अशोक कुमार सूरी
गांव में दो मित्र रहते थे। एक का नाम रामू और दूसरे का श्यामू। कहीं भी जाना होता, दोनों एक साथ जाते। कोई भी काम करना होगा, एक साथ करते। पर उनके स्वभाव में अंतर था। रामू बहुत चतुर तथा साहसी था। लेकिन श्यामू इसके विपरीत, डरपोक और भोला-भाला था। लोग उसे बेवकूफ बनाकर अपना काम निकालते थे।
एक दिन रामू ने श्यामू से कहा - गांव में रहते-रहते जी ऊब गया है। अब शहर में जाकर रहना चाहिए। वहां जो कमाएंगे वही खाएंगे।
'हां हां। चलो, मैं भी तैयार हूं।'
शुभ घड़ी देखकर उन्होंने बोरी-बिस्तर संभाला, जेब में रख लीं कुछ अशर्फियां और शहर की ओर चले पड़े। चलते-चलते वे एक जंगल में पहुंचे। उस समय दोनों थककर चूर हो रहे थे। पीठ पर बिस्तर लादे-लादे उनकी कमर दुखने लगी थी। एक छायादार पेड़ के नीचे उन्होंने सामान रखा और वहीं लेटकर विश्राम करने लगे। तभी एक तरफ से साधु के वेश में एक ठग आया। रामू और श्यामू को देखकर उसने सोचा कि इन्हीं पर हाथ साफ करना चाहिए। वह भी वहीं लेट गया। रामू और श्यामू ने देखा कि एक महात्माजी आ लेटे हैं तो उन्होंने बड़े प्रेम से साधु वेशधारी ठग से बातें करनी आरंभ कर दीं। बातों ही बातों में ठग ने पता लगा लिया कि दोनों के पास काफी अशर्फियां हैं। उसने उनको हथियाने का एक उपाय सोचकर कहा- मैं ऐसी तरकीब बता सकता हूं जिससे फकीर भी लखपती बन जाय, परंतु इसके लिए चार अशर्फियां देनी होंगी।
'लखपति! तो बताइए न, मैं अशर्फियां देने को तैयार हूं'- श्यामू ने उतावलेपन से कहा। रामू ने उसे बहुत समझाया पर वह न माना। उसने अपनी जेब से चार अशर्फियां निकालकर साधु बने ठग के हाथ में रख दीं। साधु ने अशर्फियां कमंडल में रखते हुए कहा- 'तरकीब यह है कि रास्ते भर में तुम्हें जो तीन चीजें मिलें उन्हें तुम अपने साथ लेकर बढ़ो।' अब साधु चलते बने। जरा-सी बात पर चार अशर्फियां देने के लिए रामू, श्यामू पर बहुत नाराज हुआ। परंतु उसने कहा कुछ नहीं। थकान दूर हो जाने के पश्चात वे आगे बढ़े।
दो कोस चलने पर उनको एक गधा हरी-हरी घास चरता हुआ दिखाई पड़ा। श्यामू को उस साधु की बात याद हो आई। उसने रामू से कहा- 'रामू भइया, इस गधे को क्यों न अपने साथ ले लें। इस पर बोझ लादेंगे।' रामू राजी हो गया। श्याम ने गदहे को पकड़ा और उस पर बोझ लाद दिया। दोनों आगे बढ़े।
कुछ ही दूर चले होंगे कि श्यामू की दृष्टि एक जंगली बेल पर बैठी हुई 'ततैया' पर पड़ी। ततैया जोर से डंक मारती थी। श्यामू ने फिर रामू से कहा- भइया, इस मक्खी को पकड़ लूं? शायद साधु की बात सच्ची हो जाय।
'हां हां, पकड़ लो न।'
श्यामू ने उस मक्खी को पकड़कर एक डिबिया में बंद कर दिया और आगे बढ़ा।
थोड़ी दूर जाने पर उन्हें रास्ते में एक तवा पड़ा मिला। श्यामू ने फौरन कहा- 'रामू यार तवे को भी क्यों न गदहे पर रख लिया जाय? कुछ नहीं तो इस पर रोटी ही सेकेंगे।' रामू ने आज्ञा दे दी। श्याम ने तवे को उठाकर गदहे पर रखा और उसे हांकता हुआ चलने लगा।
चलते-चलते रात हो गई। सरदी के दिन थे। कुहरा पड़ने लगा। ठंड के मारे दांत बजने लगे। इसी समय जंगली जानवरों ने चीखना आरंभ कर दिया। बेचारा श्यामू बहुत डर गया। उसने कांपते हुए कहा- रामू भइया, जरा इधर-उधर देखो। अगर कोई ठहरने का स्थान हो तो वहीं चलें। यहां ठहरने से तो प्राणों का भय है।
रामू ने चारों ओर दृष्टि घुमाई। अचानक उसे किसी महल की धुंधली-सी छाया दीख पड़ी। उसने कहा- श्यामू, कुछ दूर एक महल सा दिखाई देता है। चलो, वहां किसी कोठरी में सो रहेंगे।
बात की बात में दोनों महल के पास पहुंचे। उन्हें दरवाजे पर कोई पहरेदार नहीं दिखाई पड़ा। दोनों मित्र दरवाजे को खोलकर अंदर गए। अंदर जाने पर उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उन्होंने सारा महल सूना पाया। महल में कीमती वस्तुएं थीं। रेशम की चादरों से ढके हुए पलंग हर एक कमरे में बिछे थे। रामू-श्याम ने एक अच्छा-सा कमरा छांटकर वहां अपना डेरा जमाया। फिर बाहर का दरवाजा बंद करके आराम से सो गए।
यह महल एक राक्षस का था। वह बड़ा शक्तिशाली था। बड़े-बड़े पत्थरों को एक दूसरे से लड़ाकर चूरा कर देता था। देखने में वह बड़ा डरावना था। उसकी सूरत भी डरावनी थी। उस समय वह घूमने गया हुआ था। जब वह लौटा तो महल के बाहर आदमियों के पैरों के निशान देखकर बड़ा चकित हुआ। उसने दरवाजा बंद देखा तो चीखकर बोला- महल के भीतर कौन है?
