Monday 30 January 2017 05:16:41 AM
दिनेश शर्मा
लखनऊ। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में विजय प्राप्त करने के लिए अपने दम पर ही लड़ाई लड़नी होगी, क्योंकि इस लड़ाई में वे न केवल सामने सीना ताने खड़ी भारतीय जनता पार्टी और बहुजन समाज पार्टी से लड़ रहे हैं, बल्कि उनकी अपनों से भी लड़ाई है और भरोसा उस कांग्रेस का भी नहीं है, जो सपा से गठबंधन करके इस दोस्ती के कसीदे पढ़ रही है। लखनऊ के ताज होटल में कल अखिलेश यादव और राहुल गांधी की संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में जिन्होंने भी राहुल गांधी के श्रीमुख से मायावती और काशीराम की प्रशंसा सुनी होगी, वे भी समझ लिए होंगे कि ग्यारह मार्च को विधानसभा चुनाव के इस गठबंधन के प्रतिकूल परिणाम आने पर कांग्रेस का पता बदल भी सकता है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने जिस आत्मविश्वास से अखिलेश यादव से अपनी निजी मित्रता और भाजपा के सफाए के लिए गठबंधन की बड़ी आवश्यकता का बखान किया, उसमें उनका यह पैंतरा भी खुलकर सामने आ गया कि उन्हें हर हाल में उत्तर प्रदेश की सत्ता में आना है, चाहे उसका रास्ता सपा हो या बसपा। जगजाहिर है कि सत्ता के सपने को साकार करने के लिए सपा, कांग्रेस और बसपा के लिए उत्तर प्रदेश में मुसलमान एक कस्तूरी मृग की तरह है, जिसका आखेट करने के लिए ये तीनों उसके पीछे भाग रहे हैं और कहा नहीं जा सकता कि इस कस्तूरी मृग का क्या हस्र होगा। हां, इस चुनाव में अखिलेश यादव के लिए यह बड़ा संघर्ष है तो कांग्रेस की बल्ले-बल्ले दिखती है, बसपा को दलित-मुस्लिम से आस है तो भाजपा नरेंद्र मोदी और ध्रुवीकरण से यूपी में अपनी सरकार बनते देख रही है।
उत्तर प्रदेश में इस तरह सत्ता का घमासान अपने चरम की ओर बढ़ रहा है। सपा और भाजपा ने यूपी की जनता के सामने अपने-अपने घोषणापत्र सुना दिए हैं। इन्हें पूरा करने के लिए भारीभरकम रकम कहां से आएगी, इस सवाल का संतोषजनक उत्तर इन दोनों में से किसी के पास नहीं है। नरेंद्र मोदी और भाजपा को किसी भी तरह से रोकने के लिए सपा, बसपा, कांग्रेस का एक सा अभियान है, जिसमें समाजवादी पार्टी साम्प्रदायिक ताकतों को रोकने और अपने पांच साल की उपलब्धियों के आधार पर वोट मांगने निकली है तो बहुजन समाज पार्टी मुसलमानों को भाजपा से डराकर सामाजिक न्याय के सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय के नारे के साथ चुनाव मैदान में है। कांग्रेस का निशाना केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं, जिनपर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी हमेशा हमलावर रहते हैं, इसमें इनका एक नया लक्ष्य जुड़ गया है-यूपी में किसी भी तरह सत्ता में भागीदारी। उत्तर प्रदेश में उन्हें सपा का साथ मिल गया है, जिससे अब समझा जा रहा है कि यही गठबंधन भाजपा का माकूल जवाब होगा, मगर मुलायम परिवार में विवाद के कारण मुसलमान का झुकाव बसपा की ओर भी दिखाई दे रहा है, जिसमें यह तथ्य उल्लेखनीय है कि मुसलमान और दलित गठजोड़ सपा-कांग्रेस और भाजपा के सपनों को चकनाचूर कर सकता है। मुसलमानों के लिए कुछ पेंच फंसे हैं जैसेकि मायावती किसी भी स्तर पर भरोसे की राजनेता नहीं मानी जाती हैं, वे सत्ता में आकर जातिगत वैमनस्यता फैलाती हैं, भाजपा से मिल जाती हैं, टिकट बेचती हैं और भ्रष्टाचार में लिप्त रहती हैं। इस पर विश्लेषण के लिए उनका चार बार का मुख्यमंत्री कार्यकाल सबके सामने है, उन्होंने दलित समाज के लिए भी अनुकरणीय कार्य नहीं किए हैं, तथापि दलित समाज इसी पर संतोष कर हाथी पर मुहर लगाता है कि उनकी बहनजी मुख्यमंत्री बनेंगी।
