आरएल फ्रांसिस
नई दिल्ली। आपने देखा और सुना? फरवरी का महीना लगते ही मीडियाऔर बाजार, वेलेंटाइन-डेके प्रचार-प्रसार में किस तरह से जुटे हुएथे? आर्थिकमामलों के जानकारों का मानना है कि भारत में वेलेंटाइन डे का बाज़ार 1200 करोड़ रुपए के आंकड़े को पार कर गया है। बढ़त का यहसिलसिला पिछले कई वर्षो से 20 प्रतिशत से भी ज़्यादा की दर से जारी है। भारत की आधी से ज़्यादा आबादी युवा है और वेलेंटाइनडे समर्थक, मीडियाकी मदद से इसका विरोध करने वालों को आम भारतीयों की नज़र में खलनायक साबित करने मेंलगे हुए हैं। पिछले कुछवर्षो से 14 फरवरी वाले दिन भारतीय संस्कृति के कुछ तथाकथित झंडाबरदार खुश होते आ रहेहैं, मगर आधुनिकसभ्यता की ऐसी विकृतियोंका मुकाबला यूं ही नही कियाजा सकता। संसार में कहीं भी धर्म औरसुधार आंदोलन स्वच्छंद यौनाचार का समर्थन नहीं करते, पूरे विश्व में अभी भी नारी पुरुष संबधों में पवित्रता का आदर्श पूरी तरह मान्यहै, लेकिन आजभारत के अंदर व्यक्तिगत स्वतंत्रता और आधुनिकीकरण के नाम पर स्वेच्छाचारी जीवनशैलीकी वकालत करना फैशन बनता जा रहा है, इससे परिवारसंकट में हैं, इसीलिएपरिवारों में विघटन पर पश्चिमीसमाज में गहन चिंतन हो रहा है।
हाल ही में सामने आए कुछ सर्वेक्षणों के मुताबिक दुनिया में विवाह संबंध टूटने केमामले लगातार बढ़ रहे हैं, किंतु भारत में इसका सुखदपहलू यह है कि अनुपातिक दृष्टि से यहां ऐसा बहुत कम है, क्योंकि भारत में विवाह को जन्मों का रिश्ता माना गया है। भारत में वेलेंटाइनडे जैसे अवसर स्वेच्छाचार को बढ़ावा दे रहे हैं, जिसे बाज़ार और मीडियासे खासा समर्थन मिला हुआ है। अपराध जगत से जुड़े और यौनावस्था को बाज़ार में उतारने वालों केलिए तो यह दिन अर्थव्यवस्थासे जुड़ चुका है। सर्वेक्षण के मुताबिक वैवाहिक संबंधों में विघटन की स्थिति स्वीडन में 54.9, अमेरिका में 54.8, ब्रिटेन में 42.6, जर्मनी में 39.4, फ्रांस में 38.3, कनाडा में 37.0 और भारत 1.1 प्रतिशतआंकी जाती है। भारतका मीडिया भारी अंतर्विरोध में फंसा हुआ है। एक तरफ वह रोजाना अनैतिक कार्यों के दुष्परिणामोंवाले समाचार बढ़-चढ़ कर प्रकाशित एवं प्रसारितकरता है, तो दूसरी ओर वह नये-नये लवगुरु ढूंढकर फैशन और सेक्स को बेशर्मी के साथ बेचता है, लव से लेकर लिव-इन रिलेशनशिपतक के फायदे गिनाता है।
भारतीय संस्कृतिकी चिंता करने वालों को भी यह समझना जरुरी है कि पश्चिम के संत वेलेंटाइन अचानक भारत नहीं आ गए, उनको यहां लाने में150 सालों से ज़्यादा का समय लगा है और अब मैकाले को भारत में स्थापित किये जाने केप्रयास किए जा रहे हैं। हैरानी नहीं होगी कि आने वाले पचास सालों में मैकाले भी भारतीययुवा पीढ़ी के नायक बन जाएं। मैकाले और संत वेलेंटाइन में गहरा रिश्ता है। उन्नीसवींसदी में मैकाले की भारत को दी गई शिक्षा प्रणाली ही इसकी देन है। सन् 1835 में मैकाले की जारीमेमो में इस का उल्लेख मिलता है कि उसका मकसद एक ऐसे समूह का निर्माण करना था, जो रक्त औररंग में तो भारतीय