव मेहता की योजना है कि अगले वर्ष ईस्ट इंडिया कंपनी को फिर से भारत ले जाया जाए जहां कि उसका कभी साम्राज्य था। चाहे यह कंपनी आज भी कहने को ब्रिटिश कंपनी है, मगर मूल अंतर यह है कि अब इस कंपनी का दिल हिन्दुस्तानी है।

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