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ऋग्वेद (10.72.6) में इन्हीं परमाणुओं को कहा है ‘देव’

हृदयनारायण दीक्षित

हृदयनारायण दीक्षित

पंडित-pandit

नास्तिकों के लिए यह बुरी ख़बर है। वैज्ञानिकों ने गाड पार्टीकल यानि ईश्वरीय अणु खोजने का दावा किया है। जाहिर है कि ईश्वरीय कण होगा तो देर सवेर ईश्वर का पता भी चलेगा। ईश्वर आस्था वाले प्रसन्न हैं। विज्ञान उनके पक्ष में आगे बढ़ा है। ईश्वर अब वैज्ञानिक शोध का विषय बन गया है। दावा है कि ‘गाड पार्टीकल’ लगभग देख लिया गया है, लेकिन कथित गाड पार्टीकल वास्तविक नाम नहीं है। शोधककर्ता अंग्रेज़ वैज्ञानिक हिग्स व भारतीय वैज्ञानिक सत्येंद्र नाथ बोस के नाम पर परीक्षण में देखे गए कण का नाम ‘हिग्स बोसान’ रखा गया है।
वैज्ञानिक सृष्टि संरचना का मूल इतिहास जानने की कोशिश में हैं। वे मानते आए हैं कि सृष्टि भार वाले भौतिक परमाणुओं से बनी है। प्रश्न था कि भारयुक्त परमाणुओं को जोड़ने का काम करने वाला भी कोई परमाणु या बल भी होना चाहिए? ईश आस्था वाले लोग इसका श्रेय ईश्वर को देते हैं। शायद भारतीय आस्था का ईश्वर, ब्रह्म या विश्वकर्मा जैसा कोई बल, अणु, परमाणु वैज्ञानिकों की भी जिज्ञासा है। भाररहित परमाणुओं को भार देने वाले कणों का अपना भार नहीं होता। बिना भार वाले परमाणुओं से ब्रह्मांड नहीं बनता। भार शून्यता के चलते सभी पदार्थो के परमाणु गतिशील तो होंगे, लेकिन जुड़ नहीं सकते। हिंग्स बोसोन सिद्धांत के अनुसार यहां खाली जगह में परमाणु को भार देने वाले कण मौजूद हैं। इनका कोई भार या द्रव्यमान नहीं होता। वैज्ञानिकों ने ऐसे कण देखने का दावा किया है। वे इसी को हिंग्स बोसोन या गाड पार्टीकल बता रहे हैं।
दरअसल ऊर्जा का कोई भार नहीं होता। भाररहित सृष्टि होती नहीं। भार के कारण ही सृष्टि बनी। तब प्रश्न है कि भार कहां से आया? वैज्ञानिकों ने अब कुछेक ‘भारविहीन’-ऊर्जा कण भी देखे हैं। समझने के लिए कह सकते हैं कि कुछेक कणों में चेतना ऊर्जा तो है, लेकिन उनका शरीर नहीं। जैसे सभी प्राणियों में चेतना है, लेकिन अदृश्य है। शरीर दृश्य भाग है। ‘द्रव्यविहीन चेतना’ भारतीय वैदिक साहित्य की प्राचीन अनुभूति है। इसे किसी देवदूत या पैगंबर की घोषणा के अनुसार नहीं माना गया। यहां ऋग्वेद से लेकर उपनिषद्, ब्राह्मण, आरण्यक, पुराण और रामायण महाभारत अतिरिक्त जिज्ञासा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और असीम अनंत के प्रति अतिरिक्त प्रश्नाकुलता है। सत्य खोजी वैज्ञानिक दृष्टि है। ऋग्वेद में विश्वकर्मा की स्तुति है, लेकिन जिज्ञासा है कि सृष्टि सृजन के पूर्व वे सृष्टि सृजन की सामग्री लाए कहां से? इसी तरह विश्वप्रतिष्ठ नासदीय सूक्त (ऋ0 10.129) में असत् और सत् के भी पूर्वकाल की जिज्ञासा है। अणु जैसे सूक्ष्म घटक की जानकारी उपनिषद् काल में भी थी। कठोपनिषद् में कहते हैं ‘वह अणु से भी छोटा है और विराट से भी बड़ा है, वह शरीर में है लेकिन अशरीरी है।’ अर्थात भार रहित है।
