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गुरु पूर्णिमाः जीवन में प्रकाश का पर्व!

शिक्षा के आदर्श और कीर्तिमान का ब्रह्म सत्य

गुरु की महिमा में ब्रह्मांड का ज्ञान छिपा है

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Friday 31 July 2015 03:28:41 AM

guru purnima

आज गुरू पूर्णिमा है। गुरु के महत्व को बताने के लिए ही आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पर्व मनाया जाता है। गुरु को भगवान से भी श्रेष्ठ माना जाता है। गुरु शब्द में ही अंधकार से प्रकाश की अनुभूति होती है। जिस प्रकार ऊँ में संपूर्ण ब्रह्मांड निहित है, उसी प्रकार गुरु की महिमा में ब्रह्मांड का ज्ञान छिपा है, जो गुरु के संपर्क में आने पर ही प्रस्फुटित होता है। गु का अर्थ है अंधकार और रु का अर्थ है प्रकाश। गुरु अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है, जीवन में सफलता के लिए उचित मार्गदर्शन करता है। गुरु, व्यक्ति और सर्वशक्तिमान के बीच एक कड़ी का काम करता है। भारतीय संस्कृति में आदिकाल से ही गुरु शिष्य परंपरा रही है, जो बिना किसी भेद और भाव के शिष्य को शिखर पर पहुंचने के लिए प्रेरित करती है। इसी परंपरा में गुरु को हमेशा से ब्रह्मा, विष्णु और महेश के समान पूज्य माना जाता है। आचार्य देवोभव: का स्पष्ट अनुदेश भारत की पुनीत परंपरा है। हमारे धार्मिक ग्रंथों में गुरु को भी भगवान की तरह सम्मानजनक स्थान दिया गया है। गुरु के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए आषाढ़ शुक्लपक्ष की पूर्णिमा को यह विशेष पर्व मनाया जाता है, जिसमें पूर्णिमा को पूजा का विधान अपनाया है।
सनातन धर्म के मनीषियों ने गुरु के प्रति नतमस्तक होकर कृतज्ञता व्यक्त करने का विधान बतलाया है और कहा है कि जैसे-जैसे मनुष्य के भीतर शिक्षा का प्रसार स्तर ऊंचा होता जाएगा, आज उसी गुरु-शिष्य का दिन है-गुरुपूर्णिमा। ब्रह्मांड में गुरु पूर्णिमा से बढ़कर किसी और तिथि को वह यश नहीं है। भौतिक सुख और सांसारिक सुख प्रदान करने के लिए अनेक तिथियां हैं, किंतु सर्वत्र सुखों का मार्ग बताने वाली केवल गुरु पूर्णिमा ही है। इस तिथि की सौम्य-सरलता को सभी ग्रहों का सहयोग प्राप्त है। यह स्वयं में पूर्ण है और जो पूर्ण हैं, वही दूसरों को पूर्णत्व की प्राप्ति करा सकता है। पूर्णिमा के चंद्रमा को देखकर जीवन में केवल प्रकाश चमकता नज़र आता है। चंद्रमा शिष्यों के अंत:करण में ज्ञान के चंद्र की आभा बिखेरता है। हमें यह ज्ञान गुरु से ही प्राप्त हुआ इसलिए हमें अपने गुरुजनों के चरणों में अपनी समस्त श्रद्धा अर्पित करनी चाहिए। गुरु पूर्णिमा व्यास पूर्णिमा भी कहलाती है। गुरु कृपा असंभव को संभव बनाती है, शिष्य के हृदय में अपार और अनंत ज्ञान का संचार करती है।
आषाढ़ शुक्ल एकादशी को देवशयनी एकादशी होती है। ऐसी मान्यता है कि देवशयनी एकादशी के बाद सभी देवी-देवता चार मास के लिए सो जाते हैं, इसलिए देवशयनी एकादशी के बाद पथ प्रदर्शक गुरु की शरण में जाना आवश्यक हो जाता है। परमात्मा की लीलाओं की ओर संकेत करने वाले गुरु ही होते हैं, इसीलिए गुरु की छत्रछाया से निकले कपिल, कणाद, गौतम, पाणिनी जैसे विद्वान ऋषि आदि अपनी विद्या वैभव के लिए आज भी संसार में प्रसिद्ध हैं। गुरुओं के शांत पवित्र आश्रम में बैठकर अध्ययन करने वाले शिष्यों की बुद्धि भी वहां के वातावरण के अनुकूल उज्ज्वल और उदात्त हुआ करती है। सादा जीवन-उच्च विचार गुरुजनों का ही मूल मंत्र है। तप और त्याग ही उनका पवित्र ध्येय है। लोकहित के लिए अपने जीवन का बलिदान कर देना ही उनकी शिक्षा का आदर्श है। इस दिन गुरु की पूजा करने तथा उनका आशीर्वाद प्राप्त करने का विशेष महत्व है। गुरु पूर्णिमा पर हम आपको कुछ ऐसे गुरुजनों के बारे में बता रहे हैं, जिन्होंने न सिर्फ गुरु के महत्व को प्रतिपादित किया, बल्कि समाज को ऐसे शिष्य दिए जो विश्व के लिए आदर्श बन गए। ये महान गुरुजन हैं-महर्षि वेदव्यास, महर्षि परशुराम, महर्षि गुरु वशिष्ठ, ब्रह्मर्षि विश्वामित्र, गुरु सांदीपनि, गुरु द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, आचार्य चाणक्य, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, महर्षि अरविंद, गुरु रबिंद्रनाथ टैगोर। अपने-अपने समय पर इन गुरुजनों ने समाज को शिक्षा-दीक्षा से जागृत किया है।
भगवान कहते हैं शब्दों में मैं ओंकार हूँ सभी मंत्रो, सभी मजहबों में ओंकार को विभिन्न भाषा और शैली में अपनाया गया है। मुसलमानों ने ओंकार को आमीन के रूप में अपनाया और सिक्ख भाईयों ने गुरु शब्द को सर्वाधिक सम्मान से महिमामंडित करके इसकी ख्याति बढ़ाई। ॐ नमो भगवते वसुदेवायः करके वैष्णवों ने ॐ नमः शिवायः करके शैवों ने इसे स्वीकार किया। ओंकार की महिमा सभी धर्मों ने और सभी संप्रदायों ने स्वीकार की है। संसार का जो रक्षण करता है, उस परब्रह्म का नाम स्वाभाविक रूप से ओंकार ही है, यह संसार को गति देता है और संसार सर्वकाल में विद्मान रहता है। वह प्रलय के बाद भी रहता है। वह सच्चिदानंद है, जिसको अकाल पुरुषवादी अकाल कहते हैं और सांख्यवादी उसे पुरुष कहते हैं। भगवतवादी उसे भगवान कहते हैं, प्रीतिवादी उसे प्रेमास्पद कहते हैं। उस परमेश्वर की स्वाभाविक ध्वनि ओंकार है। ओंकार अनहद है, जो टकराव से नहीं, बल्कि बेटकराव से सहज स्फुटित होता है। वह आत्मस्वरूप ब्रम्हा को विष्णु को शिव को देवी देवताओं को ऋषि मुनियों को यति-जोगियों को सामर्थ्य देता है। हम ऐसे गुरुजनों को हम प्रणाम करते हैं। हम व्यासों को प्रणाम करते हैं। व्यास पूर्णिमा के उत्सव निमित्त साधक को व्यास पूर्णिमा का व्रत करना चाहिए।

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