मृत्युंजय दीक्षित
Wednesday 22 March 2017 02:07:41 AM
मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोय जैसे भजनों से कृष्णभक्तों को सराबोर कर देने वाली महान कवयित्री और कृष्णभक्त मीराबाई का जन्म राजस्थान में संवत 1504 यानी 23 मार्च 1498 को जोधपुर के कुरकी गांव में राव रतनसिंह के घर हुआ था। हिंदी में रसपूर्ण भजनों को जन्म देने का श्रेय मीरा को ही है। मीरा बचपन से ही श्रीकृष्ण की दीवानी हो गई थी। मीरा जब तीन वर्ष की थी, तब उसके पिता का और उनके दस वर्ष बाद माता का देहावसान हो गया। मीरा के जीवन के लिए यह बहुत बड़ा सदमा था। कहा जाता है कि जब वह बहुत छोटी थी, तब उसने एक विवाह समारोह में अपनी मां से प्रश्न किया कि मेरा पति कौन है, तब उनकी मां ने कृष्ण की प्रतिमा के सामने इशारा करके कहा था कि यही तुम्हारे पति हैं। मीरा ने इसे ही सच मानकर श्रीकृष्ण को अपने मन मंदिर में बैठा लिया और अपने शब्दों में लिखा कि मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोय।
माता-पिता के देहावसान के बाद मीरा अपने दादा राव दूदाजी के पास रहने लगी थी। कुछ समय बाद उनके दादाजी का भी स्वर्गवास हो गया और राव वीरामदेव गद्दी पर बैठे। उन्होंने मीरा का विवाह चित्तौड़ के प्रतापी राजा राणा सांगा के पुत्र भोजराज से कर दिया। वह ससुराल में भी अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण की मूर्ति ले जाना नहीं भूली। मीरा और भोजराज का वैवाहिक जीवन सुखपूर्वक व्यतीत हो रहा था, उनके जीवन में एक और वज्रपात होना शेष था और दस वर्ष में ही मीरा के पति भोजराज चल बसे। पति के निधन के बाद मीरा पूरी तरह से कृष्णभक्ति में लीन हो गई। मीरा की श्रीकृष्णभक्ति की चर्चा सर्वत्र फैल चुकी थी। मीरा श्रीकृष्ण मंदिरों में भक्तों के सामने सुधबुध खोकर नाचने लगती थी। उसकी इस प्रकार की भक्ति से ससुराल वाले नाराज रहने लगे। कई बार उन्होंने मीरा को विष देकर जान से मारने की कोशिश की, लेकिन वह टस से मस नहीं हुई और अंतत: परिवार के सदस्यों से व्यथित होकर मथुरा-वृंदावन चली गई।
मीरा जहां भी जाती थी, उसे लोगों का प्यार और सम्मान मिलने लगा था। मीरा की रचनाओं को चार ग्रंथों नरसी का माजरा, गीतगोविंद की टीका, रागगोविंद के पद के अलावा मीराबाई की पदावली, राग सोरठा नामक ग्रंथों में संचयित किया गया है। मीरा की भक्ति में माधुर्य भाव काफी है। मीरा ने अपने बहुत से पदों की रचना राजस्थानी मिश्रित भाषा में की है। मीरा की भक्ति और लोकप्रियता दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी, लेकिन साथ ही उसके चित्तौड़ पर विपत्तियों का ढेर लगते जा रहे थे। राणा सांगा के हाथ से राजपाट निकल चुका था और अंततः एक युद्ध में उनकी भी मृत्यु हो गई। मीरा के श्रीकृष्ण प्रेम के वशीभूत द्वारिका चली गई थी। राणा सांगा की मृत्यु के बाद मेवाड़ के लोग मीरा को वापस लाने के लिए द्वारिका गए। मीरा आना तो नहीं चाहती थी, लेकिन जनता का अनुरोध वह टाल नहीं सकी। वह विदा लेने के लिए जब रणछोर मंदिर गई और श्रीकृष्ण भक्ति में तल्लीन हुई तो उसी तल्लीनता में उसका शरीर छूट गया और 1573 ईस्वी में द्वारिका में ही श्रीकृष्ण की दीवानी मीरा की जीवनलीला समाप्त हो गई।