Saturday 2 November 2013 09:22:01 AM
हृदयनारायण दीक्षित
प्रकृति में अनेक रूप, रंग, रस और नाद हैं। प्रकृति सदा से है। यह अनेक आयामों में प्रकट होती है। जान पड़ता है कि बारंबार प्रकट होने के बावजूद इसका मन नहीं भरा। अरबों-खरबों मनुष्य आए, गए, लेकिन नवजात शिशुओं का शुभागमन जारी है। कीट, पतिंग, वनस्पति का भी आवागमन ऐसा ही है। नक्षत्र उगते हैं, नष्ट होते हैं, फिर-फिर उगते हैं। प्रकृति स्वयं को प्रकट करती है बारंबार। जिज्ञासु मन की उलझनें मजेदार होती हैं। प्रश्न उठता है कि प्रकृति का सर्वोत्तम प्रकट रूप क्या हो सकता है? आखिरकार कोई रूप, रस, या नाद तो होगा ही जब प्रकृति की समस्त प्राणधारा अपना अंतस् परिपूर्णता में प्रकट करती होगी। छान्दोग्य उपनिषद् के ऋषि ने बताया है कि प्रकृति समस्त सर्वोत्तम और पुरूषोत्तम प्रकाश रूपा है। अंधकार हमारा मूल है। हम मां के गर्भ में थे, अंधकार था। हमारा प्राथमिक विकास गहन तमस् में हुआ। बीज भी धरती के गर्भ में पड़ता है, अंधकार से उगता है। इस बीज के भीतर भी एक गर्भ होता है, वही धरती का संसर्ग पाकर फूटता है, लेकिन बीज का गर्भ भी अंधकार में ही पकता है। हम अंधकार से उगते हैं, व्यक्त जगत् में आते हैं। आखों को प्रकाश देखने का अनुभव नहीं होता। तमस् से रजस् में आते हैं, रजस की सक्रियता सत् में लाती है। तमस् हमारी यथास्थिति है और प्रकाश हमारी नियति। सो ज्योतिर्मयता हमारी चिरंतन प्यास है।
जहां-जहां खिलता है प्रकृति का सर्वोत्तम, वहां-वहां प्रकाश। हम धन्य हो जाते हैं प्रकाश देखकर। हमारे भीतर अंतर्जगत में यही प्रकाश दीप्ति एक विशेष अनुभूति देती है। पूर्वजों ने प्रकाश दीप्ति अनुभूति को दिव्यता कहा। अंग्रेजी का डिवाइन डिव से बना है, जो भारत में दिव्य है, अंग्रेजी में डिव। सूर्य प्रकाश में वहीं दिवस है। इसी की अंतः अनुभूति दिव्यता या डिवाइनटी है, इसलिए जहां-जहां दिव्यता वहां-वहां देवता। हम भारतीय सनातन काल से बहुदेववादी हैं। क्यों न हों? हमने जहां-जहां प्रकाश पाया, वहां-वहां देव पाया, वहां-वहां देव जाने और माथा टेका। सूर्य प्रत्यक्ष देवता हैं। ऋग्वैदिक पूर्वजों ने उन्हें स्थावर जंगम की आत्मा गाया, इसलिए कि वे सविता देव सहस्त्र आयामी प्रकाश रूपा हैं। चंद्र किरणें मोहित करती हैं। उनकी प्रभा दिव्य है। चंद्र प्रकाश सूर्य प्रकाश का अनुषंगी है, लेकिन सूर्य का प्रकाश भी संभवत: किसी अन्य विराट प्रकाश के स्रोत से आता है। कठोपनिषद्, मुंडकोपनिषद् व श्वेताश्वतर उपनिषद् में एक साथ एक-एक रम्य मंत्र उसी विराट प्रकाश पुंज की ओर संकेत करता है न तत्र सूर्यो भाति, न चंद्रतारकम्। नेमा विद्युत भांति कुतोऽयमग्नि-उस विराट प्रकाश केंद्र पर सूर्य नहीं चमकता और न ही चंद्र तारागण। वहां विद्युत और अग्नि की दीप्ति भी नहीं है। आगे बताते हैं-तमे भांतमनुभाति सर्वं, तस्य भासा सर्व इदं विभाति-उसी एक प्रकाश से ये सब प्रकाशित होते हैं। अष्टावक्र ने जनक की सभा में उसे 'ज्योतिएर्कं'-एक ज्योति कहा था।
