Wednesday 09 January 2013 03:09:57 AM
हृदयनारायण दीक्षित
उत्तर प्रदेश की राजधानी में जश्न है। राज्य अपनी पहली विधाई संस्था की 125वीं वर्षगांठ मना रहा है। यह राज्य भारतीय संस्कृति का प्राणक्षेत्र है। पुराणों में गाए गए मध्यदेश का बड़ा भाग। जनतंत्र व सामूहिक विचार-विमर्श भारत की जीवनशैली है। ऋग्वैदिक काल की सभा सभ्यों का मंच थी, जो सभा के योग्य थे, सभेय थे और सभ्य थे। ऋग्वेद 6.28.6 में इसे जीवनशैली की तरह गाया गया है-हम घर को भद्र बनाएं, फिर वाणी को भद्र बनाएं और सभा में भद्र आचरण करें-भद्रं गृहं कृणथु, भद्रवाचो, उच्यते सभासु। ब्रिटिश संसद की विकास यात्रा 600-650 बरस पुरानी ही है, लेकिन उन्होंने अपनी संसदीय परिपाटी का विकास तीव्र गति से किया। भारत का सामान्य लोकजीवन भद्र, सभ्य और उदात्त बना रहा, लेकिन सभा की शक्ति घटती गई। वैदिक कालीन सभा अनिष्ट दूर करने वाली संस्था थी। महाभारत की सभा में जुंआ हुआ और चीरहरण भी हुआ। बुद्धकाल में हालत सुधरे, लेकिन बाद में स्थिति बदतर हो गई। अंग्रेजी सत्ता अपनी चाल चली।
भारतीय परिषद अधिनियम 1861 के अधीन गवर्नर जनरल को नए राज्य बनाने व उनके उपराज्यपाल मनोनीत करने के अधिकार मिले। राज्य की पहली विधाई संस्था 1887 में बनी थी। इस राज्य का नाम ‘नार्थ वेस्टर्न प्राविंस’ था। उपराज्यपाल के अलावा 9 सदस्य थे। पहली बैठक 8 जनवरी 1887 को इलाहाबाद में हुई। 1892 के भारतीय परिषद अधिनियम में कुछ सुधार हुए। 1893 की विधाई परिषद से प्रश्न पूछने की शुरूआत हुई। राज्य का नाम वेस्टर्न प्राविंस से बदलकर संयुक्त राज्य आगरा व अवध हो गया। भारत शासन अधिनियम 1919 से केंद्र व प्रांतों का कार्य विभाजन हुआ। राज्य विधानमंडलों को बजट पारण के अधिकार मिले, लेकिन गवर्नर जनरल व स्थानीय गवर्नर की ताकत बड़ी थी। सन् 1935 के अधिनियम में और सहूलियतें दिखाई पड़ीं। सन् 1937 में विधाई संस्था ने असली आकार पाया, लेकिन यह बातें इतिहास हैं। महात्मा गांधी ब्रिटिश संसद के कामकाज से असहमत थे, तो भी भारत ने ब्रिटिश माडल की संसदीय व्यवस्था अपनाई। स्वाधीनता के बाद बनी विधानसभाएं राज्य के जन का आकर्षण थीं। सदन के प्रति निर्वाचकों के मन में श्रद्धा थी। निर्वाचित सदस्य भी सदन के प्रति अगाध निष्ठाभाव से युक्त थे। सदस्यों के दल-बदल की छोटी सी घटना भी गांव देहात तक चर्चा का विषय बनती थी।
संविधान बनते समय इस राज्य का नाम उत्तर प्रदेश हुआ। सन्1952 में पहली विधानसभा चुनी गई। सदन शिष्टाचार, सौजन्य और संवाद का आदरणीय सभा मंडप था। मैं पहली दफा चुनकर आया नवीं विधानसभा में। मेरे लिए यह आश्चर्यजनक बड़ा मंच था। विधानसभा की सामूहिक चेतना, शील और प्रतिष्ठा के कारण मेरी नस-नस में रोमांच था। मैंने वरिष्ठों से पूछा कि मुख्यमंत्री/नेता सदन और नेता प्रतिपक्ष के बीच बोलने की प्रतिस्पर्धा हो तो पीठासीन/अध्यक्ष क्या करते हैं? मुझे वरिष्ठों ने बताया-ऐसा हो ही नहीं सकता, नेता प्रतिपक्ष खड़े हों तो नेता सदन स्वयं बैठ जाते हैं, इसी तरह नेता सदन खड़े हों तो नेता प्रतिपक्ष स्वयं ही आसन ग्रहण कर लेते हैं।” मैंने अनुभव में भी ऐसा ही देखा और पाया। बोलने की प्रतिस्पर्धा में भी “पहले आप-पहले आप” की प्रतिस्पर्धा मैंने स्वयं देखी है। बेशक नवीं विधानसभा में अपनी पूर्ववर्ती विधानसभाओं जैसे उदात्त, आदर्श, शिष्टाचार, विनय व शील के उच्च प्रतिमान नहीं थे, तो भी वह मेरे जैसे युवा विधायकों के लिए ‘आचार्य’ थी। हुल्लड़ और शोर शराबे अपवाद थे। उन्हें अच्छा नहीं मानने वालों का बहुमत था।