हो, किंतु रुचि, राय, नैतिकता और सूझबूझ मेंअंग्रेज। वह अपने पिता को लिखे एक पत्र में लिखता है कि ‘मैं भारत में एक ऐसी प्रणाली विकसित कर रहा हूंजो ऐसे ‘काले अंग्रेज’ पैदा कर देगी, जो अपनी ही संस्कृति का उपहास उड़ाने में गर्व महसूस करेंगे, वह भारत कीप्राचीन सभ्यता को आमूल नष्ट करने में हमारे सहायक होंगे, इसके बाद हम अगर परिस्थितिवशभारत छोड़कर चले भी गए तो यह काले अंग्रेज हमारा काम करते रहेंगे।’
मैकाले के बहनोई चार्ल्स एडवर्ड ट्रेविलियन ने शिक्षा प्रणाली को संपूर्ण भारत में फैलानेके लिए पश्चिमी समाज से सहायता की मांग की, इसके लाभदायक परिणामों की चर्चा करते हुए, उसने कहा कि मैकाले की योजना रंग ला रही है, बंगाल में ही संभ्रात बंगाली समुदाय ने इसे अपना लिया है और इस प्रणाली के माध्यमसे हम धर्म परिवर्तन के प्रयास किए बिना, धार्मिकस्वतंत्रता के प्रति तनिक भी छेड़-छाड़ किए बिना, सिर्फ अपनी इस शिक्षा प्रणाली के बल पर चर्च के कार्यो को बढ़ाने एवं इसाईयत काप्रसार करने में सफल होंगे। चार्ल्स एडवर्ड ट्रेविलियनएक उदाहरण देते हुए कहता है कि एक ‘युवा हिंदू’ जिसने उदार अंग्रेजी शिक्षा पाई थी, अपने परिवार के दबाव में काली मंदिर गया, मैडम काली के सामने अपनी टोपी उतारी, थोड़ा झुका और बोला ‘आशा है महामहोदया सही सलामत है।’ चार्ल्सएडवर्ड ट्रेविलियन अपनी बात स्पष्ट करते हुए आगे कहता है कि शिक्षा प्रणाली अवरोध हटासकती है, लेकिन मिशनरियोंको आगे बढ़कर हिंदू दुर्ग पर कब्जा कर लेना चाहिए। भारत को धर्मांतरित लोगों की संख्यासे नही मापा जाना चाहिए, बल्कि इसबात को समझना चाहिए कि भारत की बहुसंख्यक हिंदू आबादी हमारी संस्कृति को आत्मसात कररही है।
मैकाले कीजीत के साथ अपसंस्कृति की विजय हुई है। भारत के ही लोग अपने प्राचीन मूल्यों और अपनीसबसे श्रेष्ठ परंपराओंको ध्वस्त करने में लगे हुए हैं। आज देश दो भागों में बंटता जा रहा है, एक वो हैजिनके आदर्श पश्चिमी नायक हैं, दूसरी तरफ वो हैं जो आज भी वैदिक भारत, उपनिषदों के दर्शन, और अपने प्राचीन ग्रंथों से प्रेरणा पाते हैं।एक सोची समझी साजिश के तहत राष्ट्रीय मूल्यों की वकालत करने वालों को सांप्रदायिक औरसंर्कीण मानसिकता का घोषित किया जा रहा है। पश्चिमी सभ्यता को अपनाने की होड़ में हमारेकथित अधुनिकतावादियों का सारा जोर इस बात पर लग रहा है कि भले ही हमारे अपने राष्ट्रनायक ‘संत कबीर, तुलसी, गुरु नानकदेव, बुद्ध, मीरा, विवेकानंद आदि विस्मृतहो जाएं। संत वेलेंटाइन लोगों के दिमाग़ में रहने चाहिएं, इन्हें कौन रोक सकता है, इसका अंदाजाआज आप भारतीय मीडिया के प्रचार-प्रसार के तरीके को देखकर लगा सकते हैं। हमें इस बातका संतोष है कि आज भीभारत का एक बड़ा वर्ग राष्ट्रीय मूल्यों को बनाये रखने को प्रतिबद्ध है। राष्ट्रीय एवंसामाजिक मूल्यों कीरक्षा हर हाल में की जानी चाहिए और इसकी रक्षा भी हिंसक तरीकों से नहीं की जा सकती, पश्चिमी सभ्यताका मुकाबला करने के लिए हमें मैकाले से बड़ी लकीर खीचनी होगी।