हरिकृष्ण देवसरे एमए
पात्र 1- बादशाह, 2- मियां जुम्मन, 3- नवाब सिंह 4- मुंशी चन्दूलाल, 5- जोरावर सिंह 6- नकीब।
(मंच पर सुंदर ढंग से सजा हुआ तख्त रखा है। सामने कालीन बिछा है। दीवालों से पर्दा टंगा है। ऊपर रंग-बिरंगे गुब्बारे और झंडियां लटक रही हैं। एक बड़ा-सा हुक्का चौकी पर रखा है। पर्दा उठते ही नकीब का प्रवेश)
नकीब- बाअदब! बामुलाहिजा होशियार। बादशाहे आलम, सितारे गप्प, नवाबे-गप्प, सरदार बहादुर, राय बहादुर बादशाह हुजूर गप्पी खान तशरीफ ला रहे हैं।
(नकीब तख्त के पीछे खड़ा हो जाता है। उसके हाथ में छतरी और ताड़ का पंखा है। बादशाह चूड़ीदार पाजामा और अच्छी पोशाक पहने हैं। सिर पर कलगीदार साफा है। पीछे-पीछे सभी दरबारी आते हैं)
बादशाह- ओफ, भइ आज तो बड़ी धूप है। (मंच पर लटकने वाले लट्टू की तरफ इशारा करते हुए) देखो न, कितनी तेजी से सूरज चमक रहा है। नकीब, जरा छाता तो खोलो। उफ कितनी धूप है।
नकीब- (बादशाह के कान में) हुजूर, गप्प ऐसी हांकिए कि झूठी न मालूम हो।
बादशाह- चुप रहो जी! जल्दी से छाता खोलो। देखते नहीं, कितना पसीना निकल रहा है।
नकीब- हुजूर, यकीन मानिए, आज तो बेहद सर्दी है। आज पंखे की ठंडी हवा और दो-चार कुल्फियो की जरूरत है। इजाजत हो तो....
मियां जुम्मन- जी हां हुजूर। मैंने तो सुना है कि आज कहीं बर्फ गिरी है। यों तो इस बात को मैं गप्प ही समझता, पर यकीन ऐसे आया कि कल रात मैं अपनी टोपी आंगन में रखकर सो गया था। सुबह उठा तो मैंने देखा उस पर बर्फ के डले पड़े हुए हैं।
बादशाह- झूठ कहते हो। ये सब गप्पे हैं। आज तो इतनी तेज धूप है कि...
नकीब- हुजूर, माफ कीजिएगा। इस वक्त दिन नहीं, रात है।
बादशाह- (गुस्से से) चुप रहो। तुम लोग मेरी गप्पों को झूठ साबित करना चाहते हो। मैं सबकी चालें समझता हूं। अच्छा तो सुनो, आज मुझे एक हजार रुपये की एक थैली मिली है। जो कोई सबसे अच्छी गप्प सुनाएगा उसे वह थैली दूंगा। इसी बहाने यह भी पता लग जाएगा कि कौन सबसे बड़ा गप्पी है।
नकीब- (झुककर सलाम करता है) वाह हुजूर! एक बार ऐसे ही एक गप्पी बादशाह ने कहा था। वह तो आपसे भी बड़ा गप्पी था।
बादशाह- हमसे बड़ा गप्पी था! बिलकुल झूठ। तुम्हारी यह मजाल...
नकीब- बन्दा तो हुजूर का नमक खाता है। पर हां, वह बादशाह भी था बड़ा गप्पी। यकीन कीजिए, वह ऐसी गप्पें हांकता था जैसे पुराने जमाने में रथ के घोड़े हांके जाते थे-
जोरावरसिंह- हुजूर! नकीब सही कह रहा है। एक तांगे में गप्प को हांकते हुए तो मैंने भी उन्हें देखा था। मैं तो थोड़ी देर के लिए चक्कर में आ गया था। पर तभी वह गप्प रस्सी तुड़ाकर भागी। उसे चट से मैंने पकड़ लिया था।
नकीब- हुजूर, जोरावरसिंह बिलकुल सफेद झूठ बोल रहे हैं।
नवाबसिंह- जी हां, जोरावरसिंह सचमुच झूठ बोल रहे हैं। उस गप्पी बादशाह की गप्प को तो मैंने भी देखा है। वह उन्हें इतनी मजबूती से बांधते थे कि उसकी क्या मजाल जो छुड़ाकर चली जाय।
बादशाह- हूं, यह बात है।
नवाबसिंह- जी हां। बात दरअसल यह थी कि उस बादशाह को गप्पों का बड़ा शौक था। सो उसने बड़ी ऊंची-ऊंची गप्पें पाल रखी थीं। इतनी ऊंची, जैसे ऊंट।
बादशाह- कुल कितनी गप्पें रही होंगी?