तमस् गहरा है। अंधकार प्रकाश का अभाव ही नहीं है। तमस् का भी अपना अस्तित्व है। ऋग्वेद के ऋषियों ने रात्रि-अंधकार को अनुभव किया था। बताते हैं कि रात्रि ने गांव वन, उपवन और धरती को अंधकार से भर दिया है। तमस् हमारे जीवन का भाग है। कोई विकार या विकृति नहीं, इसीलिए हर माह एक रात गहन तमस के हिस्से। अमावस्या हर माह आती है। यही बताने कि तमस् भी संसार सत्य का अंग है। अमावस्या न आती हर माह तो जीवन तमस् से हमारा सीधा साक्षात्कार न होता। इसके हरेक 15 दिन बाद पूर्णिमा भी आती है। अपनी थाली में प्रकाश पुंज सजाकर। जैसे अमावस अपने तमस् से भर देती है जीवन को वैसे ही पूर्णिमा भी, लेकिन तमस् और प्रकाश की यह अनुभूति प्रतिदिन भी उपस्थित होती है। सूर्योदय से सूर्यास्त तक का काल प्रकाशपूर्ण रहता है और सूर्यास्त से सूर्योदय ऊषाकाल तक तमस् प्रभाव। तमस् और दिवस प्रतिपल भी घटते हैं जीवन में। आलस्य, प्रमाद, निष्क्रियता, निराशा और हताशा के क्षण तमस् काल हैं। सक्रियता, उत्साह और उल्लास के क्षण प्रकाश प्रेरणा हैं। बड़ा दिलचस्प है गुणों का यह खेल। कपिल ने ठीक बताया था कि गुण ही गुणों के साथ खेल करते हैं। प्रकृति का कार्यव्यापार चला करता है। कृष्ण ने इसमें जोड़ा कि जो गुणों का यह खेल देखते हुए अनासक्त हो जाता है। हे अर्जुन वही सच्चा योगी है।
तमस् और प्रकाश साथ-साथ नहीं रहते। एक आता है, दूसरा विदा हो जाता है। प्रकाश ज्ञानवाचक है और तमस् अज्ञान का। प्रकाश हमारी सनातन आकांक्षा है। तमसो मां ज्योतिर्गमय की अभीप्सा में तमस् हमारी यथास्थिति है और ज्योति हमारी आकांक्षा। सूर्य दीप्ति में तमस् नहीं होता, लेकिन तमस् अंधकार में चंद्र उगता है। पूर्णिमा परिपूर्ण चंद्र आभा है, रात्रि तमस् के बावजूद। शरद् पूर्णिमा का कहना ही क्या? इस रात चंद्र किरणें धरती तक उतरती हैं अपनी संपूर्ण कलाओं के साथ। वैदिक ऋषि इसी तरह की सौ पूर्णिमा देखना चाहते थे। 'जीवेम शरदं शतम्' में 100 शरद चंद्र देखने की प्यास है। जैसे शरद चंद्र अपनी पूरी आभा और प्रभा में खिलता है, स्थावर जंगम पर अमृत रस बरसाता है, वैसे ही शरद पूनो के ठीक 15 दिन बाद की अमावस्या अपने समूचे सघन तमस् के साथ गहन अंधकार लाती है। पूर्वजों ने बहुत सोच समझकर इसी अमावस्या को दीपोत्सव बनाया।