बसपा अध्यक्ष मायावती की कार्यशैली और उत्तर प्रदेश के वृहद संदर्भ में उनकी राजनीतिक रणनीतियों का यहां संक्षिप्त उल्लेख करना खासतौर से प्रासंगिक है। भारत के उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य में सामाजिक और जातीय राजनीति से समृद्धशाली, किंतु अत्यंत साधारण परिवार से गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि की सौ दो सौ साल में ऐसी दो-चार राजनेता ही जन्म लेती हैं, जिन्हें ईश्वर का इतना विशिष्ट और शानदार सामाजिक एवं राजनीतिक उत्तरदान प्राप्त होता है, मायावती भी उनमें एक हैं। हर कोई मानता है कि बसपा के संस्थापक अध्यक्ष काशीराम से उन्हें राजनीति में स्थापित होने के लिए वह अवसर मिले हैं, जो बहुतों के लिए दुलर्भ हैं और जिनके सदुपयोग से वे प्रदेश और देश की राजनीति को स्वच्छ राजनीतिक दिशा दे सकती थीं, जो दूसरों के लिए भी अनुसरण की प्रेरणा बन सकती थीं। मायावती को अपने दलित समाज का निर्णायक वोट किसी को भी हस्तांतरित कर देने की ताकत हांसिल रही है, यदि उनकी सही राजनीतिक दिशा होती तो उत्तर प्रदेश में राजनीति में अपराधीकरण और माफियागिरी समूल नष्ट हो गई होती, उत्तर प्रदेश शानदाररूप से अपने वैभव पर वापस आ गया होता और एक समय बाद कदाचित यह भी सुनने को मिलता कि भारत की प्रधानमंत्री मायावती! मगर मायावती अपनी विवादास्पद कार्यशैली और भ्रष्ट सिंडिकेट से घिरकर न केवल अपने प्रधानमंत्री पद के दावे से दूर चली गईं, यूं कहिए कि उन्होंने अपना यह दावा खत्म कर लिया, बल्कि उन्होंने उस दलित समाज को भी भारी निराश किया, जो उनमें अपना शानदार भविष्य खोज रहा था। वे दलित समाज को एक अनुकरणीय लीडरशिप देने में विफल मानी जाती हैं।
गौरतलब है कि एक समय ऐसा भी आया है, जब मायावती को विश्वसनीय रूप से देश के प्रधानमंत्री मटेरियल के रूप में देखा और माना गया। उन्हें देश की आयरन लेडी तक कहा गया, जबकि उत्तर प्रदेश के धरतीपुत्र कहलाने वाले और उनके प्रमुख राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी समाजवादी पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव को उनके सामने राजनीतिक पराजय का सामना करना पड़ा। भारतीय जनता पार्टी ने ही मायावती को पहली बार उत्तर प्रदेश राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया और मायावती ने अटल बिहारी वाजपेयी से वादा करने के बावजूद लोकसभा में उनकी सरकार के खिलाफ मतदान किया, जिससे अटल सरकार गिर गई। यह मायावती का वह बड़ा धोखा था, जिसे देश का हर राजनीतिक दल आज भी याद रखता है और जिसमें मायावती की विश्वसनीयता खत्म हो चुकी है। भाजपा ने मायावती को समर्थन देकर अपना भारी नुकसान किया है, जिसमें मायावती नेता बन गईं और उत्तर प्रदेश में भाजपा सड़क पर आ गई। दो हजार चौदह के लोकसभा