बिजली-सी गड़गड़ाहट सुनकर रामू-श्यामू की आंख खुल गई। श्यामू तो डर से थरथराने लगा। रामू दौड़कर दरवाजे के पास पहुंचा। उसने एक छेद से देखा कि भयंकर राक्षस खड़ा-खड़ा गुस्से से पैर पटक रहा है। वह डर गया। लेकिन उसने साहस न छोड़ा। वह भी ताकत लगाकर चीखा-तू कौन है? इस तरह चीख क्यों रहा है?
राक्षस ने बाहर से कहा-मैं इस महल का मालिक हूं। तू कौन है? जानता नहीं, जो भी इस महल में आता है उसे मैं कच्चा ही खा जाता हूं।
रामू बोला- तो तू मेरा भतीजा राक्षस है। जानता नहीं, मैं तेरा चाचा हूं चाचा। भतीजे से लड़ना ठीक नहीं इसलिए यहां से भाग जा। फिर कभी न आना, वरना तुझे खा जाऊंगा।
अब तो राक्षस बड़ा चकराया। उसने मन ही मन कहा- 'चाचा' पर आज तक तो मैंने अपना कोई देखा ही नहीं। कुछ देर तक सोचने के बाद बोला- तो तुम मेरे चाचा हो। जरा अपनी सूरत तो दिखाओ।
रामू घबरा गया। उसने चारों ओर देखा। एकाएक उसे गदहा दुम हिलाता दीख पड़ा। उसे एक तरकीब सूझी। उसने जरा सा फाटक खोलकर गदहे की सूरत बाहर कर दी। गदहे की सूरत देख कर राक्षस डरकर पीछे हटा। उसने आज तक गदहा देखा भी न था। अनदेखी सूरत देखकर उसने सोचा, हो न हो यही मेरा चाचा है।
उसने कहा - 'चाचाजी, सूरत तो देख ली, अब जरा खाना दिखाओ। खाते क्या हो?' रामू ने झट दरवाजे की दरार में से काला तवा फेंककर कहा लो देखो। यह रही मेरी रोटी। इसे रोज शाम सबेरे सात नदियों के पानी के साथ पकाकर खाता हूं।
राक्षस ने ताज्जुब से तवा उठाकर देखा। परीक्षा करने के लिए उसने तवे को मुंह में रखा। पर वह टूटा नहीं। राक्षस ने जब सारी ताकत लगा दी तब जाकर कहीं तवे का थोड़ा सा भाग टूटा। परंतु राक्षस के दो दांत टूट गए। उसने सोचा कि मेरे चाचा तो मुझसे भी ताकतवर हैं जो रोज इतनी कड़ी रोटी खाते हैं। पर उसने सोचना कि एक परीक्षा और ले लूं तब जाऊं।
वह बोला - 'चाचाजी, अगर आप मेरी उंगली में दांत चुभो दें तो मैं चला जाऊंगा।' अब राक्षस ने अपनी उंगली फाटक के अंदर कर दी। रामू ने हर तरफ दृष्टि दौड़ाई, किंतु कोई वस्तु न दिखाई दी। तभी डरते हुए श्यामू को एक तरकीब सूझी। उसने जेब से डिबिया निकालकर उसका ढक्कन खोला डिबिया में से क्रोधित ततैया मक्खी निकली। सामने राक्षस की उंगली पाकर उसने बड़े जोर से डंक मारा। बेचारा राक्षस चीख उठा। तभी अंदर से रामू बोला - अबे ओ राक्षस! अभी और कुछ अपने चाचा से पूछना हो तो पूछ लो।
राक्षस अब बेहद घबरा गया था। वह उंगली सहलाता हुआ बोला- नहीं चाचा! अब कुछ नहीं पूछना। मैं जा रहा हूं।
अचानक अंदर से गदहा रेंका- ढेंचू ढें...ढें....ढें ढेंचूं ढे ढेंचू। राक्षस ने समझा, चचा मुझे खाने आ रहे हैं। वह सिर पर पैर रखकर भागा। फिर कभी उस ओर न आया।
महल में बहुत दौलत थी। रामू-श्यामू उसे बांटकर वहीं रहने लगे।