Thursday 19 May 2016 11:08:28 AM
दिनेश शर्मा
नई दिल्ली। भारतीय जनता पार्टी ने विधानसभा चुनाव में बिहार और जम्मू-कश्मीर से अलग रणनीति अपनाई तो आज देश के संवेदनशील और भाजपा के लिए राजनीतिक रूप से सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण एवं पंद्रह वर्ष से कांग्रेस शासित पूर्वोत्तर राज्य असम में कमल खिल गया। भाजपा के पक्ष में असम के प्रचंड नतीजे ने तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल राज्य में जयललिता और ममता बनर्जी की फिर से उल्लेखनीय जीत का जश्न भी फीका कर दिया है। किसी को भी जिताओ, लेकिन भाजपा को हराओ 'मुसलमान कार्ड' असम में बुरी तरह विफल हुआ। तमिलनाडु में मुसलमान वोट जयललिता के एआइएडीएमके, करुणानिधि की पार्टी डीएमके एवं कांग्रेस को गया तो पश्चिम बंगाल में इन वोटों का विभाजन वामदलों और कांग्रेस से ज्यादा तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में हुआ। केरल में भी यही स्थिति रही और मुसलमानों के एक बड़े वर्ग ने एलडीएफ और यूडीएफ को वोट करके भविष्य के चुनावों में संकेत दे दिया है कि किसी को भी जिताओ, लेकिन भाजपा को हराओ। इसके बावजूद भाजपा का जन समर्थन बढ़ा ही है, इससे भाजपा इन चुनावों से भारी उत्साहित है और उसे आशा है कि असम में भाजपा की प्रचंड जीत बाकी राज्यों में होने वाले चुनाव में चमत्कार करेगी।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि भाजपा को यह गलतफहमी दूर कर लेनी चाहिए कि मुसलमान उसे वोट देगा, इसके बावजूद कि भाजपा मुसलमानों के लिए काम कर रही है और इस समाज में अपनी छवि बनाने की लगातार पूरी कोशिश कर रही है। भाजपा को कुछ स्थानों पर मुसलमान वोट मिलने के कुछ अपवाद अलग हैं, मगर आप माने या न मानें इन राज्यों के चुनावों में मुस्लिम वोटों का ट्रेंड नकारात्मक ही रहा है। एग्जिट पोल एवं टीवी चैनलों पर रंग-बिरंगे बहसियों ने इन चुनावों पर भले ही कुछ के कुछ तर्क दिए हों, किसी न किसी के लिए अभियान चलाए हों, किंतु मतदाताओं का एक वर्ग यह तय कर चुका है कि उसे भाजपा को वोट नहीं देना है, उसे भाजपा के खिलाफ इतना भरा जा रहा है कि वह अपना विवेक खोकर दूसरों के उकसावे में चल रहा है, उसे भाजपा विरोध की राजनीतिक भट्टी में धकेल दिया गया है, इसलिए उसके सामने सारे तर्क बेकार हो चुके हैं, लिहाजा भाजपा को इनकी गलतफहमियां दूर करना छोड़कर अपने परंपरागत वोट पर ध्यान देना होगा। देखा गया है कि तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में जैसे तय था कि चुनाव में भाजपा के खिलाफ एक जगह जयललिता और दूसरी जगह ममता बनर्जी के साथ चलेंगे, जबकि केरल में यह वोट यूडीएम और एलडीएफ को गया। पश्चिम बंगाल से वामपंथ का लगभग सफाया हो चुका है और जिस तरह भाजपा ने बंगाल में खाता खोला है, उससे लगता है कि आने वाले वर्षों में बंगाल में भाजपा और टीएमसी के बीच ही सीधे मुकाबला होगा।
बिहार चुनाव का जहां तक सवाल है, वह भी ऐसे ही सामाजिक न्याय और सांप्रदायिकता अभियान की चपेट में आया था, जिससे लालू यादव और नीतीश कुमार को सफलता मिली और भाजपा को नुकसान उठाना पड़ा। यदि लालू यादव एवं नीतीश कुमार का एकता का एजेंडा नहीं होता और नीतीश के सामने भाजपा का चेहरा होता तो लालू यादव और नीतीश कुमार को सत्ता की सफलता मिलना इतना आसान नहीं होता। तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल और केरल में भाजपा उल्लेखनीय रूप से अपना समर्थन बढ़ा चुकी है और जैसे-जैसे उसका प्रभाव बढ़ेगा, वैसे ही वर्ग विशेष के नकारात्मक मतदान का असर भी कम होता जाएगा। फिलहाल असम के युवाओं ने मुसलमान कार्ड धो दिया है और राज्यों के आगे होने वाले चुनावों में इसका असर साफ दिखाई देगा। यह दिखाई देगा कि मुसलमान कार्ड खेलने वाले या मुसलमानों को उकसाकर उनका वोट हांसिल करने वाले कैसे सत्ता से बाहर होते हैं और किस प्रकार सत्ता पाने के मंसूबे चकनाचूर होते हैं।
