मेनका गांधी
भारत के सामने पशुओं, वन्य जगत और उसकी दुर्लभ प्रजातियों को संरक्षित करने, उनके संरक्षण चिकित्सा और वन परिवासों को मानव जनसंख्या दबाव और उसके घातक परिणामों से बचाने के लिए देश में कोई भी शैक्षणिक जागरुकता पाठ्यक्रम नहीं है जिसकी आज बहुत आवश्यकता महसूस हो रही है। इसकी कोशिश की भी गई तो उसे परवान नही चढ़ने दिया गया। आज हर एक के सामने यह चुनौती है कि वन्य प्राणियों के सुरक्षित जीवन और स्वच्छंद विचरण के लिए मनुष्य में शैक्षणिक जागरुकता के कौन से तरीके अपनाए जाए और उन्हें किस प्रकार उन गंभीर बीमारियों से बचाया जाए जिनके कारण न केवल वन्य प्राणियों का जीवन खतरे में होता जा रहा है अपितु उनमें अज्ञात और लाइलाज बीमारियों के कारण आदमी का जीवन भी महामारी की तरह से प्रभावित है। दुनिया के सामने इसके जो आंकड़े हैं वह बहुत ही चिंताजनक हैं। भारतीय उपमहाद्वीप के लिए तो यह समस्या और भी चिंता का विषय है जहां आज भी किसी विचित्र से दिखने वाले दुर्लभ वन्य प्राणी को खतरा मानकर मानव या उसके समूह के हमले में नाहक ही मार दिया जाता है। वन्यजीवन चक्र को उसी के अनुसार फलते-फूलते चलते देने के लिए या तो अभी से ही उसके पर्याप्त प्रबंध किए जाएं या फिर उनके विनाश को अपनी नजरों से देखने के लिए तैयार रहें।
ज्यों-ज्यों विश्व में जनसंख्या तेजी से बढ़कर 8 बिलियन पहुंच गई है, उतनी ही तेजी से रोजगार कम हो रहे हैं। प्रत्येक 10 मिनट में 2,500 लोग अपने रोजगार से हाथ धो रहे हैं। आज जन्म लेने वाले बच्चों को आगे रोजगार मिलने की संभावना काफी क्षीण है। प्रत्येक सरकार को इस समस्या से जूझना पड़ेगा, यह सिद्ध करने के लिए कि रोजगार मौजूद हैं, परंतु सच यही है कि उनके लिए लोग उपलब्ध नहीं हैं, हम लोगों की पात्रता के लिए उच्चतर से उच्चतर डिग्रियों को बनाते रहे- पहले बीए आई फिर एमए, फिर बीएड, फिर पीएचडी और अब यह एमबीए है। तथापि, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता की डिग्री का स्तर क्या है, यह मुख्यतः असंगत है क्योंकि हमारे कॉलेजों में आधारभूत शिक्षा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, सिवाय उसमें सूचना प्रौद्योगिकी एवं ज्योतिष शास्त्र जोड़े जाने के। कला में इतिहास, भूगोल, साहित्य, समाज विज्ञान और राजनैतिक विज्ञान आदि हैं और विज्ञान में भौतिकी, रसयान शास्त्र, जीव विज्ञान और आज पूर्णतः नजरंदाज अनुपयोगी विषय प्राणिविज्ञान है। इनमें से अधिकांश विषय केवल इन विषयों को आगे पढ़ाने के लिए शिक्षक बनाते हैं।
भारत की आवश्यकताएं बदल गई हैं, अर्थव्यवस्था की दिशा बदल गई हैं, लोगों की संख्या सौ गुना बढ़ गई हैं, भूमि जोतें छोटी हो गई हैं, हमारे किसान हरित क्रांति का जमकर उपयोग करके इसके प्रभाव को खो चुके हैं, कीटनाशक उनकी अधिकांश उत्पादकता को समाप्त कर चुके हैं, पशुओं और पौधों की हजारों प्रजातियां ने विलुप्त होकर जीवन को और कठिन बना दिया है, पानी सूख चुका है और मौसम अब काफी परिवर्तनशील होता है, गांव की अभिवृत्ति अब देहाती संतुष्टि वाली नहीं है, इन सब नई समस्याओं, नई आकांक्षाओं से निपटने के लिए