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Thursday 15 August 2013 08:22:02 AM
नई दिल्ली। भारत के 67वें स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्र के नाम संदेश में कहा है कि पिछले लगभग सात दशकों से हम खुद अपने भाग्य के नियंता हैं और यही वह क्षण है, जब हमें स्वयं से पूछना चाहिए कि क्या हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं? यदि हम उन मूल्यों को भुला देंगे जो गांधीजी के आंदोलन की बुनियाद थे, अर्थात्, प्रयासों में सच्चाई, उद्देश्य में ईमानदारी तथा सबके हित के लिए बलिदान, तो उनके सपनों को साकार करना संभव नहीं होगा। राष्ट्रपति ने सबसे पहले महात्मा गांधी को याद किया और कहा कि उनके अदम्य संघर्ष ने हमारी मातृभूमि को लगभग दो सौ वर्षों के औपनिवेशिक शासन से मुक्ति दिलवाई, वे न केवल विदेशी शासन से, बल्कि हमारे समाज को लंबे समय से जकड़ कर रखने वाली सामाजिक बेड़ियों दोनों से, मुक्ति चाहते थे, उन्होंने हर भारतीय को खुद पर विश्वास करने की तथा बेहतर भविष्य के लिए उम्मीदों की राह दिखाई।
प्रणब मुखर्जी ने कहा कि हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने औपनिवेशिक दुनिया के मरुस्थल के बीच एक हरे-भरे उद्यान की रचना की थी, जो कि लोकतंत्र से पोषित है। लोकतंत्र, वास्तव में, केवल हर पांच साल में मत देने के अधिकार से कहीं बढ़कर है; इसका मूल है जनता की आकांक्षा; इसका जज्बा नेताओं के उत्तरदायित्व तथा नागरिकों के दायित्वों में हर समय दिखाई देना चाहिए। लोकतंत्र, एक जीवंत संसद, एक स्वतंत्र न्यायपालिका, एक जिम्मेदार मीडिया, जागरूक नागरिक समाज तथा सत्यनिष्ठा और कठोर परिश्रम के प्रति समर्पित नौकरशाही के माध्यम से ही सांस लेता है, इसका अस्तित्व जवाबदेही के माध्यम से ही बना रह सकता है न कि मनमानी से। इसके बावजूद, हम बेलगाम व्यक्तिगत संपन्नता, विषयासक्ति, असहिष्णुता, व्यवहार में उच्छृंखलता तथा प्राधिकारियों के प्रति असम्मान से अपनी कार्य संस्कृति को नष्ट होने दे रहे हैं।
राष्ट्रपति ने कहा कि हमारे समाज के नैतिक ताने-बाने के कमजोर होने का सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव युवाओं और निर्धनों की उम्मीदों पर तथा उनकी आकांक्षाओं पर पड़ता है। महात्मा गांधी ने हमें सलाह दी थी कि हमें सिद्धांत के बिना राजनीति, श्रम के बिना धन, विवेक के बिना सुख, चरित्र के बिना ज्ञान, नैतिकता के बिना व्यापार, मानवीयता के बिना विज्ञान तथा त्याग के बिना पूजा से बचना चाहिए। जैसे-जैसे हम आधुनिक लोकतंत्र का निर्माण करने की ओर अग्रसर हो रहे हैं, हमें उनकी सलाह पर ध्यान देना होगा, हमें देशभक्ति, दयालुता, सहिष्णुता, आत्म-संयम, ईमानदारी, अनुशासन तथा महिलाओं के प्रति सम्मान जैसे आदर्शों को एक जीती-जागती ताकत में बदलना होगा। उन्होंने कहा कि संस्थाएं राष्ट्रीय चरित्र का दर्पण होती हैं, आज हमें अपने देश में शासन व्यवस्था तथा संस्थाओं के कामकाज के प्रति, चारों ओर निराशा और मोहभंग का वातावरण दिखाई देता है।
प्रणब मुखर्जी ने कहा कि हमारी विधायिकाएं कानून बनाने वाले मंचों से ज्यादा लड़ाई का अखाड़ा दिखाई देती हैं, भ्रष्टाचार एक बड़ी चुनौती बन चुका है, अकर्मण्यता तथा उदासीनता के कारण देश के बेशकीमती संसाधन बर्बाद हो रहे हैं, इससे हमारे समाज की ऊर्जा का क्षय हो रहा है, हमें इस क्षय को रोकना होगा। राष्ट्रपति ने कहा कि हमारे संविधान में, राज्य की विभिन्न संस्थाओं के बीच शक्ति का एक नाजुक संतुलन रखा गया है, इस संतुलन को कायम रखना होगा, हमें ऐसी संसद चाहिए जिसमें वाद-विवाद हों, परिचर्चाएं हों और निर्णय लिए जाएं, हमें ऐसी न्यायपालिका चाहिए जो बिना विलंब किए न्याय दे, हमें ऐसा नेतृत्व चाहिए जो देश के प्रति तथा उन मूल्यों के प्रति समर्पित हो, जिन्होंने हमें एक महान सभ्यता बनाया है। हमें ऐसा राज्य चाहिए जो लोगों में यह विश्वास जगा सके कि वह हमारे सामने मौजूद चुनौतियों पर विजय पाने में सक्षम है, हमें ऐसे मीडिया तथा नागरिकों की जरूरत है जो अपने अधिकारों पर दावों की तरह ही अपने दायित्वों के प्रति भी समर्पित हों।