उत्तर प्रदेश के संदर्भ में यह बात अत्यधिक प्रासंगिक है, जहां मुसलमान वोटों के लिए सत्तारुढ़ समाजवादी पार्टी खुलेआम मुसलमानों का इस्तेमाल कर रही है और इनके वोट पाने के लिए किसी भी स्तर पर जाने को तैयार है। बसपा भी मुसलमान वोटों के लिए कोई भी कार्ड खेलने को तैयार है। कांग्रेस किसी तरह अपनी विधायक संख्या बचाने की कोशिश में है और भाजपा यूपी, उत्तराखंड, पंजाब में अगले साल होने वाले चुनाव में असम की प्रचंड जीत को भुनाने को बेकरार है। असम में जिस प्रकार भाजपा ने अपने केंद्रीय मंत्री सर्बानंद सोनोवाल को मुख्यमंत्री के रूप में पेश कर चुनाव लड़ा और प्रचंड सफलता हांसिल की, उसी प्रकार भाजपा के सामने उत्तर प्रदेश सहित सभी राज्यों में चेहरों को सामने लाने का भारी दबाव बढ़ गया है। भाजपा के सामने उत्तर प्रदेश में यही एक संकट है कि वह किसे आगे करे। आज चुनाव में सफलता युवाओं के हाथ में है, इन राज्यों के चुनावों में भी युवाओं की मुख्य भूमिका रही है, इसलिए उत्तर प्रदेश में भी युवा ही तय करेगा कि यहां किसकी सरकार हो।
भाजपा यूपी में किसी तेज़ तर्रार और लोकप्रिय युवा को लाती है तो यह भाजपा का एक सही फैसला होगा। उत्तर प्रदेश में फिलहाल सपा, बसपा या भाजपा को बहुमत मिलता नहीं दिख रहा है। कांग्रेस इस लाइन में कहीं नहीं है, भले ही कोई 'पीके' उसे 'कब्र' से निकालने के लिए बुलाए गए हैं। कुछ लोग कहते हैं कि बसपा आ रही है, लेकिन बसपा सत्ता में आ पाएगी यह दावे से नहीं कहा जा सकता, क्योंकि समाजवादी पार्टी यूपी में जितनी ताकत से चुनाव लड़ेगी, बसपा भी उतनी ही कमजोर होगी, लेकिन उत्तर प्रदेश की सत्ता से सपा का बाहर जाना तो निश्चित ही माना जाता है, इसका लाभ भाजपा उठा सकेगी, मगर तब जब उसके पास कोई युवा चेहरा हो। जहां तक चेहरे की बात है तो यूं तो कई राजनेता दावा करते घूम रहे हैं, जिनमे कुछ केंद्र में मंत्री हैं और कुछ संगठन में या अन्य जगहों पर विराजमान हैं, मगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को छोड़कर उन किसी में ऐसा करिश्मा नहीं है कि वह भाजपा को यूपी में सत्ता दिला सकें।
भाजपा के चेहरे के रूप में कई के नाम लिए जा रहे हैं और इनमें सर्वाधिक चर्चित नाम वरुण गांधी का है। वरुण गांधी को मुख्यमंत्री के रूप में पेश करने पर भाजपा राज्य के युवाओं को अपने पक्ष में करने में सफल हो सकती है। प्रदेश के अनेक राजनीतिज्ञों में ही एक बड़ा वर्ग ऐसा है, जो भाजपा के मुख्यमंत्री के रूप में वरुण गांधी के शासन को भी देखना चाहता है। भाजपा इस नाम पर क्या सोचती है, यह तो भाजपा हाईकमान ही बता सकता है, किंतु उत्तर प्रदेश में जनप्रतिक्रिया वरुण गांधी के ही पक्ष में दिखती है, यह अलग बात है कि भाजपा के कुछ नेता वरुण गांधी को लेकर असहज दिखा करते हैं। बहरहाल असम के चुनाव नतीजे ने भाजपा में जो उत्साह पैदा किया है, उसका असर पंजाब और उत्तराखंड पर भी पड़ेगा। उत्तराखंड में हरीश रावत सत्ता परिवर्तन की घटना को असम नतीजे ने प्रभावित कर दिया है। पंजाब में भाजपा और अकाली गठबंधन को फिर से वापसी की आशा मजबूत हो गई है, भले ही पंजाब में आप पार्टी अपना जनाधार बढ़ा रही है। उत्तर भारत के ये राज्य ऐसे हैं, जो राजनीतिक चमत्कार से प्रभावित रहते हैं और देश में कोई भी बड़ी राजनीतिक घटना इन राज्यों को प्रभावित किए बिना नहीं रहती।
