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राष्ट्रपति चुनाव के गंभीर राजनीतिक संकेत

अवधेश कुमार

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी-president pranab mukherjee

नई दिल्ली में रायसीना पहाड़ी पर भव्य और विशाल भवन में प्रणब मुखर्जी के अधिकृत तौर पर प्रवेश को लेकर किसी को संदेह नहीं रहा होगा। पीए संगाम को भी नहीं। हालांकि संगमा ने चमत्कारपूर्ण परिणाम की बात कहकर मुकाबले को जरूर रोचक बनाने की कोशिश की, पर वर्तमान राजनीतिक समीकरण में निर्वाचक मंडल का अंकगणित देखते हुए उनके कथन को गंभीरता से लेना कठिन था। आखिर राजग के दो प्रमुख घटकों का जिसे समर्थन मिला हो, आरंभिक दोलन के बाद संप्रग जिसके समर्थन में एकजुट हो गया हो तथा समर्थक दलों का भी मत मिला हो, उसकी विजय तो सुनिश्चित ही थी। सात लाख तेरह हजार मत असाधारण हैं। संगमा को करीब तीन लाख सोलह मत अपेक्षा से कम हैं।

बहरहाल, पिछले करीब दो महीनों से राष्ट्रपति चुनाव की राजनीतिक गहमागहमी और चुनावी प्रक्रिया का अंत हो गया, किंतु अगर घोषणानुसार संगमा प्रणब दा की उम्मीदवारी के विरुद्ध न्यायालय जाते हैं, तो यह मानना चाहिए कि इस लड़ाई को कानूनी तौर पर जारी रखने की कोशिशों का अंत नहीं हुआ है। यह इसका ऐसा पहलू है, जिसने राष्ट्रपति चुनाव की तस्वीर को कालिमामय बना दिया था। यह अलग बात है कि इससे प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति के रुप में भूमिका निभाने में कोई बाधा नहीं आ सकती।
वस्तुतः तीन पहलुओं को आधार बनाकर इस चुनाव का मूल्यांकन किया जा सकता है। इनमें सबसे पहला है-चुनाव के संदर्भ में हुई राजनीति एवं परिणाम के अंकगणित का राजनीतिक अर्थ। दूसरा है-वर्तमान परिस्थितियों में राष्ट्रपति की भूमिका एवं प्रणब से उम्मीद तथा तीसरा है-कानूनी लड़ाई का पहलू। प्रणब मुखर्जी की उम्मीदवारी की घोषणा के पूर्व एवं बाद हुई राजनीति से यह साफ हो गया कि कांग्रेस नेतृत्व वाली संप्रग सरकार को लोकसभा में बहुमत का संकट निकट भविष्य में नहीं आने वाला। राजनीतिक पार्टियां किसी सिद्धांत पर समर्थन की बजाय अपनी राजनीतिक आवश्यकता के हिसाब से नीतियां तय करेंगी और इसमें कांग्रेस और संप्रग का पलड़ा भारी है।

