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Wednesday 4 May 2016 07:18:26 AM
लखनऊ। उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाईक ने डॉ राममनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान विधेयक 2015 और आईआईएमटी विश्वविद्यालय मेरठ, उत्तर प्रदेश विधेयक 2016 को राज्य विधानमंडल के दोनों सदनों को वापस भेज दिया है। राज्यपाल ने विधान परिषद के सभापति एवं विधानसभा अध्यक्ष को पत्र भेजकर कहा है कि दोनों विधेयकों के कतिपय प्राविधानों के विधायी औचित्य पर तथा उनमें समुचित संशोधन किए जाने की दृष्टि से राज्य विधानमंडल के दोनों सदनों द्वारा यथोचित समय पर पुनर्विचार किया जाए। राज्यपाल ने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को भी इस आशय का पत्र भेजा है।
राज्यपाल ने डॉ राममनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान विधेयक 2015 को वापस भेजते हुए कहा है कि विश्वविद्यालय जैसे उच्चतर अकादमिक संस्थान स्वायत्तशासी अकादमिक संस्थान माने जाते हैं, ताकि वह राजनीतिक एवं प्रशासनिक हस्तक्षेप आदि से मुक्त रहकर अपनी अकादमिक गतिविधियां संचालित कर सकें और अकादमिक स्टाफ आदि के चयन एवं नियुक्तियों में भी स्वायत्त रह सकें, परंतु संबंधित विधेयक में संस्थान की अधिकांश प्रशासनिक शक्तियां तथा निदेशक एवं अध्यापकों जैसे अकादमिक पदों पर अधिकारियों एवं कर्मचारियों की नियुक्तियों संबंधी अधिकांश शक्तियां संस्थान के अध्यक्ष उत्तर प्रदेश शासन के मुख्य सचिव में निहित कर दी गई हैं, जिससे संस्थान की एक विश्वविद्यालय के रूप में स्वायत्तता पूर्णतः प्रतिकूल रूप से प्रभावित हो जाती है।
राज्यपाल का कहना है कि डॉ राममनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान विधेयक 2015 की धारा-42 इस आशय का प्रावधान करती है कि इस विधेयक के अधिनियम के रूप में प्रवर्तित होने पर यदि इस अधिनियम के अधीन संस्थान द्वारा अपनी शक्तियों के प्रयोग और कृत्यों के निर्वहन में या उनके संबंध में कोई विवाद उत्पन्न हो तो प्रकरण अध्यक्ष यानी मुख्य सचिव को संदर्भित किया जाएगा और उस विवाद पर अध्यक्ष का निर्णय अंतिम होगा। इस प्रकार की नियुक्तियों के संबंध में अध्यक्ष का नियोक्ता होना और अपने ही द्वारा पारित किए गए नियुक्ति के आदेशों की वैधता को संदर्भ या अपीलीय प्राधिकारी के रूप में विनिश्चय किया जाना नैसर्गिक न्याय तथा विधि के सर्वमान्य सिद्धांतों के विपरीत है।
राम नाईक ने आईआईएमटी विश्वविद्यालय मेरठ, उत्तर प्रदेश विधेयक 2016 को भी पुनर्विचार हेतु वापस करते हुए कहा है कि इस विधेयक में भी प्राविधान है कि विश्वविद्यालय द्वारा लगातार तीन बार अधिनियम के उल्लंघन पर राज्य सरकार इसे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के पूर्व अनुमोदन से समाप्त कर सकती है, जबकि संवैधानिक संस्थान, राज्य विधानमंडल द्वारा लिए गए किसी विधायी निर्णय के क्रियांवयन हेतु उस पर अनुमति या अनुमोदन प्रदान करने की विधिक शक्ति विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम 1956 के अंतर्गत सामान्य विधिक संस्था, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को प्राप्त नहीं है। विधेयक की धारा 53 की उपधारा (3) समस्त स्तर के न्यायालयों, जिनमें उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय जैसे संवैधानिक न्यायालय भी सम्मिलित हैं, की संविधान प्रदत्त न्यायिक समीक्षा की शक्ति को छीन लेती है, जबकि न्यायालयों की न्यायिक समीक्षा का अधिकार भारत के संविधान की कई विशिष्टताओं में से एक विशिष्टता है।