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नई दिल्ली। राष्ट्रपति चुनाव 2012 में कुछ मतदाताओं के मस्तिष्क में ऐसे संदेह उठे हैं कि किसी राजनीतिक दल के फैसले का उल्लंघन करके मत देने वाले उस दल के किसी सदस्य को भारत के संविधान की 10वीं अनुसूची के अंतर्गत दल-बदल कानून के आधार पर अयोग्य करार दिया जा सकता है या किसी राजनीतिक दल को अपने सदस्यों को किसी खास स्वरूप में मत देने या मत नहीं देने के लिए निर्देश देने पर किसी प्रकार का दंड दिया जा सकता है। पहले भी राष्ट्रपति चुनाव के दौरान यही सवाल उठाए गए थे। निर्वाचन आयोग ने पहले भी स्पष्टीकरण जारी किया था। इस संबंध में जारी किये गये प्रेस नोट्स के तथ्यों को आम जानकारी के लिए फिर से प्रस्तुत किया गया है।
भारत निर्वाचन आयोग ने यह स्पष्ट किया है कि भारत के राष्ट्रपति पद के चुनाव में भी मतदान उसी प्रकार अनिवार्य नहीं है, जिस प्रकार लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए भी मत देना बाध्यकारी नहीं है। भारतीय दंड संहिता की धारा 171ए (बी) में एक मतदाता के मताधिकार को ‘किसी व्यक्ति के खड़े होने या न खड़े होने के अधिकार, उम्मीदवार बनने या वोट देने से इंकार करने के अधिकार या चुनाव में मतदान से दूर रहने के अधिकार’ के रूप में परिभाषित किया गया है। इस प्रकार राष्ट्रपति चुनाव में प्रत्येक मतदाता को किसी भी उम्मीदवार के लिए अपनी इच्छा से वोट देने या चुनाव में वोट न देने की आजादी है।
राजनीतिक दलों पर भी यह समान रूप से लागू होता है और वे किसी उम्मीदवार के लिए मतदाताओं का समर्थन प्राप्त करने का प्रयास करने या मतदान से दूर रहने के लिए उनसे अनुरोध करने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन राजनीतिक दल अपने सदस्यों के लिए कोई विकल्प नहीं छोड़ते हुए, किसी खास स्वरूप में मत देने या मत नहीं देने के लिए कोई निर्देश या व्हिप जारी नहीं कर सकते, क्योंकि यह भारतीय दंड संहिता की धारा 171-सी के प्रावधान के अंतर्गत अनुचित प्रभाव के दंड का भागी होगा।
निर्वाचन आयोग ने यह भी स्पष्ट किया है कि राष्ट्रपति पद के चुनाव में होने वाला मतदान, सदन में किसी सांसद या विधायक के मतदान से भिन्न होता है और जैसा कि उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि भारत के संविधान की 10वीं अनुसूची के प्रावधान राष्ट्रपति चुनाव में होने वाले मतदान में लागू नहीं किये जा सकते। कुलदीप नय्यर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (एआईआर 2006 एससी 3127) मामले में उच्चतम न्यायालय में यह सवाल खड़ा हुआ था, कि क्या संविधान की 10वीं अनुसूची के प्रावधान राज्यसभा के चुनाव के मामले में लागू हो सकते हैं, यदि राज्य विधानसभा का कोई सदस्य अपनी पार्टी के निर्देशों का उल्लंघन करके एक उम्मीदवार को वोट देता है, जहां अब खुली मतदान प्रणाली से वोट दिये जाते हैं। उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में कहा था कि राज्यसभा चुनाव में इस प्रकार वोट देने के लिए किसी मतदाता पर 10वीं अनुसूची के दंडात्मक प्रावधानों को लागू नहीं किया जा सकता। उस मामले में उच्चतम न्यायालय ने जो फैसला सुनाया था, उस पर ध्यान देने की आवश्यकता है-
‘(183) याचिकाकर्ताओं की यह मान्यता है कि राज्य की विधानसभा द्वारा राज्य परिषद में पदों को भरने के लिए होने वाले चुनाव के मतदान में 10वीं अनुसूची के सिद्धांत लागू होते हैं। उनका तर्क यह है कि 10वीं अनुसूची का प्रयोग स्वत: यह दर्शाता है कि खुली मतदान प्रणाली से संविधान और जन प्रतिनिधि अधिनियम के प्रावधानों के अलावा पूरी चुनाव प्रक्रिया और उसकी शुद्धता हतोत्साहित होती है। उनका मानना है कि खुली मतदान प्रणाली पर 10वीं अनुसूची के अंतर्गत अयोग्यता का खतरा मंडराता है, जिससे यह चुनाव एक राजनीतिक दल का होकर रह जाता है, जो एक व्हिप जारी करता है और उम्मीदवार शक्ति प्रदर्शन द्वारा जीत जाता है.......किहोटो हुल्लोहन बनाम ज़चिल्लहू (सुप्रा) मामले में बनाए गए कानून के मद्देनजर यह मान्यता सही नहीं है कि खुली मतदान प्रणाली से विधानसभा के सदस्यों पर 10वीं अनुसूची के अंतर्गत अयोग्यता का खतरा होता है, क्योंकि संविधान का वह हिस्सा अलग उद्देश्यों के लिए बनाया गया है।’
इससे पहले भी उच्चतम न्यायालय ने पशुपति नाथ शुक्ल बनाम नेम चंद्र जैन (एआईआर 1984 एससी 399) मामले में फैसला सुनाया था कि राज्य विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा राज्य सभा के चुनाव में मत देना एक गैर-विधायी गतिविधि है और यह राज्य विधानसभा के अंतर्गत चलने वाली कोई कार्यवाही नहीं है। राष्ट्रपति पद का चुनाव भी एक इलेक्टोरल कॉलेज द्वारा आयोजित किया जाता है, जिसमें संसद के दोनों सदनों के चयनित सदस्य और राज्य विधानसभाओं के चयनित सदस्य शामिल हैं (संविधान का अनुच्छेद 54)। इस इलेक्टोरल कॉलेज के मतदाता इस कथित इलेक्टोरल कॉलेज के सदस्यों के रूप में राष्ट्रपति चुनाव में मतदान करते हैं और यह मतदान सदन के बाहर होता है और यह सदन की कार्यवाही का कोई हिस्सा नहीं होता।
इसलिए कुलदीप नय्यर (सुप्रा) और पशुपति नाथ शुक्ल (सुप्रा) के मामले में उच्चतम न्यायालय के ये लिखित अवलोकन राष्ट्रपति चुनाव में भी समान शक्ति के साथ लागू होंगे। इसके अनुरूप, निर्वाचन आयोग के विचार में, राष्ट्रपति चुनाव में अपनी इच्छा के अनुरूप वोट देना या नहीं देना भारत के संविधान की 10वीं अनुसूची के अंतर्गत अयोग्यता के दायरे में नहीं आएगा और राष्ट्रपति चुनाव में मतदाता अपनी स्वतंत्र इच्छा और पसंद के आधार पर राष्ट्रपति चुनाव में मत देने या नहीं देने के लिए स्वतंत्र हैं।