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इफ्फी में 'गंगापुत्र-जर्नी ऑफ अ सेल्फलेस मैन'

राजाराम तिवारी ने खोए तीर्थयात्रियों को प्रियजनों से मिलाया

निर्देशक जयप्रकाश ने राजाराम तिवारी का योगदान सराहा

स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम

Friday 26 November 2021 11:54:52 AM

rajaram tiwari reunites lost pilgrims with loved ones

पणजी। 'गंगापुत्र-जर्नी ऑफ अ सेल्फलेस मैन' डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म के निर्देशक जयप्रकाश ने कुछ इस अंदाज़ में राजाराम तिवारी की नि:स्वार्थ यात्रा का दस्तावेजीकरण करने की यात्रा को परिभाषित किया। उन्होंने कहाकि यह डॉक्यूमेंट्री बनाना उनके जीवन की सबसे नि:स्वार्थ रचनात्मक यात्रा रही है। उन्होंने बतायाकि राजाराम तिवारी एक सामाजिक कार्यकर्ता थे, जिन्होंने अपने प्रियजनों से बिछड़े लोगों को मिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। निर्देशक जयप्रकाश गोवा में 52वें भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव में संवाददाता सम्मेलन को संबोधित कर रहे थे। फ़िल्म को इफ्फी के भारतीय पैनोरमा खंड की गैर फीचर फ़िल्म श्रेणी में प्रस्तुत किया गया। आखिर ये राजाराम तिवारी कौन थे और उन्होंने लोगों को अपने प्रियजनों से कैसे मिलवाया? साधारण धोती और कुर्ता पहनने वाले राजाराम तिवारी, जिन्हें प्यार से 'भूले भटके वालों का बाबा' के नामसे जाना जाता है, वे कुंभ मेले में खो जानेवाले तीर्थयात्रियों को उनके परिवारों से मिलाने में मदद करने के आजीवन मिशन पर थे।
राजाराम तिवारी ने मिशन को पूरा करने केलिए 1946 में 'खोया पाया शिविर' संगठन की स्थापना की थी, जो लगभग 15 लाख महिलाओं और पुरुषों व 21,000 से ज्यादा बच्चों को बचाने और उन्हें अपने प्रियजनों से मिलवाने में कामयाब रहा है। ये लोग 4,700 एकड़ में फैले तीर्थस्थल पर उस तीर्थयात्रा के दौरान खो गए थे, जो कम से कम 41 दिन तक चलती है। राजाराम तिवारी की विरासत यूं ही बरकरार है। वर्ष 2016 में 88 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो जाने केबाद भी उनका शिविर कुंभ मेले, अर्ध कुंभ मेले और माघ मेले में तीर्थयात्रियों केलिए मार्गदर्शक प्रकाश बना हुआ है और बेजोड़ उत्साह एवं समर्पण केसाथ जरूरतमंदों की सेवा कर रहा है। निर्देशक जयप्रकाश ने फ़िल्म की उत्पत्ति पर कहाकि ये फ़िल्म बड़े परदे पर राजाराम तिवारी के उन अद्वितीय और निरंतर प्रयासों को लेकर आई है, जो 70 से ज्यादा वर्ष तक जारी रहे हैं। उन्होंने कहाकि जब वे अपने गृहनगर प्रयागराज में थे, तब उन्हें आइडिया आयाकि इन बेहद सरल और विनम्र इंसान की कहानी को वे सबके सामने लाएं, जिन्होंने लोगों को उनके प्रियजनों से मिलाने हेतु गर्मजोशी, प्रेम और करुणा के सेतुओं का निर्माण करने केलिए अथक प्रयास किया।