नवाबसिंह- यही कोई लाख दो लाख।
मुंशी चंदूलाल- हुजूर! ये भी सरासर गप्पें हैं। झूठ हैं। भला गप्प कोई चलती-फिरती चीज है!
बादशाह- क्यों नहीं। वह तो सात समंदर पार भी जाकर अपना तमाशा दिखा सकती है। (रूककर) हां, भइ नवाबसिंह, वह बादशाह अपनी गप्पों को रखता कहां था?
नवाबसिंह- हुजूर! उसने मीलों लम्बी एक ओसार बनवा ली थी। उसी में खूंटे से बांधकर वह उन्हें रखता था।
बादशाह- अरे वाह! कमाल है। सचमुच वह बादशाह गप्पों का बहुत शौकीन था।
नकीब - नहीं हुजूर, भला आपसे बढ़कर गप्पी...
बादशाह- चुप रहो! यह गप्प नहीं है। यह सच है। हम सचमुच गप्पों के शौकीन हैं।
मुंशी चंदूलाल- हुजूर! अगर मुझे कुछ मौका दें तो निवेदन करूं।
बादशाह- जरूर कहो मुंशीजी। क्या कहना चाहते हो?
मुंशी चन्दूलाल- बात दरअसल यह है कि इन गप्पों से भी एक बड़ी चीज उसके पास थी। उसके बारे में आप सुनें तो सोचेंगे कि वह भी शायद गप्प है।
बादशाह- पर तुम्हें कैसे मालूम?
मुंशी चंदूलाल- जी, मैं तो उस बादशाह के साथ था।
नकीब- हुजूर, मुंशीजी झूठ बोल रहे हैं।
बादशाह- तो तुम्हें इससे क्या मतलब।
मुंशी चंदूलाल- हां तो हुजूर, उस गप्पी बादशाह के पास एक बांस था।
बादशाह- (जोर से हंसता है) भइ चंदूलाल लगता है तुम सचमुच गप्प हांक रहे हो।
मुंशी चंदूलाल- हुजूर, वह बांस बहुत बड़ा था। जब वह गप्पी बादशाह ज्योतिषियों की गप्पों से हैरान हो उठता और पानी नहीं बरसता तो उस बांस से आसमान में छेद कर देता। बस, पानी बरसने लगता।
बादशाह- भाई यह तो ताज्जुब करने की बात है।
जोरावरसिंह- हुजूर, यह झूठ कहते हैं। इतना बड़ा बांस होना असंभव है। और अगर था तो उसे रखते कहां थे?
मुंशी चंदूलाल- उसी ओसार में जहां गप्पें बांधी जाती थीं।
(सब लोग ठहाका मारकर हंसते हैं)
नकीब- हुजूर! लगता है मुंशी चंदूलाल बाजी जीत गए।
बादशाह- नहीं। अभी बाजी का फैसला होगा।
मुंशी चंदूलाल- हुजूर, इंसाफ कीजिए। मेरी गप्प का अब कोई जवाब नहीं दे सकता। मुझे रुपयों की थैली दी जाए।
बादशाह- रुपयों की थैली? अरे भइ, वह भी तो एक गप्प ही थी न।
नकीब- गोया बाजी बादशाह हुजूर ने ही मार दी। पर यह झूठ है। आप बादशाह नहीं हैं (साफा उतार लेता है और उसकी नकली मूछें हटा देता है) तुम तो सुनील हो सुनील।
(सब हंसते हैं)
बादशाह- और तू भी तो नकीब नहीं, मोहन है।
मुंशी चंदूलाल- (बाकी लोगों से) अरे खड़े-खड़े ही-ही क्यों कर रहे हो! जल्दी से भागो वरना अपनी गप्पों की भी पोल खुल जाएगी।
(सभी हंसते हुए भागते हैं)
(पर्दा गिरता है)