शिक्षा को बदलना चाहिए। हमारे पास विश्व में स्कूलों की सबसे अधिक संख्या है, कितने लोग उनसे लाभांवित हुए? विषयों को पढ़ाए जाने की आवश्यकता है- यदि स्कूल के स्तर पर नहीं तो कॉलेज स्तर पर। मुझे आश्चर्य होता है कि एक देश जो पूर्णतः पशुओं पर निर्भर है और जो यह सीख ले कि उनके साथ किस प्रकार कार्य करना है तो शाही ठाठ-बाट में रह सकता है, उसमें पशुओं के साथ व्यवहार करने के लिए लोगों को प्रशिक्षित करने हेतु कोई शैक्षणिक प्रणाली नहीं है। इस संबंध में कुछ तथ्य ये है -
31 पशु चिकित्सा कॉलेज। मुख्य शिक्षा-मवेशियों का गर्भाधान। पाठ्यक्रम 1930 से अद्यतन नहीं किया गया है।पशुओं से निपटने के लिए कोई नगरपालिका योजना नहीं है। कोई भी वन रक्षक पेड़ की पहचान अथवा पौधों को लगाने में प्रशिक्षित नहीं है, सिवाय पेड़ों को काटे जाने के। समूचे वन विभाग को राष्ट्रीय बजट का 0.5 प्रतिशत से कम भाग दिया जाता है। भारत में कोई वन्य जीव डाक्टर नहीं है। कोई चिडि़याघरों का काडर नहीं। कोई पक्षियों का डॉक्टर नहीं। कोई बंदर विशेषज्ञ नहीं। कोई हिरन अथवा हाथी विशेषज्ञ नहीं। कोई बाघों का डॉक्टर नहीं। आवश्यकता होने वाले इन विषयों में विशेषज्ञता प्राप्त करने के लिए विदेशों में कोई छात्रवृत्ति नहीं। पशुओं हेतु कोई बीमा योजना नहीं। अर्थव्यवस्था में परिवहन करने वाले तथा ईंधन की बचत करने वाले, कीटनाशक तथा ऊर्वरक मुहैया करवाने वाले अथवा कचरे को साफ करने वाले के रूप में उनकी भूमिका को कोई महत्व नहीं दिया जाता है। कोई वध-गृह प्रबंधन नहीं।
पशुओं से जोते जाने के लिए कोई डिजाइन नहीं। भार सहने वाली व्यवस्था के साथ कोई पशु गाड़ी नहीं बनाई गई है। 3 वर्ष 40 प्रतिशत बैलों की मृत्यु गले के कैंसर से हुई है। कीटनाशकों के उपयोग और अस्पतालों में किए जा रहे व्यय के साथ उनका संबंध स्थापित करने पर कोई पुनर्विचार नहीं। भारतीय मूल के सैकड़ों अध्ययनों के बावजूद मांस खाने से होने वाले कैंसरों का कोई मूल्यांकन नहीं। मांस की दुकानों की स्थिति अथवा उन्हें लाइसेंस देने के संबंध में कानूनों को लागू नहीं किया जाना। केवल दिल्ली में ही अवैध मांस की दुकानों की संख्या-11,000 है। चमड़े और मांस निर्यात उद्योग और इससे गंदी हुई नदियों की सफाई तथा बकरियों से खाली किए गए क्षेत्र में पुनः पौध रोपण पर किए जाने वाले व्यय के संबंध का कोई आर्थिक मूल्यांकन नहीं है। जिलों में उतने पशु चिकित्सा केन्द्र नहीं। पशु चिकित्सक नहीं।
यह इस तथ्य के बावजूद है कि ग्रामीण दिवालियेपन का 70 प्रतिशत किसी ऐसे पशु की मृत्यु से होता है जिसके लिए ऋण लिया गया था। कोई हरित आर्थिक योजना नहीं जो प्रत्येक पशु की सेवाओं की कीमत लगाती हो। इसका कोई मूल्यांकन नहीं की पर्यटक भारत में क्या देखने आते हैं और उन्हीं संसाधनों को विकसित करना। इसके बजाए सारा पैसा होटलों में लगाया जा रहा है। ऐसे ही जलराशियों का कोई मूल्यांकन नहीं। किसी भी उपयोग वाले पशुओं की रक्षा के लिए कोई कानून नहीं। इस पर कोई प्रशिक्षण नहीं कि किसी पशु को कैसे पकड़ा जाए अथवा किस प्रकार बेहोशी की दवा का उपयोग किया जाए। कोई शिक्षा, कोई