मुलायम सिंह यादव ने आरंभ में ममता बनर्जी के साथ संयुक्त घोषणा की, पर प्रणब का नाम आते ही उनकी पलटी उत्तर प्रदेश सरकार को केंद्र सरकार की आवश्यकता तथा सपा की तात्कालिक राजनीति की दृष्टि से ही थी। इसका परिणाम आया और उत्तर प्रदेश को योजना में भारी राशि वृद्धि का तोहफा मिला। दूसरी ओर ममता बनर्जी ने भी अंततः साफ कर दिया कि वे केंद्र में अभी संप्रग के साथ रहेंगी और प्रदेश में अलग। इसी तरह मायावती का समर्थन भी उनकी स्वयं की मजबूरियां एवं बसपा के मद्दे नजर ही था। मतदान का चरण पूरा होते-होते राहुल गांधी की बड़ी भूमिका में आने की घोषणा के साथ कांग्रेस एवं संप्रग के अंदर नेतृत्व परिवर्तन का आधार तैयार हो जाने को भी इससे जोड़कर देखा जाना चाहिए।
दूसरी ओर ऐसा लग रहा था कि उप राष्ट्रपति चुनाव के मामले में राजग में बिखराव समाप्त हो गया है, किंतु ऐसा हुआ नहीं। वैसे राजग में बिखराव का भी कोई राजनीतिक अर्थ नहीं है, ऐसा कहना गलत होगा। बिहार में नितीश कुमार ने चुनाव प्रक्रिया के बीच नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी का विरोध एवं प्रणब मुखर्जी का समर्थन कर एक ओर यदि दो केंद्रीय विश्वविद्यालय एवं योजना राशि में वृद्धि का तोहफा प्राप्त कर लिया तो दूसरी ओर दोनों राजनीतिक समूहों एवं संभावित तीसरे घटकों में अपनी स्वीकृति का आधार भी तैयार किया। हां, शिवेसना के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता, पर राजग के अंदर पहले की तरह आपसी विश्वसनीयता व एकजुटता का मनोविज्ञान नहीं है एवं नीतिगत मामले पर बिखराव आगे भी हो सकता है। इसका महत्व यहीं तक सीमित नहीं है। गठबंधनों एवं पार्टियों दोनों का भयानक अवमूल्यन राष्ट्रपति चुनाव में भयावह रुप से सामने आया है।
मुलायम सिंह यादव के पास जिस तरह पलटी मारने का नैतिक और मान्य तर्क नहीं हो सकता, उसी तरह जनता दल यू एवं शिवेसना के पास भी नहीं है, किंतु भाजपा की केवल राजग नेता के तौर पर ही नहीं, पार्टी के रूप में भी महिमालुंठित हो गई। भविष्य में नेतृत्व की दावेदारी करने वाले नरेंद्र मोदी के गुजरात में ही भाजपा विधायक ने प्रणब को मत दिया और इसका ऐलान भी कर दिया। यह साधारण घटना नहीं है। कर्नाटक में उसके करीब डेढ़ दर्जन विधायकों ने पार्टी रुख के विपरीत प्रणब के पक्ष में मतदान किया। साफ है कि संगमा संप्रग में सेंध नहीं मार सके, लेकिन राजग की दीवारों में जरूर छेद हो गया। इसका निस्संदेह राजनीतिक निहितार्थ है।

वास्तव में 2014, आम चुनाव की दृष्टि से भाजपा के लिए चिंताजनक है। उसे केवल राजग नहीं अपना घर संभालने की पहली आवश्यकता है, क्योंकि घर में ही छेद होगा, तो वह राजग को एकजुट करने और अन्य दलों को उसकी परिधि में लाने में सफल नहीं होगी। इसे प्रणब का प्रभाव, संप्रग के प्रति नेताओं और दलों की सहानुभूति या कांग्रेस के प्रबंधन कौशल की विजय नहीं कहा जा सकता। यह समय के चक्र का प्रभाव है, जिसने राजनीतिक दलों व नेताओं के क्षरण को ज्यादा तीव्र किया है।
अब आएं दूसरे पहलू पर। इस समय ऐसी कोई राजनीतिक स्थिति आसन्न नहीं है, जिसमें राष्ट्रपति की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण हो। प्रणब ने स्पष्ट किया है कि राष्ट्रपति की सामान्य राजनीतिक सक्रियता की तरह भूमिका नहीं हो सकती, संविधान ने जो भूमिका दी है, उसी का निर्वहन किया जा सकता है। यह एक परिपक्व नेता का बयान है, जिसका सामान्य अर्थ यथास्थितिवाद ही है। वे कोई परिवर्तनकारी विचारों वाले नेता हैं भी नहीं। प्रणब दा 1986-87 के जैल सिंह की तरह या 1999 के डॉ केआर नारायणन की तरह की भूमिका से बचेंगे, किंतु वे एकदम प्रतिभा देवी सिंह पाटिल की तरह शतप्रतिशत मुहर की भूमिका निभाएंगे, ऐसा नहीं मानना चाहिए।

