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महिलाओं के हौसलों का इफ्फी में जश्न!

महिलाएं मुश्किलों के बावजूद भी खिल रहीं-प्राची बजानिया

प्रेसवार्ता में साझा की फ़िल्म 'द स्पेल ऑफ पर्पल' की कहानी

स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम

Monday 22 November 2021 04:48:40 PM

celebration of the spirits of women at iffi

पणजी। फ़िल्म 'द स्पेल ऑफ पर्पल' महिलाओं के हौसले का जश्न मनाती है, लेकिन ये उस थकान की बात भी करती है, जो पितृसत्ता से लगातार संघर्ष करने केबाद उनमें आ जाती है। फ़िल्म की निर्देशक प्राची बजानिया कहती हैंकि हमारे यहां महिलाओं की संपत्ति हड़पने केलिए या उन्हें परेशान करने केलिए उनपर डायन का लेबल लगा दिया जाता है। उन्होंने कहाकि यह फ़िल्म आदिवासी गुजरात में एक छोटे से क्षेत्र में पितृसत्ता की ताकतों के खिलाफ इन्हीं महिलाओं की लड़ाई की कहानी कहती है। गोवा में भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव में प्रेसवार्ता में निर्देशक प्राची बजानिया ने फ़िल्म के सिनेमैटोग्राफर राजेश अमारा राजन केसाथ फिल्म की कहानी साझा की।
निर्देशक प्राची बजानिया ने फ़िल्म के शीर्षक केपीछे की प्रेरणा पर बात करते हुए कहाकि बैंगनी रंग जादू और रहस्यवाद से जुड़ा है, वे इस रंग का इस्तेमाल इस विषय की थीम पर बात करने केलिए और साथही ये दिखाने केलिए करना चाहती थीकि महिलाएं इन मुश्किलों के बावजूद अब भी खिल रही हैं। प्राची बजानिया ने कहाकि महिलाओं को चुड़ैल या डायनों के रूपमें लेबल करने की कई कोशिशें उनकी संपत्ति हथियाने या उनका यौन उत्पीड़न करने के इरादे से की जाती हैं। उन्होंने बतायाकि इस फ़िल्म का विचार निर्देशक को तब आया, जब वे अंबी दुमाला के जंगलों से यात्रा कर रही थीं, अंबी दुमाला के इन जंगलों में उन्होंने जो 10 सेकंड का एक लोकगीत सुना, उसके स्रोत की खोज फ़िल्म द स्पेल ऑफ पर्पल के निर्माण पर आकर रुकी। उन्होंने कहाकि ये फ़िल्म महिलाओं के हौसले का जश्न मनाती है, लेकिन उस थकावट केबारे में भी बात करती है, जो लगातार उत्पीड़न का सामना करते हुए उनमें आ जाती है, ये फ़िल्म संदेश देती है कि प्यार करने में ही आज़ादी छुपी है।
गुजराती में इस फ़िल्म का मूल शीर्षक खिलशे तो खरा (वे तो खिलेंगी) है, जो ये दर्शाता हैकि समाज में तमाम बाधाओं और बुरी ताकतों के बावजूद महिलाएं खिलेंगी। निर्देशक प्राची ने कहाकि गुजराती सिनेमा को पहले सिर्फ ग्रामीण केंद्रों में ही दिखाया जाता था, लेकिन अब 2012-13 केबाद से शहरी केंद्रों में भी इनका प्रदर्शन होने लगा है और वे धीरे-धीरे वहां लोकप्रिय भी हो रही हैं। फ़िल्म के डायरेक्टर ऑफ फोटोग्राफी राजेश अमारा राजन ने बतायाकि उन्होंने अपने लेंस के जरिए दृश्यरतिक निगाह यानी वॉयेरिस्टिक गेज़ केलिए पुरुष की वृत्ति को कैप्चर करने की कोशिश की जैसाकि फ़िल्म में चित्रित किया गया है। सृजना अदुसुमल्ली एडिटर, जिक्कू जोशी साउंड डिज़ाइनर और शिखा बिष्ट प्रोडक्शन डिज़ाइनर ने भी मीडिया से बातचीत की।
इफ्फी-52 में भारतीय पैनोरमा के गैर-फीचर फ़िल्म खंड में दिखाई गई यह फ़िल्म एफटीआईआई पुणे में निर्देशक प्राची के प्रशिक्षण के हिस्से के रूपमें बनाई गई स्नातक फ़िल्म थी। फ़िल्म द स्पेल ऑफ पर्पल केबारे में-आदिवासी गुजरात में एक छोटे से खेत की मालकिन इनास ईर्ष्यालु पड़ोसियों के निशाने पर है, जो उसे 'चुड़ैल' कहते हैं, वो डर से घिरी हुई है और अन्य महिलाओं में ताकत ढूंढती है। ये अन्य महिलाएं हैं अकेलेपन से जूझ रही एक नई नवेली मां और एक युवा विवाहित महिला, जो अपने जीवन की उथल-पुथल का सामना करने को मजबूर होती है। ये महुआ का जंगल उनकी गुप्त बातचीत का मूक गवाह बनता है, जो कभी-कभी प्राचीन लोक गीतों के जरिए बात करती हैं। ये फ़िल्म उस गहरे तक बैठी थकान को भी दिखाने की कोशिश करती है, जो अक्सर ऐसी महिलाओं के रोज़मर्रा के साहस के पीछे होती है।

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