Thursday 13 March 2014 05:11:52 PM
हृदयनारायण दीक्षित
प्रकृति मधुमय है। इसके अंतस् में मधुरस है। काया में मधुगंध है। प्रकृति की गति मधुछंद आबद्ध है। प्रकृति का केंद्र अजस्र मधुकोष है। इसी केंद्र का नाम है-उत्स। इस केंद्र से जुड़ना उत्साह है और इसी केंद्र में मस्त हो जाना उत्सव। उत्स मूल्यवान है, लेकिन उत्सव अनमोल। उत्स गोत्र नहीं, वंश नहीं, इतिहास की पकड़ से बहुत दूर, लेकिन हृदय की पकड़ में अतिनिकट। उपनिषदों के परम तत्व जैसा-वह बहुत दूर है, लेकिन अतिनिकट अंदर है। वह महतो महीयान-बड़े से भी बड़ा है। लघुतम से भी लघु है। उत्स मधुऊर्जा से भरापूरा है। कभी खाली नहीं होता। अजर। अमर। सनातन और चिरंतन। भारत का मन इसीलिए उत्सवधर्मा है। हरेक मनुष्य एकाकी है, लेकिन उत्सव सामूहिकता देते हैं। सभी उत्सव लोक उल्लास में प्रकट होते हैं, लेकिन होली की बात दूसरी है। होली प्रकृति का अपना उत्सव है। जन उत्सव नहीं लोकोत्सव। सिर्फ उत्सव नहीं महा-उत्सव। महोत्सव। प्रकृति अपना सर्वोत्तम लेकर प्रकट होती है। मधुरस उड़ेलती है, मधुनयनी होकर। मृगनयनी निस्संदेह सुंदर उपमा है, लेकिन होली मृगनयनी नहीं मधुनयनी होकर मधुमत्त करती है।
होली भारतीय उत्सवधर्म की महानायिका है। हमारे लोकजीवन की प्रियतमा। यह आती है तो सारा संयम और आचार शास्त्र उड़ा ले जाती है। बेशक हरेक समाज का आचार शास्त्र होता है। भारतीय समाज मर्यादाप्रेमी है, लेकिन होली में बड़े साधकों का मन भी आशाराम हो जाता है। यूपी अवध में लोकोक्ति है-फागुन भरि बाबा देवर लागें। अवध के राम पर भी फागुन सवार हुआ था, लेकिन वे ठहरे मर्यादा पुरूषोत्तम। सो नाच गाकर प्रशांत रहे। होली खेली कान्हा ने। सिर्फ राधा के साथ नहीं। हजारों गोपिकाओं के साथ। लोकगायक गाते हैं-उड़त गुलाल लाल भए बादल। कान्हा की होली अंबर को रंग गुलाल से आपूरित करती थी। होली का यह रंग भारत के मन मधुवन में आज तक रमा हुआ है। कान्हा की राधा बड़ा प्यारा प्रतीक है। धारा की मर्यादा है, धाराप्रवाह का अर्थ होता है-नियमित प्रवाह। शब्द राधा धारा का ठीक उल्टा है। धारा ऊपर से नीचे बहती है। राधा नीचे से ऊपर की गति है। ठीक वैसे ही जैसे ऊपर से नीचे का ऊर्जा प्रवाह वासना है और नीचे से ऊपर का ऊर्जा प्रवाह प्रार्थना। राधा प्रार्थना जैसी है। इतिहासकार इसका मजा नहीं ले सकते। इतिहास समय के भीतर का इतिवृत्त है और राधा समय का अतिक्रमण। उल्टी धारा है वे। होली भी सामाजिक आचार संहिता से मुक्ति का स्वस्ति आनंद और उल्लास है। होली में प्रकृति अपना तन, मन और यौवन खोलकर रख देती है।
इस साल यानी 2014 की होली भी वैसी ही सजी धजी, मधुनयनी है। मस्त मस्त बिंदास। आधुनिकता और परंपरा में बेशक कुछ खटपट हैं, परंपरा मां है और आधुनिकता पुत्री। परंपरा गीत, नृत्य, रंग, तरंग, गलमिलौवल और स्वस्तिवाचन में होली उलास का सुख बांटती आई है। आधुनिकता हाय, बाय, ट्वीटी, एसएमएस और ब्लागी खटरागी होली में मस्त हैं। ई-मेल, ई-लव, ई-गवर्नेंस, ई-मार्केटिंग और अब ई-होली। ई की बहार है। आज मेरे साजना तेरा इंतजार है। ई-श्वर होलिका अवकाश पर हैं। पेंच और भी हैं। इस होली उत्सव में चुनाव उत्सव भी घुस आया है। होली सामाजिक आचार संहिता का अतिक्रमण होती है और चुनाव आदर्श आचार संहिता की ऐसी तैसी वाला डेमोक्रेटिक जलसा। आयोग आदर्श आचार संहिता पर जोर दे रहा है। हमारी उम्र के वरिष्ठ नागरिक हलकान हैं। सिर्फ फागुन मास में ही हम सब युवा देवर हो सकते हैं। बाकी समय बाबा। कवि प्रवर केशव को भी बुढ़ौती का मलाल था। बाल झक सफेद। बिल्कुल महंगे डिटरजेंट से धोए हुए। लेकिन ट्वीटी, ब्लागी सफेद बालों वाले की ओर देखना तो दूर एक फर्जी एसएमएस के लिए भी तैयार नहीं-केशव केशन असि करी, जस अरिहूं न सताय, चंद्रबदन मृग लोचनी, बाबा कहि कहि जाए।