वैज्ञानिक सृष्टि संरचना के रहस्य जानने के लिए श्रमरत हैं। वैज्ञानिक प्रयोग से प्राप्त निष्कर्षों के अनुसार भार रहित उपपरमाणुओं व भार सहित परमाणुओं की टकराहट से पृथ्वी, चंद्र, तारा मंडल आदि ग्रहों का निर्माण हुआ होगा। हालांकि यह निष्कर्ष अंतिम नहीं है, लेकिन भार रहित परमाणुओं की चर्चा ध्यान देने योग्य है। बेशक भौतिकी के लिए यह एक नया पड़ाव है, प्रशंसनीय भी है, पर भारतीय अनुभूति में यहां कोई नई बात नहीं है। ऋग्वेद (10.72.6) में इन्हीं परमाणुओं को देव कहा गया है-‘हे देवो आपके नृत्य से उत्पन्न धूलि से पृथ्वी बनी।’ देवनृत्य से पैदा धूलि का प्रतीक बड़ा प्यारा है। कह सकते हैं कि देव यही भारहीन दिव्य कण हैं। इन्हीं की टक्कर से भार सहित परमाणुओं में जुड़ने की शक्ति आई। ऋग्वेद में इस मंत्र के पहले (10.72.2) कहते हैं ‘परमसत्ता ने अव्यक्त को लोहार की धौंकनी की तरह पकाया।’ इस पर आचार्य श्रीराम शर्मा की टिप्पणी है ‘इसे वर्तमान विज्ञान विंगवैंग कहते हैं।’ ऋग्वेद में विंगवैंग जैसे संकेत भी हैं। फिर बताते हैं कि ‘असत् से सत् आया।’ (वही 3) असत् भारहीन अदृश्य स्थिति है और सत् दृश्यमान अस्तित्व। मासलेस-भार रहित कण का प्रतीक भारतीय वैदिक चिंतन में छाया हुआ है।
आधुनिक वैज्ञानिक भार रहित देखे गए कण को हिग्स बोसोन कहते हैं। वैदिक ऋषि उसे संपूर्णता में ब्रह्म या ईश्वर कहते हैं। मुण्डकोपनिषद् (2.9) में कहते हैं ‘वह परम आकाश में सब जगह उपस्थित है, कलाओं से रहित है, अवयव शून्य और निर्मल है।’ यहां कला रहित, अवयव शून्य होना भार हीनता है। श्वेताश्वतर उपनिषद् (6.19) उसे ‘निष्कलं (कला रहित) शान्तं, निरवद्यं, निरंजनम्’ कहती है। मासलेस-भाररहित के लिए वैदिक ऋषियों के शब्द प्रयोग बड़े प्रीतिकर है। परमसत्ता की अनुभूति इसी शरीर में होती है, लेकिन उसे अशरीरी बताया गया है। ईशावास्योपनिषद् के आठवें मंत्र में उसे अकायं-काया रहित, अस्नविरम्-स्नायु रहित, शुद्ध बताते हैं। लेकिन मूलभूत प्रश्न यह है कि ‘हिंग्स बोसोन’ ही गाड पार्टीकल क्यों है। हिंग्स बोसोन सिद्धांत भी मानता है कि इन कणों के अभाव में सृष्टि सृजन असंभव था। सृष्टि के हरेक पदार्थ के सृजन में इन्हीं कणों की भूमिका है। ईशावास्योपनिषद् के ऋषि ने सरस्वती सूखने के बहुत पहले ही घोषणा की थी ‘ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किचं जगत्यां जगत-इस सर्वस्व जगत् में ईश्वर की ही उपस्थिति है। सब तरफ ईशावास्य ही है। ईशावास्योपनिषद् का ईश्वर भार रहित होकर भी अनंत को आच्छादित करता है, इसलिए हिग्स बोसोन कणों को ही गाड पार्टीकल कहना उचित नहीं है। इस जगत् का हरेक अणु परमाणु गाड पार्टीकल-ब्रह्म कण ही है। उस भार रहित (मास लेस) निर्मल, प्रशांत, निष्कल, निरंजन का ही दृश्यमान चेहरा है, यह जगत।
