Friday 19 July 2013 12:27:34 PM
हृदयनारायण दीक्षित
हम भारत के लोग न जाने कितने जन्मों से प्रकाश अभीप्सु है़ं। प्रकाश हम सबको लहालोट करता है। पूरब में ऊषा आई। भोर के पहले, रात्रि देवी विदाई ले रही हैं। क्षितिज अरूण हो रहे हैं। हमारे पूर्वजों ने ऊषा की आभा को प्रणाम किया। फिर आए सूर्य। वैदिक ऋषियों के लाड़ले देव सविता। हमने उनसे 'ज्ञान प्रकाश- धीमहिधियो' मांगा। वे सायंकाल चले विश्राम की ओर। हमने संध्या की वेला में उन्हें फिर से नमस्कार किया। दिवस प्रकाश है और रात्रि तमस्। सूर्य देव रात्रि में नहीं उगते। उगते तो रात न होती। रात्रि में प्रकाश देने का काम सूर्य से ऊर्जा लेकर चंद्रमा करता है। वैज्ञानिकों ने सौर ऊर्जा के प्रकाश उपकरण अब खोजे हैं। प्रकृति में सौर ऊर्जा से दीपित चंद्र किरणें न जाने कब से अमृतरस बरसा रही हैं, लेकिन चंद्रमा लगातार घटता बढ़ता है। घटने का अंतिम पड़ाव अमावस्या है और प्रकाश का चरम पूर्णिमा। भारत ने दोनो को प्यार किया है। दीपपर्व गहन अमावस वाली रात्रि को ही रखा, हरेक अमावस को स्नान व्रत के अनुष्ठान रखे, लेकिन पूर्णिमा की खुशी की बात ही दूसरी है। शरद पूर्णिमा अमृतरस देती है। कार्तिकी पुण्य प्रताप। अषाढ़ पूर्णिमा बादलों से ढके आसमान के बावजूद खिलती है। भारत ने उसे गुरू पूर्णिमा कहा। पूर्णिमा भारत के मन की प्रियतमा है। ऋग्वेद के ऋषि ने चंद्रमा को जगत का मन बताया है-चंद्रमा मन सो जाता।
गुरू विवेक है, चंद्रमा मन है। बड़ा प्यारा शब्द है गुरू। गुरूत्व इसी से उगा है और इसी का विस्तार है गुरूत्वाकर्षण। यों गुरूत्वाकर्षण को पृथ्वी का आकर्षण कहा जाता है, लेकिन इसका मूल अर्थ भार का आकर्षण है। गुरू प्रीतिपूर्ण अवधारणा है। उसमें गुरूत्व है, लेकिन इसका संग हमको निर्भार करता है, मुक्त करता है। विश्व की किसी भी सभ्यता में 'गुरू' जैसा प्रतीक नहीं है। पादरी गुरू नहीं हैं, वे ईसाइयत की शिक्षा देते हैं। मौलवी भी गुरू नहीं हैं, वे इस्लामी ज्ञान देते हैं। पादरी और मौलवी बांधते हैं अपनी आस्था में, लेकिन गुरू मुक्त करता है। गुरू शिष्य को दूसरा जन्म देता है। एक जन्म मिलता है माता-पिता से। गुरू दूसरा जन्म देता है। गुरू द्विज बनाता है। अथर्ववेद के सुंदर सूक्त (11.7) में कहते हैं, गुरू उसे तीन रात तक ज्ञान गर्भ में रखते हैं, जब वह बाहर आता है, दिव्य शक्तियां उसका अभिनंदन करती हैं।'' ज्ञान गर्भ खूबसूरत प्रतीक है। मां का गर्भ हमको प्राण और काया देता है। गुरू का ज्ञानगर्भ हमको बोध देता है और द्विज बनाता है। उपनिषद के ऋषि कहते हैं, गुरूरेव परम धर्मो, गुरूरेव परा गति-गुरू परमधर्म है और वही परा-गति है।'' उपनिषद्कार ने धर्म नहीं परमधर्म कहा है और गति के भी पहले परा शब्द का प्रयोग किया है। तो परम धर्म क्या है? धर्म व्यक्ति और लोक के संबंधों की आचार संहिता है, यह व्यक्ति और लोक के मध्य अंतर्संगीत का छंदस् है। परमधर्म इस धर्म का अतिक्रमण है। धर्म जीवन का पुष्प है और परमधर्म पराग। जैसे पराग फूल का सर्वोत्तम रस है, वैसे ही परमधर्म धर्म का शिखर। परमधर्म एकात्म अनुभूति है।