सदनों में विधेयकों के पारण में लंबी बहसें होती थीं। पंचायती राजमंत्री के रूप में मैंने विधान परिषद में एक विधेयक पर खूबसूरत बहस सुनी। मैंने स्वयं सभापति से बहस का समय बढ़ाने का अनुरोध किया था। अब अक्सर विधेयकों के पारण में मांगलिक कर्मकांड जैसा दृश्य होता है। भारी शोर के बीच “जो पक्ष में हैं वे हां कहें और जो विपक्ष में हैं वे नहीं कहें” की आवाजें सुनाई ही नहीं पड़तीं, लेकिन विधेयक पारित हो जाता है। विधानसभा की कार्यवाही की गुणवत्ता में क्रमशः ह्रास हुआ। शब्द अर्थ खोने लगे। अर्थ अनर्थ होते गए। मैं और मेरे जैसे अनेक विधायक विधान पुस्तकालय जाते थे, संदर्भगत तैयारियां होती थीं। शोध अधिकारी आदर के साथ प्यार भी करते थे। 9वीं विधानसभा के दौर में पुस्तकालय सदस्यों से भरा रहता था। दसवीं, 11वीं, 12वीं में पुस्तकालय में संदर्भ खोजने वालों की संख्या घटी। कारण साफ थे। रात की तैयारी का सदन में उपयोग घटा। प्रश्नकाल भी शोर शराबे में फंसे। तैयारी और पढ़ाई बेमतलब हो गई। मैं 9वीं से 12वीं विधानसभा का सदस्य रहा। तेरहवीं, 14वीं, 15वीं विधानसभा का सदस्य नहीं था, लेकिन पुस्तकालय का आना-जाना जारी रहा। पुस्तकालय वीरान होता गया। पीछे 3 बरस से विधान परिषद में हूं। अपने सदन की कार्यवाही में हिस्सा लेता हूं, आदरणीय विधानसभा की कार्यवाही में भी रस लेता हूं।
सदन की बैठकें घट रही हैं। स्वतंत्रता के बाद गठित पहली विधानसभा (1952-57) में 455 व दूसरी विधानसभा (1957-62) में 422, तीसरी विधानसभा (1962-67) में 395 बैठकें हुईं। चौथी विधानसभा (1967-68) एक वर्ष 25 दिन ही चली, लेकिन 43 बैठकें हुईं। पांचवी विधानसभा (1969-74) में 264, छठीं विधानसभा (1974-77) लगभग तीन साल चली, लेकिन 153 बैठकें हुईं। सातवीं विधानसभा (1977-80) भी अपनी अवधि नहीं पूरी कर पाई, लेकिन 156 बैठके हुईं। आठवीं विधानसभा (1980-85) में 224, नवीं विधानसभा में (1985-89) 195, दसवीं (1989-91) व ग्यारहवीं (1991-92) लगभग एक-सवा साल चलीं, लेकिन दसवीं में 48 व ग्यारहवीं में 52 बैठकें हुईं। बारहवीं विधानसभा (1993-95) में 70 बैठकें हुईं। तेरहवीं विधानसभा (1996-2002) में 159, 14वीं (2002-2007) में 153 बैठकें हुई थीं। पंद्रहवीं विधानसभा 2007-12 में सिर्फ 95 बैठकें ही हो पाई है। सन् 1952 से लेकर अब तक 16 विधानसभाएं चुनी गईं हैं। बैठकों का घटते जाना व काम के घंटे भी घटना चिंता का विषय है।
विधानसभा राज्य के जनगणमन की भाग्य विधाता है। इसकी प्रतिष्ठा का संवर्द्धन हम सबका प्राथमिक कर्तव्य है। सम्प्रति आमजन निराश है। दर्शक दीर्घा में कार्यवाही देखने के लिए आने वाले छात्र हुल्लड़ देखकर अवाक् रह जाते हैं। पवित्र सदन पर संवैधानिक काम निपटाने की जिम्मेदारी ही नहीं है। सदन का एक-एक शब्द, शीलाचार, उत्तेजन या प्रशांत वक्तव्य राज्य की जनता को तद्नुसार ही उद्वैलित करता है। आज समूचे राजनैतिक तंत्र के प्रति निराशा है। दूसरी ओर सदस्यों की शैक्षिक योग्यता का अनुपात बढ़ा है। हम सबके वेतन भत्ते बढ़े हैं, लेकिन अपने क्षेत्र में इक्का, साइकिल पर या पैदल चलने वाले पूर्वज विधायकों की तुलना में हम सबका सम्मान घटा है। लगभग 12वीं विधानसभा तक अधिकारीगण सत्ता पक्ष और विपक्ष के विधायक में भेद नहीं करते थे। अधिकारी सदन की कार्यवाही के प्रति संवेदनशील थे, अब विपक्षी विधायक को बीपीएल कार्ड धारक जैसा देखने का चलन है और सत्तापक्षी को मालिक या हुक्मरान। मूलभूत प्रश्न है कि हम सदस्यों का जीवनरस आखिरकार किस अदृश्य स्रोत से रिस रहा है? आम जनता के मन में हमारे प्रति पहले जैसा प्रीतिभाव क्यों नहीं है। ऐसे अनेक प्रश्न और भी हैं, लेकिन ऐसे सारे प्रश्नों का उत्तर एक ही है-सदन की आभा, प्रभा में ही हमारी आभा है।
सदन की विनई सेवा में ही हमारी प्रतिभा है। सदन के उपवेशनों में ही मंत्रिपरिषद के संवैधानिक उत्तरदायित्व की जांच पड़ताल व विवेचना है। सदन-संवाद में ही राजकोष का जनहित विनियोग है। सदन की गतिशीलता में ही प्रगति है और इसके अवरोध में दुर्गति। सदन के प्रीतिकर संवाद राज्य की तकदीर बदल सकते हैं और तस्वीर भी। सदन की गरिमा, महिमा में ही हम सबके विशेषाधिकार हैं। सदन की ऊर्जा में ही राज्य का भविष्य है। सदन आदरणीय है, बार-बार नमस्कारों के योग्य है। पूर्वजों अग्रजों की स्थापित परंपराओं व गरिमा महिमा का संवर्द्धन समय का आह्वान है।