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जजों के पद सृजन की सम्यक नीति क्यों नहीं?

न्यायालयों में तीन करोड़ से अधिक मुकदमों का अंबार

विधि मंत्री से कड़े न्यायिक फैसले लेने की अपील

स्वतंत्र आवाज़ डॉट कॉम

Thursday 31 January 2013 06:20:22 AM

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नई दिल्ली। वरिष्ठ अधिवक्ता मनीराम शर्मा ने भारत के विधि एवं न्याय-मंत्री डॉ अश्विनी कुमार को एक पत्र लिखकर कहा है कि देश के न्यायालयों में बकाया तीन करोड़ से अधिक मुकदमों का अंबार उनके लिए चिंता का विषय होना चाहिए, किंतु मेरा निवेदन यह है कि इस अंबार के बकाया होने के मूल कारण पर पहले विचारण होना चाहिए। संपूर्ण भारत में मौलिक कानून संविधान, साक्ष्य अधिनियम, दंड प्रक्रिया संहिता, सिविल प्रक्रिया संहिता और भारतीय दंड संहिता- समान रूप से लागू हैं, अत: न्यायिक अनुशासन का सम्मान करते हुए देश के सभी न्यायालयों का कार्य निष्पादन लगभग समान होना चाहिए।
मनीराम शर्मा ने पत्र में लिखा है कि उच्चतम न्यायालय के आंकडों के अनुसार वर्ष 2011 में मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने 5000 प्रकरण प्रति न्यायाधीश की दर से निपटारा किया है और देश के सभी उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के कुल 900 पद हैं व उनमें 43,00,000 मामले बकाया हैं, यदि प्रति न्यायाधीश 5000 प्रकरणों का निपटान कर दिया जाए तो ये समस्त पुराने बकाया मामले मात्र एक वर्ष में और सभी मामले दो वर्ष में निपटाए जा सकते हैं। उन्होंने विधि एवं न्याय-मंत्री के संज्ञान में इस तथ्य का जिक्र किया है कि अधीनस्थ न्यायालयों में भी, केरल राज्य के न्यायाधीशों ने वर्ष 2011 में प्रति न्यायाधीश 2500 प्रकरणों का निस्तारण किया है और देश के सभी अधीनस्थ न्यायालयों में न्यायाधीशों के कुल 18000 पद हैं व 2,70,00000 मामले बकाया हैं, यदि प्रति न्यायाधीश को 2500 प्रकरणों का निपटान दिया जाए तो ये समस्त पुराने और नए मामले मात्र एक वर्ष से भी कम अवधि में निपटाए जा सकते हैं, किंतु खेद का विषय है कि स्वतंत्रता के 65 वर्ष बाद भी देश में अथवा किसी राज्य में न्यायाधीशों के पद सृजन के लिए कोई सम्यक नीति नहीं है।
पत्र में आकड़े प्रस्तुत करके ध्यान दिलाया गया है कि अमेरिका में प्रति व्यक्ति औसत आय 48000 डॉलर, उचित मजदूरी 15000 डॉलर और एक जिला न्यायाधीश का वेतन 25000 डॉलर प्रति वर्ष है, जबकि भारत में प्रति व्यक्ति औसत आय 36000 रुपए, न्यूनतम मजदूरी 72000 रुपए और एक जिला न्यायाधीश का वेतन 720000 रुपए प्रति वर्ष है। अमरीका में न्यायाधीशों का वेतन बहुत से अन्य सरकारी कर्मचारियों से कम है व उन्हें बढ़ी हुई मंहगाई राहत का भुगतान नहीं किया जा रहा है, जबकि भारत में न्यायाधीशों को सर्वोच्च वेतनमान दिया जा रहा है।
मनीराम शर्मा ने विधि एवं न्याय-मंत्री से कहा है कि आप असहमत नहीं होंगे कि भारतीय नागरिक अपनी जेब से न्यायाधीशों को न केवल अपनी क्षमता से अधिक भुगतान कर रहे हैं, बल्कि उनका शोषण हो रहा है। इस प्रकार भारत के न्यायालयों में आवश्यकता से बहुत अधिक न्यायाधीश हैं और न्याय प्रशासन के नाम पर देश का धन बर्बाद किया जा रहा है और उसका कोई दृश्यमान लाभ आम नागरिक को नहीं मिल रहा है। न्याय की वर्तमान व्यवस्था से आम व्यक्ति तो हताश है ही शक्तिशाली लोगों को भी इसमें कोई विश्वास नहीं है और वे अपनी जान व संपत्ति की सुरक्षा के लिए अपनी व्यक्तिगत ब्रिगेड रख रहे हैं।
अमेरिका की तुलना में भारत एक आध्यात्मिक एवं उन्नत सांस्कृतिक चिंतन वाला राष्ट्र है, जिसमें लोग ईश्वरीय सत्ता में विश्वास रखते हैं, पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित महानगरों को छोड़ दिया जाए तो, गांधीजी के शब्दों में, भारत आज भी गांवों का देश है। अमरीका में 60% से ज्यादा लोग अपनी रक्षा के लिए शस्त्र (लाइसेंस) रखते हैं, जबकि भारत में 2% से ज्यादा लोगों के पास शस्त्र (लाइसेंस) नहीं हैं। तदनुसार अमरीका में होने वाले अपराधों की प्रकृति एवं संख्या भी भारत से काफी भिन्न है, अत: भारत के न्यायविदों द्वारा प्रति लाख जनसंख्या पर न्यायाधीशों की संख्या की अमेरिका या अन्य देशों से तुलना करना उचित नहीं है।
वरिष्ठ अधिवक्ता ने इन तथ्यों के परिपेक्ष्य में विधि एवं न्याय-मंत्री सेसे निवेदन किया है कि वे देश के समस्त न्यायालयों के लिए उपरोक्तानुसार व्यवहारिक और आदर्श लक्ष्य व नीति निर्धारित करें व साथ ही व्यवस्था करें कि समस्त न्यायाधीश पूर्ण समय बैठकर  दक्षता से निष्ठापूर्वक कार्य करें, ताकि जनता को समय पर न्याय मिल सके, इस प्रकार लक्ष्य निर्धारण से भारत के अधिकांश न्यायाधीश और वकील रोज़गार हीन तो हो जाएंगे और न्यायाधीशों को पदोन्नति के लाले भी पड़ जाएंगे, वे एकजुट होकर इसका पुरजोर विरोध भी करेंगे, जिनसे उनको सावधान भी रहना है। उन्होंने विश्वास व्यक्त किया है कि केंद्रीय विधि मंत्री निर्भीक होकर जन-हित का ही पक्षपोषण करेंगे, उनकी इस कार्रवाई का संपूर्ण भारतीय गणतंत्र को उत्सुकता से इंतज़ार रहेगा।

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