राष्ट्रपति ने कहा कि शिक्षा प्रणाली के माध्यम से समाज को फिर से नया स्वरूप दिया जा सकता है, विश्व स्तर का एक भी विश्वविद्यालय न होने के बावजूद हम विश्व शक्ति बनने की आकांक्षा नहीं पाल सकते। इतिहास गवाह है कि हम कभी पूरी दुनिया के मार्गदर्शक हुआ करते थे। तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, वल्लभी, सोमपुरा तथा ओदांतपुरी, इन सभी में वह प्राचीन विश्वविद्यालय प्रणाली प्रचलित थी, जिसने छठी सदी ईस्वी पूर्व से अठारह सौ वर्षों तक पूरी दुनिया पर अपना प्रभुत्व बनाए रखा। ये विश्वविद्यालय दुनिया भर के सबसे मेधावी व्यक्तियों तथा विद्वानों के लिए आकर्षण का केंद्र थे, हमें फिर से वह स्थान प्राप्त करने का प्रयास करना होगा। विश्वविद्यालय ऐसा वट-वृक्ष है, जिसकी जड़ें बुनियादी शिक्षा में और स्कूलों के एक बड़े संजाल में निहित होती हैं, जो हमारे समुदायों को बौद्धिक उपलब्धियों का मौका प्रदान करता है। हमें इस बोधि वृक्ष के बीज से लेकर जड़ों तक तथा शाखा से लेकर सबसे ऊंची पत्ती तक, हर हिस्से पर निवेश करना होगा।
प्रणब मुखर्जी ने कहा कि सफल लोकतंत्र तथा सफल अर्थव्यवस्था के बीच सीधा संबंध है, क्योंकि हम जनता के द्वारा संचालित राष्ट्र हैं, जनता अपने हितों का बेहतर ढंग से तभी ध्यान रख सकती है जब वह पंचायत तथा स्थानीय शासन के विभिन्न स्वरूपों में निर्णय लेने की प्रक्रिया में भागीदारी करती है, हमें स्थानीय निकायों के कामकाज में बेहतर परिणाम प्राप्त करने के लिए उनको कार्य, कर्मचारी तथा धन देकर तेजी से अधिकार संपन्न बनाना होगा, तीव्र विकास से हमें संसाधन तो मिले हैं, परंतु बढ़े हुए परिव्ययों के उतने बेहतर परिणाम नहीं मिल पाए हैं, समावेशी शासन के बिना हम, समावेशी विकास प्राप्त नहीं कर सकते। उन्होंने कहा कि 120 करोड़ से अधिक की आबादी वाले हमारे विकासशील देश के लिए, विकास और पुनर्वितरण के बीच बहस अत्यावश्यक है, जहां विकास से पुनर्वितरण के अवसर बढ़ते हैं, वहीं आगे चलकर पुनर्वितरण से विकास की गति बनी रहती है, दोनों ही बराबर महत्वपूर्ण हैं। दूसरे के हितों के विपरीत, इनमें से किसी भी एक पर जोर देने से देश को दुष्परिणामों का सामना करना पड़ सकता है। उन्होंने कहा कि प्रगति की अपनी दौड़ में, हमें यह ध्यान रखना होगा कि इंसान और प्रकृति के बीच का संतुलन बिगड़ने न पाए। इस तरह के असंतुलन के विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं।
उत्तराखंड में अपनी जान गंवाने वाले तथा कष्टों का सामना करने वाले असंख्य लोगों के प्रति, संवेदना व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि मै अपनी सुरक्षा तथा सशस्त्र सेनाओं के बहादुर जवानों, सरकार तथा गैर सरकारी संस्थाओं को नमन् करता हूं, जिन्होंने इस आपदा के कष्टों को कम करने के लिए भारी प्रयास किए। इस आपदा के लिए मानवीय लोलुपता तथा मां प्रकृति का कोप, दोनों ही जिम्मेदार हैं, यह प्रकृति की चेतावनी थी और अब समय आ गया है कि हम जाग जाएं। राष्ट्रपति ने कहा कि पिछले दिनों आंतरिक और बाह्य सुरक्षा के लिए गंभीर चुनौतियां हमारे सामने आई हैं, छत्तीसगढ़ में माओवादी हिंसा के बर्बर चेहरे ने बहुत से निर्दोष लोगों की जानें लीं, पड़ोसी देशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाने के भारत के निरंतर प्रयासों के बावजूद सीमा पर तनाव रहा है और नियंत्रण रेखा पर युद्ध विराम का बार-बार उल्लंघन हुआ है, जिससे जीवन की दुखद हानि हुई है, शांति के प्रति हमारी प्रतिबद्धता अविचल है परंतु हमारे धैर्य की भी एक सीमा है। आंतरिक सुरक्षा सुनिश्चित करने और राष्ट्र की क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा करने के लिए सभी आवश्यक कदम उठाए जाएंगे।
उन्होंने कहा कि मैं निरंतर चौकसी रखने वाले अपने सुरक्षा और सशस्त्र बलों के साहस और शौर्य की सराहना करता हूं और उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं, जिन्होंने मातृभूमि की सेवा में सबसे मूल्यवान उपहार, अपने जीवन का सर्वोच्च बलिदान दिया, अंत में मैं, महान ग्रंथ भगवद्गीता के एक उद्धरण से अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा, जहां उपदेशक अपने दृष्टिकोण का प्रतिपादन करते हुए कहता है-यथेच्छसि तथा कुरु...’ ‘‘आप जैसा चाहें, वैसा करें, मैं अपने दृष्टिकोण को आप पर थोपना नहीं चाहता, मैंने आपके समक्ष वह रखा है, जो मेरे विचार में उचित है, अब यह निर्णय आपके अंत:करण को, आपके विवेक को, आपके मन को लेना है कि उचित क्या है।’’ इसलिए आपके निर्णयों पर ही हमारे लोकतंत्र का भविष्य निर्भर है। जय हिंद!