इलेक्शन में भाजपा ने मायावती से इसका बदला ले लिया और दलित वोट हांसिल कर मायावती का लोकसभा से सफाया कर दिया। ऐसा ही हाल सपा और कांग्रेस का भी हुआ। मायावती की भारी पराजय की टीस उनके बयानों और भाषणों में साफ दिखाई देती है। वे इस सत्ता संघर्ष में फंसी हैं, चुनाव में मुसलमानों को रिझाने के लिए उनके निशाने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं, जिनके चलते मायावती की राष्ट्रीय राजनीति में वापसी आसानी से संभव नहीं लगती। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मायावती को केवल दलित-मुस्लिम गठजोड़ से सत्ता की आस है और यदि यह फार्मूला फेल हुआ तो मायावती अपने दलित वोटबैंक को भी शायद ही संगठित रख पाएं, भले ही उन्होंने दलित आरक्षण का मुद्दा जोरशोर से उछाल रखा है।
मायावती सपा और कांग्रेस गठबंधन से भी भयग्रस्त हैं। उन्हें डर है कि उत्तर प्रदेश में यह गठबंधन कहीं मुसलमान की पहली प्राथमिकता न बन जाए। ऐसा हुआ तो मुस्लिम वोटों का विभाजन उनका सारा खेल बिगाड़ देगा। जबतक सपा-कांग्रेस गठबंधन नहीं हुआ था, तबतक हर कोई कह रहा था कि मायावती की सत्ता में वापसी हो रही है, मगर सपा-कांग्रेस गठबंधन होने से समीकरण उनके प्रतिकूल हो गए हैं। इन समीकरणों के चलते इस विधानसभा चुनाव में त्रिशंकु विधानसभा के आसार नज़र आ रहे हैं और कांग्रेस का जहां तक सवाल है तो वह इसमें भी अपना फायदा देख रही है। कांग्रेस ने सपा से गठबंधन में मिली अपने हिस्से की एक सौ पांच विधानसभा सीटों पर पूरी ताकत झोंकते हुए उसमें देशभर के दिग्गज कांग्रेसी प्रचारक उतार दिए हैं और उनका ध्यान सर्वप्रथम इन्हीं सीटों पर है। सपा-कांग्रेस गठबंधन के कारण मुसलमानों की प्राथमिकता कांग्रेस में भी बंट गई है और बसपा कहीं पहली कहीं दूसरी और कहीं तीसरी प्राथमिकता पर दिखाई दे रही है। सपा और बसपा ने ही मुसलमानों को सर्वाधिक टिकट भी दिए हैं। बसपा इस बार सभी मुस्लिम प्रत्याशियों को अपने निर्णायक दलित वोट दिला पाएगी, इसमें भी संशय है, क्योंकि रिज़र्व सीटों पर बसपा का प्रदर्शन कभी अच्छा नहीं रहा, भले ही दलित समाज मायावती को फिर से मुख्यमंत्री बनाना चाहता है। भाजपा ने किसी मुसलमान को टिकट नहीं दिया है, इसलिए भाजपा को ऐन वक्त पर बड़े ध्रुवीकरण की आशा है, जिसका ज्यादा नुकसान सपा के बजाय बसपा को हो सकता है, बसपा की यह एक बड़ी चिंता है, इसमें नोटबंदी के कारण धन का अभाव भी अपना असर दिखा रहा है, क्योंकि सपा के पास धन की कोई कमी नहीं है, जबकि बसपा को टिकटों से आए पैसे का ही सहारा है।
अखिलेश यादव के साथ बाकी जो विवाद हों, मगर एक सच्चाई सभी मानते हैं कि अखिलेश यादव ने अपने में एक क्वालिटी लीडरशिप विकसित की है, जो यूपी में किसी और दल में नहीं दिखती। इस चुनाव में सपा के पक्ष में यह भी सच्चाई दिखती है कि युवाओं का एक तबका अखिलेश से जुड़ा है जिसे यह उम्मीद है कि अगली बार अखिलेश की सरकार अच्छा कार्य करेगी। सपा-कांग्रेस गठबंधन में सपा की चुनावी रणनीतियों में एक खास तथ्य पर भी गौर कीजिएगा जो उल्लेखनीय है। बसपा से जो लोग चुनाव लड़ रहे हैं, उनमें बहुत से ऐसे हैं, जो विभिन्न दलों से आए हैं या जो बसपा के रास्ते राजनीति में कदम रख रहे