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Saturday 7 May 2016 10:33:28 AM
लखनऊ। उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाईक ने उत्तर प्रदेश नगर निगम (संशोधन) विधेयक 2015, उत्तर प्रदेश नगरपालिका विधि (संशोधन) विधेयक 2015 और उत्तर प्रदेश लोक आयुक्त तथा उप लोक आयुक्त (संशोधन) विधेयक 2015 को भी निर्णय हेतु राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को संदर्भित कर दिया है। राज्यपाल ने इन विधेयकों के परीक्षण पर यह पाया है कि इन विधेयकों के कुछ प्रावधान बेहद आपत्तिजनक हैं। राज्यपाल ने कहा कि 74वें संशोधन द्वारा 1992 में संविधान में जोड़े गए अध्याय 9-ए के अनुच्छेदों 243-पी (म), 243-यू, 243-क्यू, 243-डब्ल्यू, 243-जेडएफ तथा अनुच्छेद 246 (3) के साथ पठित सप्तम अनुसूची की सूची 2 (राज्य सूची) की प्रविष्टि 5 के प्रावधानों, स्थानीय स्वशासन की अवधारणा और लोकतंत्र की भावना के भी प्रतिकूल हैं। ज्ञातव्य है कि राजभवन में 7 विधेयक परीक्षणाधीन थे, जिनमें से 5 का निस्तारण राज्यपाल ने कर दिया है।
उत्तर प्रदेश सरकार के कई विधेयक अब झगड़े में पड़ गए हैं। विधि विशेषज्ञों का कहना है कि निर्णय हेतु राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को संदर्भित किए गए इन विधेयकों में जो नए प्रावधान जोड़े गए हैं, उनके पीछे मनमानी है और वे इतने विवादास्पद और लोकतंत्र की भावना के प्रतिकूल माने जाते हैं कि राष्ट्रपति शायद ही उनका अनुमोदन करें। वैसे भी उत्तर प्रदेश सरकार का कार्यकाल पूरा होने को है, इसलिए हो सकता है कि राष्ट्रपति इस मामले में न पड़ें, क्योंकि इनपर गंभीर एतराज़ दाखिल हैं, जिनके विरुद्ध राष्ट्रपति का जाना सहज नहीं है, लिहाजा इन विधेयकों के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह है। उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री आज़म ख़ान के विभागों से इन विधेयकों का ज्यादा संबंध है और इनमें हुए संशोधनों को लेकर सरकार और राज्यपाल में गंभीर मतभेद हैं। बहरहाल।
राज्यपाल राम नाईक ने कहा है कि विधेयक द्वारा उत्तर प्रदेश नगर निगम अधिनियम, 1959 में नई धारा 16-ए जोड़ी गई है, जिसमें राज्य सरकार को यह अधिकार होगा कि नगर निगमों के महापौरों और नगर पालिकाओं के अध्यक्षों के विरूद्ध भ्रष्टाचार, निष्क्रियता, अधिकारियों और कर्मचारियों के साथ दुर्व्यवहार आदि किए जाने की शिकायतें मिलने पर राज्य सरकार महापौरों और अध्यक्षों को कारण बताओ नोटिस जारी करके उनका जवाब मांगेगी और उनके जवाब से संतुष्ट नहीं होने पर राज्य सरकार महापौरों और अध्यक्षों की समस्त प्रशासनिक व वित्तीय शक्तियों पर रोक लगा देगी और उनके पदों का प्रभार नगर निगमों के नगर आयुक्तों और नगर पालिकाओं के अधिशासी अधिकारियों को सौंप देगी। राज्य सरकार इसके बाद महापौरों और अध्यक्षों के विरूद्ध जांच बैठाएगी। इस जांच की प्रक्रिया क्या होगी और किसके द्वारा जांच की जाएगी, इसका कोई उल्लेख विधेयक में नहीं है।