विशेषज्ञ प्रशिक्षण, कुछ भी नहीं। तो फिर आप नीलगाय, बंदर, तेंदुए तथा कुत्ते की समस्या को किस प्रकार सुलझाएंगे-उनकी हत्या करके? आप पशुओं की हत्या करते हैं और तब तक करते हैं जब तक कि वे लगभग समाप्त न हो जाएं-जैसा तेंदुए के मामले में हुआ था-और फिर आप सारा पैसा उनके पुनः प्रजनन करने में लगाते हैं। ऐसा ही उस गिद्ध के साथ हुआ था, जिसका लुप्त होना अब गांवों से शवों को साफ करने में करोड़ों रुपए खर्च किए जाने में परिणत हुआ है।
उन पेड़ों के विलुप्त होने से कैसे निपटा जाए जो केवल पक्षियों द्वारा फैलाए जाते हैं और अब लगभग समाप्त हो चुके हैं? घोड़ों के साथ किस प्रकार से व्यवहार करें कि वे लंबे समय तक जीवित रहें और अधिक लोगों का परिवहन करें? भारत मध्य प्रदेश में अपनी सारी ऊर्वर भूमि का उपयोग उस सोयाबीन को उगाने के लिए क्यों करें जिसे यूरोप में पशुओं को खिलाया जाना है? वध-गृहों के कूड़े को नदियों में क्यों डाला जाए? साफ पानी की झीलों में जैसा कि अल कबीर पतनचेरू में करता है? जमुना में-जैसा कि दिल्ली में ईदगाह करता है? गंगा में जैसा कि कानपुर करता है? आप वैकल्पिक चमड़े जैसी नई टेक्नोलॉजियों को किस प्रकार ला सकते हैं- जैसे चीन ने किया है। आप महिलाओं को किस प्रकार से गोबर से खाना पकाते हुए मीथेन गैस की दुर्गंध से बचना सीखाएंगे-क्योंकि किसी भी तरह से भारत के गांव कभी भी गैस पर निर्भर हो सकेंगे।
हमें प्रशिक्षित व्यावसायिकों की एक पीढ़ी चाहिए जो धीरे-धीरे भारत के नीति निर्धारण के प्रत्येक क्षेत्र में पहुंचेगी और भारत के शासन को किसानों, गरीबों तथा स्वास्थ्य के अनुकूल बनाएगी और यह सब पशुओं पर हमारी निर्भरता को महसूस करने और उस पर कार्य करने पर निर्भर करता है। इसी कारण से मैंने वर्ष 2002 में फरीदाबाद में पशु कल्याण तथा उससे जुड़े हुए विषयों हेतु एक विश्वविद्यालय की परिकल्पना की, और उसे बनवाया। इसका भवन फरीदाबाद में 8 एकड़ में फैला हुआ था और स्टाफ के लिए सरकार ने अनुमोदन दे दिया था। प्रारंभ में स्टाफ को विदेशों से बुलाया जाना था- और ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज तथा येल के प्रमुख प्रोफेसर सहमत हो गए थे। यूएनईपी ने एक पुस्तकालय अनुदान दिया था। पशु प्रबंधन के 43 पाठ्यक्रम तैयार किए गए थे। सम विश्वविद्यालय की अनुमति शीघ्र ही प्राप्त होनी थी।
पढ़ाने जाने वाले विषय ये थे - जीव विज्ञान, रसायन शास्त्र, शरीरविज्ञान, शरीररचना-विज्ञान आदि, परिस्थितिकी और संरक्षण पशु पोषण तथा कानून, पशुओं की देखभाल पशु आर्थिक, आवास, शहरों में पशु प्रबंधन, जल तथा वन प्रबंधन, वाणिज्यिक फैक्ट्री, वध-गृह, चिडि़याघर तथा प्रयोगशाला प्रबंधन, पुनःप्रजनन, जलीय जीव प्रबंधन इंजीनियरिंग तथा नई टेक्नोलॉजियां, आर्गेनिक कृषि, पक्षियों की देखभाल बंदर, हाथी, सांप, छोटे पशु तथा मवेशी प्रबंधन, पशु चिकित्सा फार्मेसी और दवा देना आदि। बीए चार वर्ष की थी किंतु वहां 1 तथा 2 वर्ष वाले पाठ्यक्रम भी थे। उसके अतिरिक्त पुलिस नगर निगम के पदाधिकारियों आदि के लिए अल्पावधि पाठ्यक्रम भी थे।
