Thursday 6 April 2017 03:44:08 PM
हृदयनारायण दीक्षित
विश्व प्रत्यक्ष है, लेकिन समूचा विश्व अभी देखा या जाना नहीं जा सका। प्रकृति का बहुत बड़ा भाग अज्ञेय है। प्रकृति में अनेक रहस्य भी हैं। सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए हमारे पास शब्द ही विकल्प हैं। हम शब्दों में ही विश्व का वर्णन करते हैं। पौराणिक अनुभूति में शब्द को ब्रह्म कहा गया है। ब्रह्म प्रकृति सृष्टि की संपूर्णता का पर्याय है। इस संपूर्णता का जितना भाग जाना गया है, उतने ही हिस्से के रूपों और भावों के लिए शब्द है। मोटे तौर पर विश्व के प्रत्येक रूप या भाव के लिए भाषाओं में शब्द हैं। हरेक शब्द का अर्थ होता है। शब्द वाह्य काया है, अर्थ उसका आंतरिक अस्तित्व। आधुनिक संचार तकनीक से शब्दों की गति बढ़ी है। शब्द भाग रहे हैं, हांफ रहे हैं। ट्विटर पर तुरंता शब्द अभिव्यक्ति है। एसएमएस का क्या कहना? शब्द की वर्तनी भी बदल रही है। फेसबुक पर भिड़ंत है। लिखा-लिखी का युग है। बेशक शब्दों में प्रीति है। प्रीतिरस भी है, लेकिन हिंसक भिड़ंत का दौर है।
टेलीविजन पर भागते चित्र हैं, लेकिन शब्द शब्द कोलाहल। अधविच में विज्ञापन या विज्ञापनों के बीच सूचनाएं। क्या इन्हें ही 'समाचार' कहें? क्यों कहें इन्हें समाचार? समाचार 'सम-आचार' क्यों नहीं हैं? सम आचार से भिन्न घटना ही क्यों समाचार है? कुत्ता आदमी को काटे तो समाचार नहीं। आदमी कुत्ते को काटे तभी समाचार क्यों? सृजन क्यों समाचार नहीं बनते? ध्वंस की सूचना ही क्यों शीर्षक बनती है? सूचना और ज्ञान में भारी अंतर है। सूचना अपने आप में स्वयंपूर्ण नहीं होती। सूचना का सदुपयोग ही मूल्यवान होता है। सूचना के उपयोग का निर्णय करने के लिए ज्ञान विवेक चाहिए। आधुनिक विज्ञान के पास सूचनाओं के अंबार हैं, लेकिन सूचनाओं के लोकमंगलकारी उपयोग वाला विवेक कम है। आतंकी संगठन आईएस मानवता विरोधी है। यह सूचना विश्वव्यापी है। दुनिया ने इस सूचना का क्या सदुपयोग किया? दिल्ली बलात्कार की घटना को समाचार माध्यमों ने राष्ट्रव्यापी बनाया। बीबीसी जैसे अंतर्राष्ट्रीय समाचार माध्यम ने इस सूचना का दुरूपयोग किया। क्या कारण है कि शब्द सृजन का उपकरण नहीं है?
अराजक यौन सम्पर्क के आंकड़े हैं। महिलाओं को लज्जा छोड़ने की प्रेरणा है। भारत की कुछेक पत्रिकाएं जब-कब विवाह पूर्व के यौन सम्बंधों या ऐसे ही विषयों पर आंकड़े देती हैं। उनका सर्वेक्षण आतंकित और आहत करता है। महिलाओं के प्रति सम्मानजनक दृष्टिकोण रखने वालों के साक्षात्कार नहीं होते है। यौन स्वच्छंदता के आंकड़े प्रतिष्ठित मीडिया के लिए सुयोग्य समाचार क्यों नहीं हैं? स्वाइन फ्लू की सूचनाएं आईं। इस सूचना से भय और दहशत ही बढ़ी, सूचना का सदुपयोग नहीं हुआ। तथाकथित सोशल मीडिया 'पापुलर' हो रहा है। अंग्रेजी शब्द पापुलर का उपयोग मैंने जानबूझ कर किया है। यहां 'पापुलर' का अर्थ लोकप्रियता नहीं है। मीडिया माध्यम है। सामाजिक होना इसकी बाध्यता है। पत्र-पत्रिकाएं या इलेक्ट्रानिक तरंगों वाले सूचना चैनल भी सामाजिक हैं, लेकिन आश्चर्य है कि तुरंता प्रतिक्रियाओं को सोशल मीडिया कहा जाता है। पूरे परिश्रम के साथ तैयार की गई छपी पत्र-पत्रिकाओं या इलेक्ट्रानिक चैनलों की सामग्री के साथ सोशल विशेषण नहीं लगता। माध्यम या मीडिया का मूल अर्थ ही मध्यस्थ है। मध्यस्थ यानी योजक, वार्ताकार। मध्यस्थ तटस्थ हो तो अच्छा है, लेकिन मध्यस्थ के लिए 'सत्य, शिव और सुंदर' की प्रतिबद्धता जरूरी है। सोशल मीडिया की टिप्पणियां जब-कब भारतीय शील का उल्लंघन करती हैं। यहां शब्द संकोच है, तर्क तथ्य संकोच भी है, लेकिन तुरंता हड़बड़ी में मर्यादा रेखा का अतिक्रमण होता है।