हैं। इनमें बहुत से ऐसे भी हैं, जो अभी तक समाजवादी पार्टी में थे और अब बसपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं, कुछ ऐसे भी बताए जाते हैं, जिनकी बसपा में रणनीति के तहत घुसपैठ कराई गई है, जिन्हें बसपा ने टिकट भी दिया है। इनके बारे में यह कहा जाता है कि वे समय आने पर सपा के लिए अपनी भूमिका और प्रतिभा का प्रदर्शन करेंगे। बसपा यदि सत्ता के आंकड़े तक नहीं पहुंच पाई तो उसके साथ कुछ भी हो सकता है। इसमें भी कांग्रेस को फायदा नज़र आ रहा है। कांग्रेस को यूपी में सत्ता की भागीदारी चाहिए, इसीलिए वह सपा के साथ आई है और सत्ता के करीब पहुंचने में सपा के बजाय बसपा का प्रदर्शन अच्छा रहा तो सपा का पूरा प्लान फेलकर वह तुरंत अपना पता बदल सकती है, यानी बसपा के साथ भी जा सकती है। अखिलेश यादव और राहुल गांधी की संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में राहुल गांधी ने मायावती की दिल खोलकर तारीफ करने का कार्ड यूं ही नहीं चलाया है। फिलहाल कांग्रेस की पहली प्राथमिकता अपनी वर्तमान सीटों से दुगनी करने की है, कांग्रेस की इस विधानसभा में उनतीस सीटें थीं, जिनमें से कुछ लोग दूसरे दलों में जा चुके हैं, किंतु कांग्रेस ने सपा से गठबंधन करके अपनी स्थिति पहले से ज्यादा सुदृढ़ करने की कोशिश की है। इन सभी गैर भाजपाई दलों को एक बड़ी आशा यह है कि भाजपा को नोटबंदी का नुकसान होगा, जिसका लाभ उनको मिलेगा। अखिलेश यादव, राहुल गांधी और मायावती का तो यही कहना है कि भाजपा का वोट उससे नाराज़ है।
भारतीय जनता पार्टी का दावा है कि वह तीन सौ पैंसठ से लेकर तीन सौ सीटें जीतकर उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार बनाने जा रही है। भाजपा बहुत उत्साहित है और उसने भी अपने घोषणा पत्र में लगभग वैसे ही वादे किए हैं, जैसे सपा के हैं। दोनों ही दल तीन-तीन सौ सीटें जीतने की बात कर रहे हैं। बसपा ने कोई घोषणा पत्र जारी नहीं किया है, बसपा अध्यक्ष मायावती का कहना है कि उनका घोषणा पत्र में यकीन नहीं है, मगर वह पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने जा रही हैं। सपा के पास अखिलेश यादव मुख्यमंत्री का चेहरा हैं तो बसपा के पास मायावती चेहरा हैं। भाजपा ने कोई चेहरा पेश नहीं किया है। भाजपा के पास चेहरे हैं भी तो वह उजागर करके किसी गुटबाज़ी को बढ़ाना नहीं चाहती है। भाजपा केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर चुनाव मैदान में है और बहुमत मिलने पर हाईकमान जो तय करेगा वही चेहरा होगा। भाजपा से पूछा जा रहा है कि यूपी विधानसभा में उसके तीन सौ के पार के गणित का क्या आधार है तो उसके जवाब में नरेंद्र मोदी, विकास और भ्रष्टाचार के मुद्दे होते हैं। इससे पता चलता है कि उत्तर प्रदेश में पूरी भाजपा नरेंद्र मोदी की पीठ पर बैठकर चुनाव में उतरी है और नरेंद्र मोदी, विकास और ध्रुवीकरण उसके प्रमुख चुनावी मुद्दे हैं। बच्चा-बच्चा जानता है कि उत्तर प्रदेश में सपा, कांग्रेस, बसपा और भाजपा के बीच यह चुनाव तू-तू मैं-मैं, जातिवाद और ध्रुवीकरण पर है, वास्तव में विकास कहीं भी गंभीर मुद्दा नज़र नहीं आ रहा है, इसमें भाजपा को बड़ी सफलता मिल सकती है, ग्यारह मार्च को फैसला आ जाएगा।