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Saturday 18 July 2015 08:15:03 AM
अहमदाबाद/ नई दिल्ली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा के पावन अवसर पर लोगों को अपनी शुभकामनाएं दी हैं। प्रधानमंत्री ने अपने संदेश में कहा-रथ यात्रा के अवसर पर सभी को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं। जय जगन्नाथ। उन्होंने कहा कि इस परंपरागत उत्सव को संपूर्ण भारत में विशेष उल्लास के साथ मनाया जाता है और अब यह सारे विश्व में विख्यात है, हम भगवान जगन्नाथ के प्रति अपनी अपार श्रद्धा प्रकट करते हैं, जो अपने रथ पर सुशोभित होकर लोगों को आशीर्वाद प्रदान करते हैं। उन्होंने कहा कि भगवान जगन्नाथ के शुभ आशीर्वाद के साथ समाज में सद्भावना, एकता और प्रसन्नता की भावना का विस्तार हो, यह कामना करता हूं। भगवान जगन्नाथ की अलौकिक कृपा से गरीबों और किसानों के जीवन में समृद्धि आएं। जय जगन्नाथ। इस अवसर पर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल ने भगवान जगन्नाथ की पूजा-अर्चना की।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जानकारी दी कि उन्होंने गुजरात के अहमदाबाद में 2013 की रथ यात्रा के कुछ चित्र भी नेट पर अपलोड किए हैं। उन्होंने कहा कि रथ यात्रा गुजरात की बहुत सी पुरानी स्मृतियों को फिर से ताजा करती है। प्रधानमंत्री ने आषाढ़ी बीज, कच्छ नववर्ष पर भी कच्छ समुदाय को अपनी शुभकामनाएं दी हैं और कहा है कि मेरी कामना है कि आने वाला वर्ष उन सबके लिए समृद्धि और स्वास्थ्य से परिपूर्ण हो। गुजरात के अहमदाबाद में भगवान जगन्नाथ मंदिर के उद्गम से जुड़ी परंपरागत कथा के अनुसार भगवान जगन्नाथ की इंद्रनील या नीलमणि से निर्मित मूल मूर्ति, एक अगरु वृक्ष के नीचे मिली थी। यह इतनी चकाचौंध करने वाली थी कि धर्म ने इसे पृथ्वी के नीचे छुपाना चाहा।
मालवा नरेश इंद्रद्युम्न को स्वप्न में यही मूति दिखाई दी थी, तब उसने कड़ी तपस्या की और भगवान विष्णु ने उसे बताया कि वह पुरी के समुद्र तट पर जाए जहां उसे एक दारु लकड़ी का लठ्ठा मिलेगा, उसी लकड़ी से वह भगवान जगन्नाथ की मूर्ति का निर्माण कराए। राजा ने ऐसा ही किया। विश्वकर्मा एक कारीगर और मूर्तिकार के रूप में उसके सामने उपस्थित हुए। उनका कहना था कि वह एक माह में मूर्ति तैयार कर देंगे, लेकिन उन्होंने यह शर्त रखी थी कि राजा तब तक एक कमरे में बंद रहेंगे और कोई भी उस कमरे के अंदर नहीं आएगा। उत्सुकतावश राजा ने कमरे में झांका और वह वृद्ध कारीगर द्वार खोलकर बाहर आ गया और उसने राजा से कहा कि मूर्तियां अभी अपूर्ण हैं, उनके हाथ अभी नहीं बने हैं। राजा के अफसोस करने पर मूर्तिकार ने बताया कि यह सब दैववश हुआ है और ये मूर्तियां ऐसे ही स्थापित होकर पूजी जाएंगी। जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की ये मूर्तियां मंदिर में स्थापित कर दी गईं।
इतिहासकारों का मत है कि इस मंदिर के स्थान पर पूर्व में एक बौद्ध स्तूप होता था। उस स्तूप में गौतम बुद्ध का एक दांत रखा था, बाद में इसे इसकी वर्तमान स्थिति में श्रीलंका में कैंडी मेंपहुंचा दिया गया। इस काल में बौद्ध धर्म को वैष्णव संप्रदाय ने आत्मसात कर लिया था और तभी जगन्नाथ अर्चना ने लोकप्रियता पाई। यह दसवीं शताब्दी के लगभग हुआ, जब ओडिशा में सोमवंशी राज्य था। महान सिख सम्राट महाराजा रणजीत सिंह ने इस मंदिर को प्रचुर मात्रा में स्वर्ण दान किया था, जो कि उनके द्वारा स्वर्ण मंदिर अमृतसर को दिए गए स्वर्ण से कहीं अधिक था। उन्होंने अपने अंतिम दिनों में यह वसीयत भी की थी कि विश्व प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा इस मंदिर को दान कर दिया जाए, लेकिन यह संभव न हो सका, क्योंकि उस समय तक ब्रिटिशर्स ने पंजाब पर अपना अधिकार करके, उनकी सभी शाही सम्पत्ति जब्त कर ली थी, जिसमें कोहिनूर हीरा भी था, जो भगवान जगन्नाथ के मुकुट की शान न बन सका।