विज्ञान की सीमा है। लेकिन परमसत्ता-ईश्वर अनंत और असीम है। ईशावास्योपनिषद् (मंत्र 5) में कहते हैं ‘तद् दूरे, तद्वन्तिके, तदन्तस्य सर्वस्य तदु सर्वस्याय वाह्यतः-वह अति दूर होता है लेकिन समीप होता है। वह हमारे भीतर है और सबको बाहर से भी घेरता है।’ ‘गाड का पार्टीकल’-ईश्वर का कण खोजने की जिज्ञासा प्रशंसनीय है, लेकिन सच बात दूसरी है। ईश्वर पदार्थ नहीं है। वह सत् और असत् दोनो ही हैं, इसलिए उसका कण कैसे होगा? हरेक कण, अणु, परमाणु और छंद वाणी स्पंदन, स्थिरता और गतिशीलता में उसी की सर्वशक्तिमान समुपस्थिति है। विज्ञान पदार्थ, गति और ऊर्जा के रिश्ते खोजता है। वह अज्ञात को ज्ञात की परिधि में लाता है, लेकिन सृष्टि में ही अंतर्भूत सृष्टा का रहस्य अज्ञात की परिधि में नहीं, अज्ञेय के विस्तार में होता है। विश्वविख्यात चीनी दार्शनिक लाउत्सु ने ‘ताओ तेह चिंग’ लिखी थी। बताया है ‘अंधकार से प्रकाश आया। अरूप से रूप व्यवस्था आई।’ यहां ऋग्वेद के असत् से सत् आने का दोहराव है। लाओत्सु ब्रह्म या ईश्वर की जगह ताओ का प्रयोग करता है। लिखा है कि ‘ज्ञान या तर्क से उसका बोध नहीं होता। उसमें चाहे जितना जोड़ो, घटाओ, फर्क नहीं पड़ता।’
वृहदारण्यक उपनिषद् में हजारों बरस पहले कहा गया था ‘वह पूर्ण है, यह पूर्ण है। पूर्ण में पूर्ण घटाओ तो पूर्ण ही बचता है।’ मुण्डकोपनिषद (2.2.10) में कहते हैं ‘वहां न सूर्य हैं न चांद, न तारे, न अग्नि, न विद्युत। केवल उसकी आभा से ही यह सब प्रकाशमान है।’ सारे प्रकाश उसी की दीप्ति हैं। वृहदारण्यक (1.5.2) में कहते है ‘संचरन च, असंचरन च-वह गतिशील है, स्थिर भी है।’ तैत्तिरीय उपनिषद (2.6) में कहते हैं, ‘वह निरूक्त है, अनिरूक्त है, निलयन है, अनिलयन है, विज्ञान है, अविज्ञान है।’ गीता का आत्मतत्व भी भारहीन कण जैसा है ‘उसे शस्त्र नहीं मार सकते। आग नहीं जला सकती, पानी सुखा नहीं सकता।’ केनोपनिषद का ऋषि इसीलिए एक उदात्त घोषणा करता है, ‘नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च-मैं यह नहीं मानता कि मैं उसे ठीक से जानता हूं, न यह जानता हूं कि मैं उसे नहीं जानता।’ वैज्ञानिकों की यात्रा का स्वागत है। उनके निष्कर्ष भारतीय प्राचीन ज्ञान को सही ठहरा रहे हैं। लेकिन परम तत्व की प्राप्ति आसान नहीं। वह वैज्ञानिक शोध से नहीं अनुभूतिपरक आत्मबोध में ही पाया गया, गाया गया है। वैज्ञानिकों के खोजे गए गाड पार्टीकल यानि ब्रह्म कण को नमस्कार है।

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