Tuesday 25 July 2023 02:13:18 PM
के विक्रम राव
मद्रास हाईकोर्ट की संपूर्ण पीठ जिसमें 57 न्यायमूर्तिजन हैं ने निर्दिष्ट किया हैकि तमिलनाडु तथा पुडुचेरी के कोर्ट परिसरों से डॉ भीमराव अंबेडकर की फोटो प्रतिमाएं आदि हटा दी जाएं। टाइम्स ऑफ इंडिया के 23 जुलाई 2023 के मुख पृष्ठ पर यह समाचार प्रकाशित है। हालांकि प्रदेश कांग्रेस पार्टी ने इस निर्णय पर पुनर्विचार की मांग की है। गौरतलब हैकि भारत का कोलकाता तथा मुंबई के बाद तीसरा सबसे पुराना हाईकोर्ट मद्रास का है, जो जून 1862 में निर्मित हुआ था। मद्रास हाईकोर्ट ने 11 मार्च 2010 को ही आदेशित किया थाकि केवल महात्मा गांधी और तमिल संत कवि तिरुवल्लुवर के अतिरिक्त किसी का भी चित्र न्यायिक परिसर में नहीं लगना चाहिए। यह तमिल संत कवि ईसा पूर्व के संहिता रचयिता हैं और सामाजिक सुधार के प्रणेता थे।
मद्रास हाईकोर्ट ने सर्वप्रथम 27 अप्रैल 2013 को और बाद में 7 जुलाई 2023 के दिन एक परिपत्र द्वारा यह निषेध जारी किया था। डॉ भीमराव अंबेडकर का कोर्ट परिसर में चित्र न लगाने वाले इस मद्रास हाईकोर्ट के इस निर्णय का प्रभाव पड़ोसी कर्नाटक में भी पड़ा है। डॉ अंबेडकर के इस मसले पर कई जगह हिंदू समाज अत्यंत विभाजित नज़र आ रहा है। तमिलनाडु में ही कई पिछड़े वर्ग के लोगों ने इस दलित मसीहा को समर्थन देने से साफ इंकार कर दिया है। पिछड़ा बनाम दलित का यह पुराना सामाजिक विभाजन गहरा रहा है। अन्य जाति के लोग अभी इस सवाल पर डॉ भीमराव अंबेडकर के पक्ष में नहीं आए हैं। मसलन 1 जनवरी 1818 को हुए कोरेगांव के युद्ध का उदाहरण यहां प्रस्तुत है।
कोरेगांव के युद्ध में बड़ी संख्या में राष्ट्रप्रेमी मराठे तथा क्षत्रिय अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ते हुए शहीद हुए थे। उनके समर्थन में छत्रपति शिवाजी के वंशजों ने भी संघर्ष किया, मगर डॉ भीमराव अंबेडकर ने ब्रिटिश शासकों का समर्थन किया था, क्योंकि इस आंग्ल-मराठा युद्ध में महार सैनिक ब्रिटिश राज के साथ रहे। डॉ भीमराव अंबेडकर महार जाति के थे। डॉ भीमराव अंबेडकर ने 1 जनवरी 1927 को कोरेगांव विजय स्मारक (जय स्तंभ) में एक समारोह आयोजित किया था। यहां महार समुदाय से संबंधित सैनिकों के नाम संगमरमर के एक शिलालेख पर खुदवाए गए तथा कोरेगांव को दलित स्वाभिमान का प्रतीक बनाया। उन्होंने 25 दिसंबर 1927 को मनुस्मृति की प्रतियां जलाईं थीं, अतः डॉ अंबेडकर का प्रश्न आते ही महाराष्ट्र में जातिगत विभाजन स्पष्ट दिखता है, इसी का प्रभाव देश के दक्षिणी प्रदेशों में भी पड़ने लगा है।
आधुनिक भारत में डॉ अंबेडकर के प्रश्न पर दलित और पिछड़ा वर्ग के मतभेद उभरते रहे हैं। डॉ अंबेडकर की उक्ति याद है-'सामाजिक समरसता कायम होने तक ब्रिटिशराज भारत में बना रहे।' इतिहास गवाह हैकि डॉ अंबेडकर ने कांग्रेस और महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह की भर्त्सना की थी। लंदन में 1931 में होने वाले दूसरे गोलमेज सम्मेलन में डॉ अंबेडकर को आमंत्रित किया गया था, जहां उनकी