भगवान जगन्नाथ का मंदिर 4,00,000 वर्ग फ़ुट में फैला है और चहारदीवारी से घिरा है। कलिंग शैली के मंदिर स्थापत्यकला और शिल्प के आश्चर्यजनक प्रयोग से परिपूर्ण यह मंदिर भारत के भव्यतम मंदिरों में से एक है। मुख्य मंदिर वक्ररेखीय आकार का है, जिसके शिखर पर विष्णु का श्रीसुदर्शन चक्र मंडित है। इसे नीलचक्र भी कहते हैं। यह अष्टधातु से निर्मित है और अति पावन और पवित्र माना जाता है। मंदिर का मुख्य ढांचा एक 214 फ़ुट ऊंचे पाषाण चबूतरे पर बना है। इसके भीतर आंतरिक गर्भगृह में मुख्य देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं। यह भाग इसे घेरे हुए अन्य भागों की अपेक्षा अधिक वर्चस्व वाला है। इससे लगे घेरदार मंदिर की पिरामिडाकार छत और लगे हुए मंडप, अट्टालिकारूपी मुख्य मंदिर के निकट होते हुए ऊंचे होते गए हैं। यह एक पर्वत को घेरे हुए अन्य छोटी पहाड़ियों और फिर छोटे टीलों के समूह रूपी बना है। मुख्य भवन एक 20 फ़ुट ऊंची दीवार से घिरा हुआ है तथा दूसरी दीवार मुख्य मंदिर को घेरती है। एक भव्य सोलह किनारों वाला एकाश्म स्तंभ, मुख्य द्वार के ठीक सामने स्थित है। इसका द्वार दो सिंहों द्वारा रक्षित है।
भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा, इस मंदिर के मुख्य देव हैं। इनकी मूर्तियां, एक रत्न मंडित पाषाण चबूतरे पर गर्भ गृह में स्थापित हैं। इतिहास के अनुसार इन मूर्तियों की अर्चना मंदिर निर्माण से कहीं पहले से की जाती रही है। संभव है कि यह प्राचीन जनजातियों से भी पूजित रही हों। यहां दैनिक पूजा-अर्चनाएं होती हैं। यहां कई वार्षिक त्यौहार भी आयोजित होते हैं, जिनमें सहस्रों लोग भाग लेते हैं। इनमें सर्वाधिक महत्व का त्यौहार है-रथ यात्रा, जो आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितीया को जून या जुलाई में आयोजित होती है। इस उत्सव में तीनों मूर्तियों को अति भव्य और विशाल रथों में सुसज्जित होकर रथ यात्रा निकाली जाती है। आधुनिक काल में यह मंदिर काफी व्यस्त और सामाजिक एवं धार्मिक आयोजनों और प्रकार्यों में व्यस्त है। भगवान जगन्नाथ मंदिर का एक बड़ा आकर्षण यहां की रसोई है। यह रसोई भारत की सबसे बड़ी रसोई के रूप में जानी जाती है। इस विशाल रसोई में भगवान को चढ़ाने वाले महाप्रसाद को तैयार करने के लिए पांच सौ से ज्यादा रसोईए तथा उनके तीन सौ से अधिक सहयोगी काम करते हैं।
देहरादून में भी भगवान जगन्नाथ की भव्य रथयात्रा निकाली गई। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत श्रीदेवसुमन नगर में रथयात्रा में शामिल हुए और भगवान जगन्नाथजी से प्रदेश और प्रदेशवासियों की खुशहाली की कामना की। मुख्यमंत्री ने भगवान की पूजा अर्चना की और रथयात्रा के मार्ग की सफाई भी की। उन्होंने रथयात्रा में शामिल श्रद्धालुओं को बधाई देते हुए कहा कि भगवान की कृपा हम सभी पर बनी रहे, प्रदेश में अमन चैन बना रहे और हम सभी इसी प्रकार मिलजुलकर एक दूसरे के त्यौहारों को उत्साहपूर्वक मनाएं। मुख्यमंत्री ने कहा कि यह सुखद संयोग है कि आज ईद का मुबारक दिन भी है और भगवान जगन्नाथजी की रथयात्रा भी निकाली जा रही है। इस अवसर पर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय, विधायक हरबंस कपूर, गणेश जोशी और श्रद्धालु मौजूद थे।