जगत गतिशील है। गति स्वाभाविक नियति है। बुरी गति दुर्गति है। उचित दिशा में गति प्रगति है। सत्य दिशा की गति सद्गति है, तब उपनिषद् वाली परागति क्या है? सारी गतियां चक्रानुवर्ती हैं। हम कहीं से चलें, चलते ही रहें तो वहीं पहुंचेंगे, जहां से चले थे। ऐसी गति का क्या लाभ? चले भी, थके भी, टूटे और बुढ़ाए भी, लेकिन पहुंचे कहीं नहीं। मैं राजनीति में गतिशील हूं। जवानी में मंच, माला, माइक के आकर्षण थे। अंतर्दलीय सिर फुटौवल थी। विपक्षी पर आक्रमण थे। हम चलते गए, बढ़ते गए, लेकिन मंच, माला, माइक और यश लोभ जस के तस हैं। जीवन की गाड़ी उसी स्टेशन पर लौट आई, जहां से चली थी। 'परागति' ऐसी गति का अतिक्रमण है। उपनिषद् के ऋषि ने गुरू को 'परागति' बताया है। गुरू का संस्पर्श आत्मबोध जगाता है। चक्रीय गति से बाहर करता है। गति के पार ले जाता है। परागति वस्तुत: कोई गति नहीं।
गुरू ऊर्जा का बड़ा बिंदु है। वह विराट ब्रह्म की ऊर्जा से सीधे जुड़ा हुआ है। शिष्य ऊर्जा का छोटा पिंड है, लेकिन वह विराट से सीधे ऊर्जा लेने में सक्षम नहीं है। अपनी अपनी ग्राह्यता है। गुरू महापावर हाउस से सीधे जुड़ता है। ऊर्जा लेता है, ट्रांसफार्मर बनता है। शिष्य को ट्रांसफार्मर गुरू से ऊर्जा लेने में सुविधा है। शिष्य गुरू से जुड़ता है। गुरू शिष्य में प्रवाहित होता है। शिष्य होना स्वभाव है। शिष्य अर्थात सीखने को सदा तैयार। जब सीखने की तत्परता स्वभाव बन जाती है, तो सारा अस्तित्व गुरू बन जाता है। धरती, आकाश, सूर्य, चंद्र, अग्नि, वायु और जल भी गुरू हो जाते हैं, तब इसके लिए जरूरी है, ऊंचे तल से प्रवाह और नीचे के तल पर स्वीकार। ऊपर से अनुकंपा, नीचे से धन्यवाद भाव। ऊर्जा बड़े ऊर्जा पिंड से छोटे ऊर्जा पिंड को बहती है। विज्ञान यह सिद्ध कर चुका है। यह विज्ञान का नियम नहीं है। नियम प्रकृति का है, वैज्ञानिक ने देखा है। वैज्ञानिक प्रकृति प्रवाह के नियम देख सकते हैं। ऋषि चेतन की गति भी देखते रहे हैं। गुरू और शिष्य की प्रीति ऋषि अनुभूति है। उत्तर वैदिक काल के आश्रमों में गुरू शिष्य की प्रीति ढलती थी। दोनों साथ-साथ स्तुति करते थे, ओ3म् सहनाववतु, सहनौ भुनक्तु-साथ साथ होने, साथ साथ सीखने, खाने और ओजस्वी यशस्वी होने की। तब गुरू मधुमय थे, शिष्य मधुमत्त थे। गुरू प्रसाद पूर्ण थे, शिष्य प्रसाद अभीप्सु थे। गुरू ऋक् थे,शिष्य साम थे। गुरू सूर्य थे, शिष्य चंद्र थे। गुरू में पूर्णिमा देखना शिष्य की अपनी चंद्रअनुभूति है।
