दिनेश शर्मा
नई दिल्ली। भारतीय जनता पार्टी ने उत्तराखंड में कांग्रेस का सत्ता का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। निशंक के तख्तापलट से पहले यह संशय बना हुआ था कि भाजपा की उत्तराखंड में वापसी हो सकती है, लेकिन भुवन चंद्र खंडूडी के फिर से राजतिलक के बाद भाजपा की सत्ता में वापसी की आशाएं अब लगभग निर्मूल हुई लगती हैं। मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) भुवन चंद्र खंडूडी एक सैनिक हैं,जिस नाते वे सीधी सच्ची भाषा जानते हैं, खंडूडी एक ईमानदार शासनकर्ता हैं और नियम कानून से चलते हैं, मगर दुविधा यह है कि राजनीति का इन दोनों नीतियों से छत्तीस का आंकड़ा है, इसीलिए इससे पहले के खंडूडी शासन का परिणाम लोकसभा चुनाव में देखने को मिला, जिसमें उत्तराखंड से भाजपा साफ हो गई और खिसियाकर भाजपा ने उत्तराखंड की सत्ता रमेश पोखरियाल निशंक को सौंप दी। विधान सभा चुनाव तक सत्ता बचाए रखने के लिए निशंक ने कई राजनीतिक दांव तो खेले, मगर वे विफल हुए। उन्होंने अकूत दौलत भी अर्जित की, इसमें भी किसी को कोई संदेह नहीं लगता है। अपने हंसमुख अस्त्र का उन्होंने भरपूर लाभ उठाया, इसलिए उनकी जब विदाई हुई तो भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी से उन्हें यह जीवनदायी 'कांम्प्लीमेंट' मिला कि निशंक पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं है।
निशंक को यह 'कांम्प्लीमेंट' देकर उन्हें उत्तराखंड से चलता करने वाले नितिन गडकरी को उत्तराखंड विधान सभा चुनाव में इसी प्रश्न का उत्तर देना है कि जब निशंक 'ईमानदार' ही हैं और उन पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं है, तो फिर ऐन चुनाव के पहले उन्हें मुख्यमंत्री से बेदखल कर, उन भुवन चंद्र खंडूडी को फिर से सत्ता क्यों दे दी गई, जो बेशक ईमानदार और अच्छे शासनकर्ता तो हैं, मगर चुनाव जिताऊ मुख्यमंत्री नहीं माने जाते हैं?राजनीतिक चालाकियां और राजनीतिक प्रबंधन उनके वश की बात नहीं है, जिसका प्रमाण यह है कि उनके मुख्यमंत्रित्व काल में उत्तराखंड में लोकसभा चुनाव में भाजपा को मुंह की खानी पड़ी। खंडूडी का शासन बहुत अच्छा चल रहा था और उन्होंने उत्तराखंड की जनता के अनुकूल शासन किया थ,तो जनता ने लोकसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ क्यों मतदान किया, जिसमें पांचों सीटें कांग्रेस की झोली में गईं और आज ये सीटें उत्तराखंड में कांग्रेस की वापसी का मार्ग प्रशस्त करती नज़र आ रही हैं। लोग पूछ रहे हैं कि भाजपा को अचानक नेतृत्व परिवर्तन करके क्या लाभ मिलने वाला है? यदि यह फार्मूला विफल गया तो सन् 2014 के लोकसभा चुनाव तक उत्तराखंड में भाजपा किसकी बैठक पर जाकर बैठेगी? निशंक के रहते भी भाजपा की वापसी संशयात्मक रूप से देखी जा रही थी तो क्या खंडूडी, निशंक से ज्यादा तेज राजनीतिज्ञ हैं,जो भाजपा को फिर से वापस लाने में कामयाब होंगे?
पूर्व मुख्यमंत्री और उत्तराखंड भाजपा के अध्यक्ष भगत सिंह कोश्यारी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं, इस परिवर्तन की कहानी से जुड़ी बताई जाती हैं। पिछली बार भी सत्ता परिवर्तन के कारक कोश्यारी ही थे, जिन्होंने खंडूडी का सत्ता चलाना इस कदर दूभर कर दिया था कि उन्हें सत्ता से हाथ धोना पड़ा। कोश्यारी को शायद यह आशा थी कि उन्हें सत्ता का मौका मिलेगा, लेकिन यह अवसर निशंक को मिला और कोश्यारी हाथ मलते रह गए। उत्तराखंड विधान सभा चुनाव अगले साल पांच राज्यों के साथ होने हैं और इस चुनाव तक ही खंडूडी का भी शासन समझिएगा। चुनाव बाद क्या होगा,यह खंडूडी भले ही न समझें,लेकिन कोश्यारी जानते हैं और निशंक तो और भी अच्छी तरह से जानते हैं। निशंक ने अन्य रणनीतियों के अलावा अटल आदर्श ग्राम योजना से उत्तराखंड की पंचायतों और गांवों में अपनी राजनीतिक पकड़ बनाने की एक बड़ी कोशिश की हुई थी, इसका एक 'अंडर करेंट' निशंक के लिए काफी अनुकूल समझा जा रहा था। इसका लाभ अब खंडूडी उठा पाएंगे कि नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता। सत्ता परिवर्तन के घटनाक्रम के बाद उत्तराखंड भाजपा में आंतरिक संघर्ष शुरू हो चुका है, जिसे कांग्रेस, मछली की आंख पर नहीं, बल्कि मछली की पुतली पर नज़र गड़ाकर देख रही है। केंद्र में कांग्रेस गठबंधन सरकार है, जिसका उसे इस चुनाव में जरूर लाभ मिलेगा और बाकी काम भाजपा नेतृत्व ने आसान कर हीदिया है। निशंक, भ्रष्टाचारी हों या अकर्मण्य हों,अब यह उतना बड़ा मामला नहीं रहा, जितना बड़ा सत्ता परिवर्तनऔर उसके संभावित परिणामका मामला है।