एनआईएडब्ल्यू (नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर एनिमल वेलफेयर) कहा जाने वाला यह विश्वविद्यालय सैकड़ों लोगों की अभिवृत्ति को बदल सकता था। एक समय ऐसा भी था जब भारत में विधि कॉलेज न केवल खराब थे बल्कि विधि पाठ्यक्रमों को गंभीरता से नहीं लिया जाता था। एक बार बंगलौर लॉ स्कूल की स्थापना होने के पश्चात वह बेंचमार्क बन गया और प्रत्येक विधि कॉलेज अथवा विधि विभाग ने शीघ्रता से अपनी कमर कस ली। प्रारंभ में मैं पशु चिकित्सा कॉलेजों से भी ये ही आशा करती थी। इन स्नातकों को रोजगार कैसे मिलेगा? और कैसे नहीं मिलेगा? शहर प्रबंधन, वन्यजीव प्रयोगशाला, अस्पताल, आश्रय, एनजीओ, वध-गृह, चिडि़याघर, पशु चिकित्सा केंद्र, नगर निगम उद्योग और समूचे विश्व भर में सैकड़ों कन्सलटेन्सियों को भी लें।
विश्व में 62 विश्वविद्यालय पशु कल्याण पर पाठ्यक्रम चला रहे हैं। उनमें से प्रत्येक से संपर्क किया गया था और वे काफी प्रसन्न हुए तथा खुशी-खुशी सहायता करने के लिए तैयार थे। कई लोगों ने तो पहले से ही अंतरराष्ट्रीय वित्त-पोषण प्राप्त करने का प्रयास कर दिया है ताकि वे हमारे अपने स्टाफ के प्रशिक्षित होने तक यहां आकर पढ़ा सकें। इस पाठ्यक्रम हेतु पुस्तकें? शिक्षा मंत्रालय ने पहले ही सभी पाठ्यक्रमों की पुस्तकों को बनाने के लिए अपने ईडीसीआईएल से एक दल को लगा दिया। यदि यह प्रारंभ हो जाता तो पशु कल्याण में जाने के इच्छुक प्रत्येक व्यक्ति को एक उचित डिग्री मिल सकती थी। प्रत्येक क्षेत्र में ऐसे हजारों रोजगार है जिनके लिए प्रशिक्षित व्यक्तियों की आवश्यकता होती है।
तथापि, मुझे वर्ष 2002 में मंत्री पद से हटा दिया गया था। एनआईएडब्ल्यू को पर्यावरण मंत्रालय को सौंप दिया गया था और एनडीए सरकार ने उसे 3 वर्षों के लिए ठंडे बस्ते में डाल दिया था। फिर एमिटी तथा अन्य बड़े विश्वविद्यालयों ने इसे लेने का प्रस्ताव रखा और इसे देने से बचने के लिए पर्यावरण मंत्रालय ने ‘अनुकंपा’ पर सरकारी पदाधिकारियों के लिए दो दिवसीय पाठ्यक्रम को प्रारंभ किया। इसे इस्पात तथा कोयला जैसे मंत्रालयों के निचले दर्जे के पदाधिकारियों को पशु कानून पढ़ाने के लिए तीन दिन का कर दिया गया था। अब तक उन्होंने 6 वर्षों में ऐसे 40 अर्थहीन कार्यक्रम किए हैं और देखभाल के अभाव में यह भव्य ढांचा खराब हो रहा है। उसमें कोई स्टाफ नहीं है, इन पाठ्यक्रमों को मंत्रालय में ऐसे संयुक्त सचिव पढ़ा रहे हैं जो पशु कल्याण तथा कानूनों के बारे में उतना ही जानते हैं जितना कि मैं ट्रिपल थ्योरम्स के बारे में। इस संस्थान हेतु आवंटित की गई राशि को प्रत्येक वर्ष आम बजट में वापस लौट दिया जाता है। इसे एक सेंटर ऑफ लर्निंग बनाने के लिए भारत पशु कल्याण बोर्ड को सौंपे जाने की मेरी अपीलों से किसी की कान पर जूं नहीं रेंगती।
हमारे नौकरशाह लालची, आलसी और भारत के लिए मददगार सिद्ध होने वाले नए विचारों के विरोधी होने के कारण सरकार और कितने आकर्षक अवसरों को यूं ही बेकार जाने देंगे। बीते हुए इन 6 वर्षों में अब तक हम कितने ऐसे विशेषज्ञों को तैयार कर लेते जो बाघ, तितलियों और समूचे भारत के वन्य जीवन को बचा पाने में समर्थ होते।