गुरू पूर्णिमा ही हो सकता है। अंधकार हमारा गहन अनुभव है। मां के गर्भ में घोर अंधकार में हमने सन्यास जैसे सुख पाए हैं। न भोजन की परवाह और न घर की। अहंकार के दंश थे नहीं। सब मां पर था। हम मां में थे, मां हममे थी। जगत में आए तो सूर्य प्रकाश से सामना हुआ तो रात्रि ज्यादा भाई। दिन श्रम बना और रात्रि विश्रम। चंद्रमा ने थपकी दी। विश्रम को मधुमय बनाया। रात्रि को मधुर प्रकाशमय बनाया। गुरू भी यही करता है। वही ब्रह्मा है, सृजनकर्त्ता है। वह पालक विष्णु की भूमिका में होता है। संरक्षण देता है, पोषण भी देता है। वह महेश होता है, हमारे अहंकार को नष्ट करता है। अहंकार ही हमारे होने का मिथ्याभास है। पूर्वजों ने गुरू को ठीक ही ब्रह्म, विष्णु और महेश कहा है, लेकिन अनुभूति से बनी श्रद्धा इतने पर ही नहीं रूकी। आगे उसे साक्षात 'पर ब्रह्म' भी कहा। परब्रह्म ब्रह्म के पार की सत्ता है। मेले में खो गए अबोध बच्चों को जैसे उंगली पकड़कर कोई सज्जन घर पहुंचा देता है, वैसे ही गुरू भी मूल गंतव्य तक ले जाता है। गुरू प्राण से जुड़ता है, प्राणमय मजबूत करता है। हमें विज्ञान से जोड़कर विज्ञानमय बनाता है। वह प्रज्ञान है, प्रज्ञानी बनता है। वह आनंद है, उसका संस्पर्श आनंदी बनाता है।
गुरू तीर्थ है। उसका संग, साथ और संस्पर्श उपनिषद् कहलाता है। गुरू जैसा ही प्यारा शब्द है-उपनिषद। उप का अर्थ है निकट। नि का अर्थ ठीक से और षद् का अर्थ होना, बैठना। कमाल की बात है कि विश्व का सबसे बड़ा ज्ञान निकट बैठने की साधारण गतिविधि में उगा। जैसे रोग संक्रामक होते हैं, वैसे ही ज्ञान भी। रोगी का साथ रोग देता है, भोगी का संग भोग देता है, योगी की प्रीति योग देती है और गुरू का साथ उपनिषद् बनता है, उपनिषद् होता है। उपनिषद् गुरू और शिष्य के मध्य घटित संवाद ही हैं। गुरू बोले, शिष्य ने सुना। शिष्य के अंत:करण में प्रश्न, प्रतिप्रश्न उगे। गुरू ने अनुभूति से उत्तर दिए, लेकिन कथन-श्रुति की इस कार्यवाही में बिना बोले ही तमाम प्रश्न उगे, बिना बोले ही तमाम उत्तर भी आए। दोनों ने शपथ ली थी, ऋतं वदिष्यामि, सत्यं वदिष्यामि,'' की। ऋत ही बोलूंगा, सत्य ही कहूंगा। आचार्य स्वर था, शिष्य बांसुरी था। उपनिषद् गीत हैं इसी बांसुरी के। जान पड़ता है कि ऋत और सत्य ही वक्ता श्रोता थे। गुरू ऋत था, शिष्य सत्य बना, जो ऋत था, वही सत्य था। दोनों एक थे, दो थे ही नहीं। पूर्णिमा में सूर्य का ही तेज है। चंद्रमा मन तो सूर्य आत्मा। गुरू और पूर्णिमा के अद्वय प्रतीक को बारंबार नमस्कार है।