दलितों को पृथक निर्वाचिका के मुद्दे पर महात्मा गांधी से बहस हुई थी। ब्रिटिश शासक ने डॉ अंबेडकर के विचारों का समर्थन किया था। धर्म और जाति के आधार पर पृथक निर्वाचिका देने के प्रबल विरोधी महात्मा गांधी ने आशंका जताई थीकि दलितों को दी गई पृथक निर्वाचिका हिंदू समाज को विभाजित कर देगी, मगर अंग्रेजों ने 1932 में डॉ अंबेडकर से सहमति व्यक्त करते हुए दलितों को पृथक निर्वाचिका वाले कम्युनल अवार्ड की घोषणा कर दी।
महात्मा गांधी ने इसके विरोध में आमरण अनशन किया और तय हुआ कि हिंदू समाज को विभाजित नहीं होने दिया जाएगा। महात्मा गांधी तब यरवदा केंद्रीय कारागार में कैद थे (24 सितंबर 1932)। एमआर जयकर, तेज बहादुर और डॉ अंबेडकर उनसे जेल में मिले। तब समाधान निकला और पूना पैक्ट बना, मगर इनसब ऐतिहासिक घटनाओं के परिवेश में दक्षिण-पश्चिमी भारतीय प्रदेशों की जनता में दलित बनाम पिछड़ा समाज के खेमों में विभाजन गहराता गया। गांधीजी डॉ अंबेडकर का सदैव सम्मान करते रहे। स्वतंत्रता की बेला पर 1946 में महात्मा गांधी ने जवाहरलाल नेहरू के सुझाव को खारिज कर डॉ अंबेडकर को संविधान रचना समिति का अध्यक्ष मनोनीत कराया, जबकि जवाहरलाल नेहरू की पसंद ब्रिटेन के सर आइवोर जेनिंग्स थे, जिन्होंने सिलोन यानी श्रीलंका, पाकिस्तान, मलाया, नेपाल आदि के संविधान की रचना की थी। महात्मा गांधी ने इस ब्रिटिश कानून विद्वान को नकार कर भारतीय डॉ अंबेडकर को नियुक्त कराया। हालांकि डॉ अंबेडकर संविधान सभा का चुनाव जीत न सके थे, फिर उन्हें बंगाल से जितवाया गया।
महात्मा गांधी की दूरदृष्टि का ही परिणाम है कि डॉ अंबेडकर सरीखे महान विधिवेत्ता के पथ प्रदर्शन में ही भारत के नए गणराज्य को संविधान मिला। यूं आजाद भारत के कई वरिष्ठ और राष्ट्रवादी नेताओं को अंतरिम ब्रिटिश शासक सर आइवोर जेनिंग्स को संविधान समिति में करने और डॉ अंबेडकर का विरोध करने पर बहुत आश्चर्य हुआ था। ब्रिटिश शासक हमेशा डॉ अंबेडकर के पक्षधर रहे। बंबई के अंग्रेजी गवर्नर ने 1926 में डॉ अंबेडकर को मुंबई विधान परिषद का सदस्य मनोनीत किया था। वे 1936 तक विधायक रहे। उन्हें सरकारी लॉ कॉलेज 1935 में प्रधानाचार्य नियुक्त किया गया। उन्होंने दो वर्ष तक कार्य किया, फिर 1942 से 1946 तक उनको ब्रिटिश वायसराय के काबीना में श्रम मंत्री नियुक्त किया गया। उस समय भारत में 1942 का भारत छोड़ो जनसंघर्ष चल रहा था। कांग्रेसी सत्याग्रही ब्रिटिश जेलों में डाल दिए गए थे। वर्तमान परिवेश में विषादभरा विषय यही हैकि स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद भी भारतीय समाज तीन खेमों में बंटा है-सवर्ण, पिछड़ा तथा दलित। इन तीनों को जबतक एक सूत्र में नहीं पिरोया जाएगा, तबतक डॉ अंबेडकर का चित्र लगाने जैसे मुद्दे पर सम्यक विचार नहीं बन पाएगा, अतः अब वोट बैंक की सियासत पर संयुक्त रूपसे प्रहार करना पड़ेगा, ताकि राष्ट्र एक रहे। (के विक्रम राव देश के जाने-माने पत्रकार हैं, स्तंभकार हैं। यह आलेख उनकी फेसबुक वॉलपोस्ट से साभार)।