शब्द भिड़ंत आहतकारी ज्यादा है, मध्यस्थ बहुत कम है। विश्वास है कि आगे इसकी अंतर्वस्तु भारतीय शील के भीतर ही नृत्य मगन होगी। सर्वमंगल की निष्ठा लोकतंत्र में भारतीय आदर्श है। भारतीय मीडिया ने स्वाधीनता संग्राम में राष्ट्रभाव गाया। राष्ट्रनिष्ठ के उत्कृष्ट मूल्य स्थापित किए। वह अंग्रेजी सत्ता से लड़ा। तटस्थ होकर नहीं, योद्धा की तरह। भारत का मन अर्जुन था उस समय। मीडिया ने स्वाधीनता संग्राम में भारत के मन अर्जुन का रथ हांका। बताया कि युद्ध का कोई विकल्प नहीं। मीडिया युद्ध में था, चोटहिल भी हुआ, लेकिन इससे भी बड़ी बात थी कि हमारे मीडिया ने अंग्रेजी संस्कृति पर भी धावा बोला, भारत को एक विशेष संस्कृति वाला राष्ट्र भी बताया। गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में 'इंडियन ओपीनियन' अख़बार निकाला। अख़बार का महत्व बताया कि जो लोग भारत से यहां आए, बस गए, उन्हें भारतीय परंपरा का ज्ञान देना इस अख़बार का उद्देश्य है। भारत भारतीय शील, परंपरा, ज्ञान, विवेक और विश्व कल्याण की चेतना के कारण ही भिन्न राष्ट्र है। इसी विचार को तत्कालीन भारत का मन बनाया था मीडिया ने। हमारे मीडिया ने ही। यही विचार हजारों बरस पहले से भी हमारी स्थायी निधि है।
विश्व अखंड इकाई है। यह प्राचीन भारतीय अनुभूति है। संप्रति विज्ञान सिद्ध भी। मनुष्य सहित सारे घटक इसके अंग हैं। इनमें मधुप्रीति, मधुरीति जरूरी है। ऋग्वेद (1.90.6-8) में भारत के मन की मधुमय प्यास है-मधुवाता ऋतायते मधुक्षरन्ति सिंधवा: वातायन मधुर, गति मधुर, जल मधुर, धरती की रजकण मधुर, सर्वत्र मधु, माधुर्य और मधुमयता ही हो। अथर्ववेद (अ0 9) में अभीप्सा है-हम सार संग्रही हों, तेजस्वी बात भी मधुरता के साथ कहें, हम मधुर हों, मधुरता उत्पन्न करें, मधुरता का पोषण करें, मधुरता की समृद्धि भी करें, अर्थात मधुजनिषीय मधुवंशिषीय। हमारे सारे कर्मो का लक्ष्य मधुरिम मनुष्य ही है। वृहदारण्यक उपनिषद् (अ0 2) में याज्ञवल्क्य ने मूल तत्व समझाया कि पृथ्वी सभी तत्वों का मधु है और सभी तत्व इस पृथ्वी के मधु। वायु, आकाश, दिशाएं भी मधु हैं। यह धर्म और सत्य इन सभी तत्वों का मधु हैं, लेकिन यह मनुष्य सभी भूतों का मधु है। मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति ही मीडिया कर्म का ध्येय है।
भारत का मीडिया भारतीय अनुभूति के परमसत्य और मूल आधार से जुड़ा रहा है। हमारा मीडिया तमाम सुविधाओं से लैस भी है, लेकिन चुनौतियां बड़ी हैं। सूचनाओं के अम्बार में लोकहित की सूचना का चयन हो कैसे? तमाम तरह के निहित स्वार्थी दबावों की भी चुनौती है। हमारे मीडिया की तुलना दुनिया के अन्य देशों से होती है। मैं व्यक्तिगत रूप से इस तुलना का विरोधी हूं। यहां के मीडिया कर्म में श्लील अश्लील की मर्यादा है। पारदर्शिता और नग्नता एक नहीं होते। भारतीय लोकजीवन संस्कृति और परंपरा से संचालित होता है। राजव्यवस्था सामाजिक गतिशीलता का कारक तत्व नहीं है। अंग्रेजी मीडिया और भारतीय भाषाओं के मीडिया में भी भाषाई संस्कार के अंतर, स्वाभाविक हैं। प्रिंट मीडिया के कुछेक बड़े प्रतिष्ठान चिंतित हैं कि भविष्य में उनकी पाठक संख्या घट सकती है, लेकिन ऐसा नहीं होगा। सांस्कृतिक संयम और मर्यादा को निःसंदेह खतरा है। पारदर्शिता के नाम पर नग्नता और सत्य के नाम पर अभद्रता बढ़ने की संभावनाएं हैं, लेकिन आशावाद के भी कई कारण हैं। लोकजीवन की संस्कृति निष्ठा मीडिया को प्रेमपाश में बांधे रहेगी, मीडिया अपने दायित्व निर्वहन में लोकमन के साथ होगा। लोकमंगल अभीप्सु होना राष्ट्र कर्त्तव्य भी है। (इस लेखन संपदा के धनी हृदयनारायण दीक्षित संप्रति उत्तर प्रदेश विधान सभा के अध्यक्ष हैं)।