शरद् पूर्णिमा की रात रस, गंध, दीप्ति, प्रीति, मधु, ऋत और मधुआनंद तो 15 दिन बाद झमाझम दीपमालिका। भारत ने इसी तमस् रात्रि को प्रकाश पर्व बनाया। जहां-जहां तमस् वहां वहां प्रकाश-दीप। सूर्य और शरद चंद्र का प्रकाश प्रकृति की अनुकंपा है, तो दीपोत्सव मनुष्य की कर्मशक्ति का रचा गढ़ा तेजोमय प्रकाश है। प्रकाश ज्ञानदायी और समृद्धिदायी भी है। कार्तिकी अमावस का अंधकार प्रकाश की अनुपस्थिति ही नहीं होता। यह अस्तित्वगत होता है, अनुभूति प्रगाढ़ हो तो पकड़ में आता है। गजब के द्रष्टा थे हमारे पूर्वज। उन्होंने इसी रात्रि को अवनि अंबर दीपोत्सव सजाए। भारत इस रात केवल भूगोल नहीं होता, हिंदू-मुसलमान का संधि विच्छेद नहीं होता। यह राज्यों का संघ नहीं होता, इस या उस राजनैतिक दल से शासित भूखंड नहीं होता। भारत इस रात 'दिव्य दीपशिखा' हो जाता है। भारत का मन पुलक में होता है, आमोद प्रमोद और परिपूर्ण उत्सवधर्मा होता है। वातायन मधुमय होता है। वातायन में शीत और ताप का प्रेम प्रसंग चलता है। घर, आंगन, तुलसी के चौबारे, गरीब किसान के दुवारे, खेत खलिहान, नगर, गांव, मकान, दुकान, ऊपर नीचे सब तरफ दीप शिखा।
दीपपर्व लक्ष्मी आराधना की मुहूर्त है। लक्ष्मी धन की देवी हैं। वे धन देती हैं, समृद्धि देती हैं, 'शुभ लाभ' देती हैं। पश्चिमी अर्थशास्त्र में उद्यमी को साहसी बताया गया है। वह साहस करता है, कारखाना वगैरह लगाता है। लाभ उद्यमी के साहस का प्रतिफल है। 'शुभ लाभ' भारतीय चिंतन का विकास है। हरेक घर में प्रकाश की किरण पहुंचाना ही शुभत्व है। पश्चिमी अर्थशास्त्र के लाभ में श्रमिक का शोषण, टैक्सचोरी और भ्रष्टाचार भी शामिल है। 'शुभ लाभ' ईमानदार उद्यमी का हिस्सा है, लेकिन आधुनिक बाजारवाद में भ्रष्टाचार और मुनाफा ही ब्रह्म है, यही लक्ष्मी उपासना है। यहां बहुराष्ट्रीय कंपनियां ही श्री लक्ष्मी, सरस्वती आदि देवियां हैं। विश्व व्यापार संगठन ही कुबेर है। पुराणों वाले कुबेर धनदाता है और बहुरूपिया हैं। भारत की मुद्रा का नाम भी रूपया है। रूपया वैसे भी बड़ा प्यारा है, लेकिन इसका अर्थ और भी प्यारा। रूपया बना है-रूप या से। इसका अर्थ है-जो रूपवान है, वह रूपया। रूप सिक्के का, कागज का, लेकिन इसकी शक्ति बड़ी है। रूप के पीछे छुप अरूप की शक्ति आक्रामक है। सूर्य को दीपक दिखाना उचित नहीं होता, लेकिन दीप भारत के मन प्राण में रचा बसा प्रकाश पुंज है, सो हरेक मंगल मुहूर्त में सूर्य प्रकाश के बावजूद दीप प्रज्जवलन, नीराजन और अर्चन की परंपरा है। प्रकाश निस्संदेह ज्ञान का प्रतीक है। आंखों देखी को प्रत्यक्ष कहा जाता है। प्रत्यक्ष का अर्थ ही है-आंख के सामने, लेकिन तमस् हो तो आंखे काम नहीं करतीं। प्रकाश जरूरी हो जाता है। दीप पर्व प्रकाश अपरिहार्यता का उत्सव है।