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Saturday 26 December 2015 05:24:53 AM
हैदराबाद। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने आंध्र प्रदेश के आई-भीमवरम में तिरुमला तिरुपति देवस्थानम (टीटीडी) की वेदपाठशाला का उद्घाटन किया। राष्ट्रपति ने इस मौके पर कहा है कि वेद हमारी विरासत और संस्कृति के स्रोत हैं, उनसे ही हमारी मूल्यों की नींव पड़ी है। उन्होंने कहा कि वेदों में निहित विचार न केवल किसी व्यक्ति विशेष, समाज और राष्ट्र के लिए हैं, बल्कि वे विश्व बंधुत्व की भावना को प्रकट करते हैं, वेद हमें ज्ञान, बुद्धि और समझ प्रदान करते हैं। राष्ट्रपति ने कहा कि वेदपाठशालाएं वैदिक ज्ञान के लिए एक संस्थागत ढांचा उपलब्ध कराती हैं। उन्होंने वेदों की मौखिक परंपरा को संरक्षित करने के उपायों की शुरुआत और वैदिक शिक्षा को लोकप्रिय बनाने की खातिर अभिनव कार्यक्रम तैयार करने के लिए आंध्र प्रदेश सरकार और तिरुमला तिरुपति देवस्थानम को बधाई दी।
राष्ट्रपति ने वेदों का उल्लेख करते हुए उनके महत्व पर प्रकाश भी डाला। वेद प्राचीन भारत में रचित साहित्य हैं, जो प्राचीनतम और आधारभूत धर्मग्रंथ भी हैं। वे भारतीय संस्कृति में सनातन धर्म के मूल और सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं, जिन्हें ईश्वर की वाणी समझा जाता है। वेदों को अपौरुषेय (जिसे कोई व्यक्ति न कर सकता हो यानि ईश्वरकृत) माना जाता है तथा ब्रह्मा को इनका रचयिता माना जाता है। इन्हें श्रुति भी कहते हैं, जिसका अर्थ है 'सुना हुआ'। अन्य हिंदू ग्रंथों को स्मृति कहते हैं यानि मनुष्यों की बुद्धि या स्मृति पर आधारित। ये विश्व के उन प्राचीनतम धार्मिक ग्रंथों में हैं, जिनके मंत्र आज भी प्रयुक्त किए जाते हैं। 'वेद' शब्दसंस्कृत भाषा के 'विद्' धातु से बना है, इस तरह वेद का शाब्दिक अर्थ 'ज्ञान के ग्रंथ' हैं, इसी धातु से 'विदित' (जाना हुआ), 'विद्या' (ज्ञान), 'विद्वान' (ज्ञानी) जैसे शब्द आए हैं।
'चतुर्वेद' के रूप में ज्ञात वेद ग्रंथों का विवरण इस प्रकार है-ऋग्वेद सबसे प्राचीन वेद है, इसमें देवताओं के गुणों का वर्णन और प्रकाश के लिए मंत्र हैं-सभी कविता-छंद रूप में। सामदेव-इसमें यज्ञ में गाने के लिए संगीतमय मंत्र हैं। यजुर्वेद-इसमें कार्य, यज्ञ की प्रक्रिया के लिए गद्यात्मक मंत्र हैं। अथर्ववेद-इसमें गुण, धर्म, आरोग्य, यज्ञ के लिए कवितामयी मंत्र हैं। वेद के सबसे प्राचीन भाग को संहिता कहते हैं। वैदिक साहित्य के अंतर्गत सभी वेदों के कई उपनिषद, आरण्यक तथा उपवेद आदि भी आते हैं। इनकी भाषा संस्कृत है, जो वैदिक संस्कृत कहलाती है और लौकिक संस्कृत से कुछ अलग है। ऐतिहासिक रूप से प्राचीन भारत और हिंद आर्य जाति के बारे में वेदों को एक अच्छा संदर्भ माना जाता है। संस्कृत भाषा के प्राचीन रूप को लेकर भी इनका साहित्यिक महत्व बना हुआ है। वेदों को समझना प्राचीनकाल में भारतीय और बाद में विश्वभर में एक विवाद का विषय भी रहा है। इसको पढ़ाने के लिए छः उपांगों की व्यवस्था थी। प्राचीनकाल के जैमिनी, व्यास, पराशर, कात्यायन, याज्ञवल्क्य इत्यादि ऋषियों को वेदों का अच्छा ज्ञाता माना जाता है। मध्यकाल में रचित व्याख्याओं में सायण का रचा भाष्य बहुत मान्य है।