निर्देशक जयप्रकाश ने इफ्फी में मौजूद सिनेप्रेमियों को बतायाकि यह डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म परोपकारी इंसान की प्रचुरता भरी जिंदगी को समेटती है और उनके नि:स्वार्थ काम के सामाजिक महत्व को सामने लाती है। निर्देशक जयप्रकाश ने बतायाकि उनकी टीम ने यह सुनिश्चित करने केलिए विशेष प्रयास किएकि दर्शक सामाजिक कार्यकर्ता राजाराम तिवारी के योगदान के दायरे को अनुभव कर सकें। उन्होंने कहाकि हमने समय-समय पर उपलब्ध विभिन्न उपकरणों का इस्तेमाल करते हुए 10 वर्ष की अवधि में घटी घटनाओं को सावधानीपूर्वक रिकॉर्ड किया। दर्शक राजाराम तिवारी के पांच कुंभ मेलों, सात अर्धकुंभ मेलों और 54 माघ मेलों में काम करने के अनुभव को देख सकते हैं। निर्देशक ने कहाकि राजाराम तिवारी के खोया-पाया शिविरों को प्रशासन और पुलिस जैसे स्थानीय अधिकारियों से मदद मिलती है, हालांकि कुछ लोग बार-बार कोशिश करने केबाद भी अपने परिवारों से नहीं मिल पाते हैं, उन्हें अधिकारियों से संपर्क करने केबाद पुनर्वास का मौका दिया जाता है, अगर वे बच्चे हैं तो उन्हें उचित प्रक्रिया के माध्यम से इच्छुक लोगों द्वारा गोद लिया जा सकता है।
निर्देशक जयप्रकाश ने ताउम्र चले राजाराम तिवारी के मानवीय प्रयासों को आधिकारिक मान्यता देने केलिए एक भावुक आह्वान किया। उन्होंने कहाकि राजाराम तिवारी ने अपने जीवनकाल में कभी किसी मान्यता केलिए लालसा नहीं की, लेकिन मैं केंद्र और राज्य सरकारों से अपील करता हूं कि वे मानवता केलिए उनके इस अविश्वसनीय योगदान केलिए उन्हें मान्यता दें और सम्मानित करें। निर्देशक जयप्रकाश को उम्मीद हैकि देशभर के दर्शकों को इस डॉक्यूमेंट्री के माध्यम से राजाराम तिवारी के नि:स्वार्थ काम को देखने और सराहने का मौका मिलेगा। इस फ़िल्म बनाने की अपनी आकांक्षा को साकार करने के लिए निर्देशक को किन परेशानियों से गुजरना पड़ा, ये उन्होंने साझा किया। उन्होंने कहाकि उन्हें गंभीर वित्तीय बाधाओं का सामना करना पड़ा, क्योंकि फ़िल्म पूरी तरह से स्व-वित्तपोषित थी, फिर भी वे अपने रास्ते पर अडिग रहें और इसको पूरा किया। उन्होंने बतायाकि इस संघर्ष ने एक तरह से उनके विवाहित जीवन को भी जोखिम में डाल दिया, ये एक आसान रास्ता नहीं था।
निर्देशक जयप्रकाश ने बतायाकि मेरी अपनी पत्नी ने मुझे गलत समझा, क्योंकि मैं इस डॉक्यूमेंट्री को बनाते समय कई दिनों तक घर से दूर रहा, मैं नवविवाहित था, जब मैंने 2011 में इस फ़िल्म को बनाना शुरू किया था, जबतक मैंने इसे खत्म किया, तबतक मेरी निजी जिंदगी टूटने की कगार पर थी। निर्देशक जयप्रकाश ने खुशी केसाथ याद किया कि इफ्फी ने इस लहर का बहाव उनके पक्ष में मोड़ने में मदद की। निर्देशक जयप्रकाश ने कहाकि जब मेरी डॉक्यूमेंट्री को इफ्फी केलिए चुना गया था तो सभी ने मेरे काम केलिए मेरी प्रशंसा की और यहां तककि मेरी पत्नी ने भी अब मुझे स्वीकार कर लिया है तो एक तरह से इफ्फी ने मुझे मेरी पत्नी केसाथ फिरसे मिला दिया है और मेरी यात्रा यहां एक वृत्त पूरा करती है। उन्होंने कहाकि अंत में सबकुछ जुड़ा हुआ है और ऑन-स्क्रीन व ऑफ-स्क्रीन दोनों जगह मेरी कहानी ने आखिरकार अपना रास्ता पूरा कर लिया है, ये मेरी अपनी यात्रा का पर्याय बन गई है। अपनी जड़ों से फ़िल्म का संबंध बताते हुए निर्देशक ने कहाकि मैं हमेशा अपने गृहनगर प्रयागराज केबारे में एक कहानी कहना चाहता था, हर कोई 'कुंभ' पर फ़िल्म बनाता है, लेकिन मैं कुछ अलग करना चाहता था।

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