राष्ट्रपति की भूमिका किसी दल या गठजोड़ को बहुमत न मिलने या किसी प्रदेश में ऐसा होने से उत्पन्न स्थितियों में निर्णायक हो जाती है। डॉ शंकर दयाल शर्मा के बाद प्रणब के रुप में पहली बार शीर्ष राजनीति की मुख्यधारा का कोई व्यक्ति राष्ट्रपति बना है। प्रणब ने 1989 से आरंभ गठबंधन की राजनीति को प्रत्यक्ष देखा है। संप्रग संचालन का उनका सीधा अनुभव है तथा सभी दलों के प्रमुख नेताओं से उनके व्यक्तिगत संबंध भी हैं। उन्होंने चुनाव में किसी दल को बहुमत न मिलने या लोकसभा में सहयोगी दलों के समर्थन वापसी की स्थिति में राष्ट्रपतियों की भूमिकाओं का अवलोकन किया है, इसलिए यह मानना चाहिए कि उन्हें फैसला लेने में कठिनाई नहीं होगी और वे विवादास्पद भी नहीं होंगे।
तीसरा पहलू दुर्भाग्यपूर्ण है। प्रणब पर भारतीय सांख्यिकी संस्थान या आईएसआई के अध्यक्ष पद से इस्तीफा नहीं दिए जाने की शिकायत पहले चुनाव अधिकारी और चुनाव आयोग के यहां खारिज हो गइ है। इसके साथ वीरभूम इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलोजी इंस्टीच्यूट के उपाध्यक्ष तथा रवीन्द्र भारतीय सोसायटी के अध्यक्ष पद पर कायम रहने की शिकायत को भी चुनाव आयोग ने खारिज कर दिया, लेकिन संगमा को सहयोग करने वाली भाजपा के नेताओं तथा अपनी पार्टी, जनता पार्टी के एकमात्र नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी ने प्रणब के हस्ताक्षर को जाली बताकर दोबारा चुनाव आयोग के यहां शिकायत की। आयोग ने इसे भी खारिज कर दिया। हालांकि आयोग ने कहा कि उसने शिकायतों के गुण-दोष का परीक्षण नहीं किया है। उसी समय सुब्रह्मण्यम स्वामी एवं राम जेठमलानी ने घोषणा कर दी थी, कि वे इसे उच्चतम न्यायालय में ले जाएंगे। ऐसा हुआ तो राष्ट्रपति चुनाव के इतिहास में पहली बार होगा।

भाजपा जैसा मुख्य विपक्ष यदि इसे नहीं रोक पाया तो यह उसकी छवि पर बड़े कलंक के रुप में स्थापित होगा। हालांकि उच्चतम न्यायालय इसे स्वीकार करेगा या नहीं यही स्पष्ट नहीं है। आखिर राष्ट्रपति को संविधान में पद पर रहते मुकदमों से प्रतिरक्षा प्राप्त है, किंतु पूरी चुनाव प्रक्रिया में संगमा की ओर से जिस तरह के आरोप लगाए गए, उससे चुनाव प्रक्रिया बदरंग हुई और उनको चुनाव में कोई लाभ भी नहीं मिला। कहीं ऐसा तो नहीं कि उनकी इस भूमिका के विरोध में उनको मिलने वाले कुछ मत प्रणब के खाते में चले गए। वैसे प्रणब जैसे अनुभवी नेता ऐसी भूल करेंगे इस पर सहसा विश्वास करना कठिन है।
इसे भी हमें वर्तमान शीर्ष राजनीति के क्षरण की परिणति के रुप में देखना होगा। देश के प्रथम नागरिक के चुनाव में, जहां केवल हमारे निर्वाचित सांसद एवं विधायक ही मतदाता हैं, अगर इस प्रकार के आरोप लगते हैं, औपचारिक शिकायतों से चुनाव की प्रकिया रोकने की कोशिश होती है, तो फिर आम चुनाव का परिदृश्य कितना विकृत हो सकता है। उम्मीद है कि राष्ट्रपति बनने के बाद प्रणब मुखर्जी इस कटु अनुभव को अपनी स्मृति में नहीं रखेंगे। संगमा की, विजय की बधाई का उत्तर उन्होंने जिस तरीके से दिया, उससे तो ऐसा ही संकेत मिलता है, किंतु राजनीति के क्षरण की प्रवृत्ति का अंत इससे नहीं हो सकता और राष्ट्रपति चुनाव इस दृष्टि से हमारे सामने संसदीय लोकतंत्र के भविष्य के संदर्भ में अनेक प्रकार की चिंता छोड़ गया है।

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