वेदों के बारे में यूरोप के विद्वानों का मत है कि हिंद आर्य जाति वेदों के इतिहास की जिज्ञासा से प्रेरित रही हैं। अठारहवीं सदी के उपरांत यूरोपियनों की वेदों और उपनिषदों में रूचि आने के बाद भी इनके अर्थों पर विद्वानों में असहमति बनी रही है। प्राचीनकाल से ही भारत में वेदों के अध्ययन और व्याख्या की परंपरा रही है। हिंदू धर्म अनुसार आर्षयुग में ब्रह्मा से लेकर जैमिनी तक के ऋषि-मुनियों ने इनके शब्द प्रमाण के रूप में माने हैं और इनके आधार पर अपने ग्रंथों का निर्माण भी किया है। ऋषि पराशर, कात्यायन, याज्ञवल्क्य, व्यास, पाणिनी आदि को प्राचीनकाल का वेदवेत्ता कहा जाता है। वेदों के विदित होने यानि चार ऋषियों के ध्यान में आने के बाद इनकी व्याख्या करने की परंपरा रही है। इसीके फलस्वरूप ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, इतिहास आदि महाग्रंथ वेदों के व्याख्यान स्वरूप रचे गए हैं। प्राचीनकाल और मध्ययुग में शास्त्रार्थ इसी व्याख्या और अर्थांतर के कारण हुए हैं। मुख्य शास्त्रार्थ देव, अग्नि, रूद्र, विष्णु, मरुत, सरस्वती जैसे शब्दों को लेकर हुए हैं। वेदवेत्ता महर्षिस्वामी दयानंद सरस्वती के विचार में ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान वेदों के विषय हैं। जीव, ईश्वर, प्रकृति इन तीन अनादि नित्य सत्ताओं का निज स्वरूप का ज्ञान केवल वेद से ही उपलब्ध होता है।
वेद की संहिताओं में मंत्राक्षरों में खड़ी तथा आड़ी रेखाएं लगाकर उनके उच्च, मध्यम या मंद संगीतमय स्वर उच्चारण करने के संकेत किए गए हैं। इनको उदात्त, अनुदात्त और स्वारित के नाम से अभिहित किया गया है। ये स्वर बहुत प्राचीन समय से प्रचलित हैं और महामुनि पतंजलि ने अपने महाभाष्य में इनके मुख्य-मुख्य नियमों का समावेश किया है। स्वरों को अधिक या न्यून रूप से बोले जाने के कारण इनके भी दो-दो भेद हो जाते हैं। जैसे उदात्त-उदात्ततर, अनुदात्त-अनुदात्ततर, स्वरित-स्वरितोदात्त। इनके अलावा एक और स्वर माना गया है-श्रुति। इसमें तीनों स्वरों का मिलन हो जाता है। इस प्रकार कुल स्वरों की संख्या सात हो जाती है। इन सात स्वरों में भी आपस में मिलने से स्वरों में भेद हो जाता है, जिसके लिए स्वर चिह्नों में कुछ परिवर्तन हो जाता है। यद्यपि इन स्वरों के अंकण और टंकण में कई विधियां प्रयोग की जाती हैं और प्रकाशक-भाष्यकारों में कोई एक विधा सामान्य नहीं है, अधिकांश स्थानों पर अनुदात्त के लिए अक्षर के नीचे एक आड़ी लकीर तथा स्वरित के लिए अक्षर के ऊपर एक खड़ी रेखा बनाने का नियम है। उदात्त का अपना कोई चिह्न नहीं है। इससे अंकण में समस्या आने से कई लेखक-प्रकाशक स्वर चिह्नों का प्रयोग ही नहीं करते। तिरुमला तिरुपति देवस्थानम में जाकर वेदों के महत्व का पता चलता है।