उल्लेखनीय है कि 1992 में संसद द्वारा संविधान में अध्याय 9 एवं 9-ए जोड़े जाने का उद्देश्य पंचायतों, नगर निगमों और नगर पालिकाओं जैसी स्थानीय स्वायत्तशासी संस्थाओं के माध्यम से शासन-सत्ता के विकेंद्रीकरण और स्थानीय स्वशासन की अवधारणा को मजबूत करना था। राज्यपाल ने विधेयक में इस अधिनियम में जोड़ी जाने वाली नई धारा 16-ए के द्वारा राज्य सरकार को दिए गए इस आशय के अधिकार कि शिकायतों की जांच कराए जाने के पूर्व ही महापौरों और अध्यक्षों को दोषी घोषित कर देने और उन्हें उनके पदीय कर्तव्यों के निर्वहन से वंचित कर दिये जाने को, संविधान के 74वें संशोधन की भावना और सामान्य लोकतांत्रिक एवं नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों के विपरीत पाया है। इस दृष्टि से राज्यपाल ने उत्तर प्रदेश लोक आयुक्त तथा उप लोक आयुक्त (संशोधन) विधेयक 2015 को राष्ट्रपति को संदर्भित करने का निर्णय लिया है। राज्यपाल ने इनकी जानकारी मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को भी दे दी है।
उत्तर प्रदेश नगर निगम अधिनियम की धारा 15 (1) (क) इस बात का प्रावधान करती है कि नगर निगमों और उनके महापौरों दोनों का कार्यकाल 5 वर्ष का होगा और साथ-साथ समाप्त होगा। इसी प्रकार इस विधेयक में उत्तर प्रदेश नगर निगम अधिनियम 1959 में वर्तमान में विद्यमान धारा 107 के स्थान पर नई धारा 107 लाकर नगर निगमों और नगरपालिकाओं के कर्मचारियों की नियुक्ति और स्थानांतरण का अधिकार नगर निगमों व नगर पालिकाओं से छीनकर राज्य सरकार को दे दिया गया है। नई धारा 107 राज्य सरकार को नगर निगमों एवं नगरपालिकाओं के कर्मचारियों को दूसरे नगर निगमों और नगरपालिकाओं में स्थानांतरित करने का भी अधिकार देती है, जिससे पुनः स्थानीय स्वशासन एवं स्वायत्तशासी संस्थाओं के रूप में नगर निगमों और नगरपालिकाओं की स्वायत्ता प्रतिकूल रूप से प्रभावित होती है, जो संविधान के अनुच्छेद 309 एवं 74वें संविधान संशोधन के प्रावधानों और उसकी भावना के विपरीत है।
राज्यपाल राम नाईक ने उत्तर प्रदेश लोक आयुक्त तथा उप लोक आयुक्त (संशोधन) विधेयक 2015 को भी भारत के संविधान के अनुच्छेद 254 (2) के अंतर्गत राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित करते हुए राष्ट्रपति को संदर्भित किया है। राज्यपाल ने उत्तर प्रदेश लोक आयुक्त तथा उप लोक आयुक्त (संशोधन) विधेयक 2015 के परीक्षण के बाद कहा है कि राज्य विधानमंडल से पारित संशोधित विधेयक में लोक आयुक्त की चयन प्रक्रिया से मुख्य न्यायाधीश इलाहाबाद उच्च न्यायालय की भूमिका को समाप्त कर दिया गया है, जबकि केंद्रीय अधिनियम में लोकपाल के चयन में मुख्य न्यायाधीश उच्चतम न्यायालय की भूमिका महत्वपूर्ण है। लोक आयुक्त चयन प्रक्रिया में मुख्य न्यायाधीश इलाहाबाद उच्च न्यायालय की भूमिका को समाप्त करने से केंद्रीय अधिनियम लोकपाल तथा लोक आयुक्त अधिनियम 2013 की धारा-4 की उपधारा (1) के विरोधाभासी प्रतीत होता है।