रूड़की से राजनीतिक एवं संवैधानिक मामलों के विश्लेषक और वरिष्ठ वकील डॉ गोपाल नारसन का कहना है कि राजनीतिक पार्टियों ने अब संविधान की मूलभावना को कुचलकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अपने ठेंगे पर रख दिया है। उत्तराखंड में भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने जिस तरह से मुख्यमंत्री बदलने के लिए नए मुख्यमंत्री के नाम की घोषणा पहले करके उत्तराखंड विधायक दल की बैठक बाद में करने का रास्ता अपनाया है, वह निश्चित रूप से संविधान की मूल भावना को ओवर लुक करने वाला है। स्वयं भाजपा के पास भी इस सवाल का कोई जवाब नही है कि विधायक दल की बैठक से पहले, मुख्यमंत्री को हटाने की घोषणा कर नए मुख्यमंत्री के नाम का चयन कैसे कर लिया गया? इस तरह मुख्यमंत्री बदलने का भाजपा का भी इतिहास कोई नया नही है। उत्तराखंड राज्य के गठन के समय सौगात में मिली सत्ता की कुर्सी को भी भाजपा संभालकर नहीं रख पाई। तभी तो पहले नित्यानंद स्वामी को मुख्यमंत्री बनाया गया और फिर जब उनसे सरकार नही चल पाई या फिर वे भाजपा हाईकमान की कसौटी पर खरे नही उतर पाए तो भाजपा ने नित्यानंद स्वामी को कार्यकाल पूरा करने से पहले ही, मुख्यमंत्री की कुर्सी से उतारकर भगत सिंह कोश्यारी को मुख्यमंत्री बना दिया, लेकिन इस बदलाव का भाजपा हाईकमान को कोई फायदा नहीं हुआ,क्योंकि सन् 2002 के विधानसभा चुनाव में भाजपा चारो खाने चित्त हो गई और जीत की बाजी कांग्रेस के हाथ लग गई।
डॉ गोपाल नारसन का कहना है कि सन् 2007 के विधान सभा चुनाव में भाजपा को, कांगेस के टिकट गलत तरीके से आवंटन का लाभ मिला था। इस बार भी पहले भुवन चंद्र खंडूडी को मुख्यमंत्री बनाया गया और फिर अचानक लालीपाप की तरह मुख्यमंत्री की कुर्सी रमेश पोखरियाल निशंक को थमा दी गई। निशंक के मुख्यमंत्री रहते कई बार भगत सिहं कोश्यारी ने उन्हे कुर्सी से उतारने की कोशिश की, परंतु वे सफल नही हो सके। कोश्यारी को यह सफलता उन्हें इस कारण नही मिल पाई, क्योकि उस समय तक उनमे और खंडूडी में एकता नही हो पाई थी, लेकिन जैसे ही दोनो के सुर मिले तो राज्य में तख्ता पलट हो गया, यानि फिर से मुख्यमंत्री की कुर्सी निशंक से छीनकर खंडूडी को वापस कर दी गई। इससे लगता है कि भाजपा के लिए भी मुख्यमंत्री की कुर्सी एक फुटबाल की तरह हो गई है। भाजपा में जिसने जैसे चाहा, वैसे खेलना शुरू कर दिया। सच यह भी है कि निशंक शासन में घोटाले भी उनकी कुर्सी के दुश्मन बने। चाहे स्टर्डिया मामला हो या पावर प्रोजेक्ट में हुई बड़ी धाधंली या फिर कुंभ का खर्च, हर मामले में निशंक लिपटते जा रहे थे। ऐसे में भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी भ्रष्टाचार के विरूद्ध रथ यात्रा कैसे निकाल पाते?
लेकिन क्या निशंक को हटाने मात्र से भाजपा के पाप धुल जाएंगे? जबकि चाहे खंडूडी का शुरू का कार्यकाल रहा हो या निशंक का दो साल का कार्यकाल रहा हो, इसका उत्तर चुनाव में जनता मांगेगी। यानि कुर्सी पर चाहे निशंक रहे हों या अब खंडूडी, दोनो को ही आने वाले चुनाव में भाजपा शासनकाल की खामियों का सामना करना होगा, खंडूडी एक अच्छे शासनकर्ता होने के बावजूद 'जनता के बीच शासन' में उतना फिट नहीं बैठते हैं, इसीलिए नहीं लगता है कि भाजपा को इस परिवर्तन का कोई लाभ होगा, बल्कि इसे खुद ही सत्ता से हाथ धोना कहा जाए तो ज्यादा उचित होगा। उत्तराखंड के पूरे राजनीतिक परिदृश्य में यह बात भी बिल्कुल साफ है कि यदि इसी प्रकार पांच साल में कई सरकारें आएंगी तो न केवल उत्तराखंड में कुछ और राज्यों की तरह राजनीतिक अस्थिरता फैल जाएगी, अपितु उसके विकास का सपना एक सपना ही रह जाएगा।