आदर्श चुनाव आचार संहिता ने होलियाना मस्ती में टांग अड़ाई है। यह संहिता भी बड़ी मजेदार नायिका है। डराती धमकाती बहुत है, लेकिन अंत में तोड़ने वाले के साथ राजी हो जाती है। होलियाना प्रश्न यह है कि जब चुनाव ही आदर्श नहीं हैं तो आचार संहिता कैसे आदर्श होगी? आयोग कर्त्तव्य पालन ही कर रहा है। कानून प्रिय आचार शास्त्र मानते ही हैं, लेकिन आचार संहिता से अनेक क्षेत्र मुक्त हैं। पुलिस पर आचार संहिता का कोई प्रभाव नहीं। वे चुनाव घोषणा के पहले भी मां-बहन की गाली देते थे, अब भी गरिया रहे हैं। हरे पेड़ों की कटान पुलिस संरक्षण में हो रही थी, अब भी वैसी ही है। पुलिस और होली के अवैध संबंधों पर चर्चा खतरनाक है। होली मिलन में खलल है। होली के बाद नवसंवत्सर। फिर देवी पूजा। पुलिस की तिरछी नज़र खतरनाक है। राजनेता डरे डरे हैं। शोक सभा में भी जांए तो आचार संहिता। हमारे अपने जिले के एक बड़े और बड़बोले दरोगा ने यही उपदेश दिया है। आचार संहिता पुलिस गुंडागर्दी का हथियार बन गयी है।
एफएम पर गाना आ रहा है-हमरी अंटरिया, आजा रे संवरिया, देखा देखी तनिक होई जाए। ठुमरी पुरानी है। अपने आप में परिपूर्ण प्रेमगीत, लेकिन फिल्मकार ने इसे 'डेढ़ इश्कियां' में क्यों इस्तेमाल किया है? यों यह गीत कहानी का भाग नहीं है। ठीक भी है। अब संवरिया और साजन प्रजाति के लोग बचे नहीं। देखा-देखी का समय नही। फ्लैट में अपनी अंटारी होती भी नहीं। सो हमारी अंटरिया का कोई तुक नहीं। जीवन क्षण भंगुर है। यह बात अध्यात्म अनुभूति की है। सो प्रेम डेलीवेज़ेज जैसा है। यह तथ्य प्रत्यक्ष है। टिकाऊ का युग नहीं। रूमाल टिकाऊ था, प्रेम में दिखाने या टपोरी होने के लिए गले में बांधने के काम आता था। अब कागज का रूमाल है। नाक पोंछो, खखारों और फेंको। अब दीर्घकाल प्रेम के लिए विवाह भी बेकार हैं। साथ-साथ रहो। मौज करो। लिव इन रिलेशन में जीवन की क्षण भंगुरता का स्वाद लो। डिस्पोजल ब्लेड, डिस्पोजल कप, पानी की बोतल। सब कुछ भंगुर। ब्वाय फ्रेंड, गर्लफ्रेंड प्रीति प्यार, सब कुछ क्षणिका। जापानी हाईकू। अब सजना के लिए क्यों सजना। मिस्ड काल काफी है। पंथनिरपेक्षता या सांप्रदायिकता भी क्षणभंगुर है। जो सीना तानकर पंथनिरपेक्षी थे, वे अब सांप्रदायिक हो रहे हैं और जो राष्ट्रवादी थे, वे पंथनिरपेक्षी।
क्षण भंगुरता की सस्ती मस्ती मजेदार है। पक्षी प्रतिपक्षी हो रहे हैं और प्रतिपक्षी पक्षी। पक्षी का क्या? बने बनाए मार्ग पर कभी चले ही नहीं। कोयल के गीत अनसुने हैं। वह वसंत आगमन के दिन से ही गाए जा रही है, लेकिन कौओं का कांव-कांव प्रभावी है। उन्होंने चुनाव के कारण झूठों को काटना बंद कर दिया है। तो भी हवा में मकरंद है। हर झोंका मधुगंधा है। शीत ताप गलमिलौवल कर रहे हैं। धरती आकाश के बीच प्रेमगीत जारी है। प्रकृति का अपना स्वभाव है। वह जो भी गढ़ती है या रचती है पूरे मन, प्राण और पुलक से ही रचती है। प्रकृति के रूप, रस, गंध, स्पर्श इसीलिए मधुरिम है। होली प्रकृति का ही रूपायन है। उसी की पुलक और उसी का नृत्य। पृथ्वी भी नाच ही रही है, अपने जन्म लेने के दिन से। उसे नाचे बिना चैन नहीं। उल्लास का घनत्व विश्राम कहां देता है। गति नृत्य है, नृत्य उल्लासपूर्ण जीवन है और जड़ता मृत्यु। आप भी नाचो इस होली में। नच ले, नच ले तू मेरे यार। नच ले। आगे चुनाव की बयार, तू नच ले।