राजनीतिक विश्लेषण करने वालों का अभिमत है कि तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में जिस प्रकार जयललिता और ममता बनर्जी ने वापसी की है, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पर भी चुनाव में जिताऊ प्रदर्शन का दबाव बढ़ गया है, मगर इनके लिए ऐसा प्रदर्शन आसान नहीं है। इनकी स्थिति एक ऐसे नेता की है, जिसे सावन के अंधे की तरह हरा-हरा ही नज़र आता है। ऐसी ही ग़लतफहमी इनके पिताश्री मुलायम सिंह यादव नेताजी को भी रही है और वे कभी भी सत्ता में लगातार रिपीट नहीं हुए। ये राष्ट्रीय नेता भी नहीं बन पाए। कल सैफई में अपने लोगों से कह रहे थे कि अच्छा हुआ कि मै प्रधानमंत्री नहीं बना वरना जनता से दूर हो जाता। सवाल है कि वे या उनके पुत्र अखिलेश यादव आज भी किस जनता से जुड़े हैं? ऐसा ही दबाव पंजाब एवं उत्तराखंड के मुख्यमंत्रियों प्रकाश सिंह बादल-सुखबीर सिंह बादल और हरीश रावत पर भी बढ़ गया है। देखना है कि आने वाले विधानसभा चुनावों में क्या गुल खिलते हैं और भाजपा असम चुनाव में प्रचंड जीत का कितना लाभ उठा पाती है। खासतौर से उत्तर प्रदेश में जिस पर देश की निगाहें और भाजपा की उम्मीदें टिकी हैं।
असम में भाजपा की इस शानदार जीत का श्रेय केंद्रीय खेलमंत्री सर्बानंद सोनोवाल को जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने असम में अपनी ग्यारह जनसभाओं में सर्बानंद सोनोवाल को असम के एक शानदार नेता के रूप में पेश किया, जिसका परिणाम है कि भाजपा असम की जीत पर जश्न में डूबी है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने तो असम नतीजे को भावी चुनावों में भाजपा की सफलता से ही जोड़ दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने पूर्वोत्तर के संवेदनशील राज्य असम में जो जीत हांसिल की है, वह भाजपा के लिए बड़ी मायने रखती है। यह जीत तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजों पर भारी पड़ गई है, जिसपर विपक्ष के मुंह से न उगलते बन रहा है और ना निगलते बन रहा है। भाजपा को क्या किसी भी दल को असम में ऐसी शानदार जीत की उम्मीद नहीं थी। असम के युवाओं ने न केवल सर्बानंद सोनोवाल का लक्ष्य भी पूरा कर दिया है, अपितु ऐसा बहुमत दे दिया है कि इससे भाजपा को देश के बाकी राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए जबरदस्त संजीवनी मिलेगी।
गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव में भाजपा ने असम में 14 में से सात सीटें जीती थीं, जिसका श्रेय सर्बानंद सोनोवाल को जाता है। सर्बानंद सोनोवाल अनुसूचित जनजाति के कछारी समुदाय से आते हैं। वह असम में लोकप्रिय और बेदाग़ छवि के नेता हैं। वह पहले असम गण परिषद में हुआ करते थे। वे 2011 में भाजपा में शामिल हुए। उन्होंने अभी तक शादी भी नहीं की है। वे असम के दूसरे आदिवासी मुख्यमंत्री होंगे। उनसे पहले 1979 में जोगेन हजारिका मुख्यमंत्री हुए हैं। असम में 54 प्रतिशत से ज्यादा ट्राइबल हैं। यहां असमिया भाषी अन्य समुदाय भी करीब 13 प्रतिशत है। असम में मुस्लिम मतदाताओं की आबादी करीब 35 प्रतिशत है। भाजपा की असम पर विजय मीडिया में छाई हुई है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का बयान बार-बार दिखाया जा रहा है कि भारत कांग्रेस मुक्त होने की तरफ बढ़ रहा है। पांच राज्यों के चुनाव परिणामों में सबसे ज्यादा फोकस असम पर दिख रहा है।