Friday 28 April 2017 04:42:19 AM
हृदयनारायण दीक्षित
जीवन रहस्यपूर्ण है, इसलिए इसपर प्रतिपल प्रश्न उठते हैं। कार्य और कारण के सम्बंध खोजे जाते हैं। वैज्ञानिक दृष्टि का आधार कार्यकरण है भी। हरेक कार्य का कारण होता है। कारण भी अकारण नहीं होता। माना जाता है कि संसार कार्यकरण की श्रृंखला है। वैदिक पूर्वज प्रकृति को सनातन मानते रहे हैं। प्रकृति शून्य से नहीं बनी। शून्य से कुछ भी नहीं बनता। प्रश्न प्राचीन है कि क्या सृष्टि किसी अदृश्य सत्ता का कार्य है? वृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य और गार्गी के प्रश्नोत्तर हैं। याज्ञवल्क्य उस समय के प्रख्यात दर्शनवेत्ता थे। गार्गी ने कई प्रश्न पूछे, हरेक कार्य का कारण पूछा। उन्होंने प्रत्येक कार्य के कारण बताए। अंतिम उत्तर था कि कार्यकरण की श्रृंखला में अंतिम कारण ब्रह्म है। गार्गी ने पूछा कि तब ब्रह्म का कारण क्या है? याज्ञवल्क्य किंचित क्रोध में आए और बोले यह अति प्रश्न है, ब्रह्म का कारण नहीं होता। अनुत्तरित प्रश्न है कि क्या ब्रह्म अकारण है? ब्रह्म संपूर्णता है, हम संपूर्ण को सदा से स्थित और सनातन मानते जानते आए हैं। संपूर्णता अराजक नहीं हो सकती। संपूर्णता के भीतर के सभी अंश कार्यकरण से जुड़े हुए हैं, लेकिन संपूर्णता के कारण की जानकारी अब तक अज्ञेय है। प्रश्नाकुलता स्वाभाविक ही है।
हम संपूर्णता का कारण जानने के लिए उत्सुक हैं। यह विषय विज्ञान का है और दर्शन का भी। ज्ञान की यह यात्रा भौगोलिक नहीं है। प्रतिपल प्रत्यक्ष है। संपूर्ण अनुभूति में संपूर्णता से परिचय होता है। संपूर्णता सत्य है, परम है। नाम तरह-तरह के हैं। छांदोग्य उपनिषद् में जिज्ञासु नारद को सनत् कुमार ने संपूर्णता का नाम 'भूमा' बताया। ऋग्वेद के पहले मंडल में इसी संपूर्णता का नाम अदिति है। यह सदा से है, सदा रहती है, यह वर्तमान में है, भूतकाल में थी और भविष्य में भी सतत् प्रवाहमान रहेगी। ऋग्वेद के ही दसवें मंडल में इसी संपूर्णता का नाम पुरूष है, यह पुरूष विराट है। प्रत्यक्ष जगत को भीतर बाहर से आच्छादित करता है और अप्रत्यक्ष अज्ञेय को घेरकर भी बचा रहता है। पुरूष अतीत में था, वर्तमान में है, भविष्य में भी रहेगा। ईशावास्योपनिषद् का 'ईशावास्य' भी संपूर्णता है। तुलसी के सीताराम भी संपूर्णता हैं-सीय राम मय सब जग जानी। हम सब भूमा, अदिति, पुरूष ईशावास्य या सीय राम मय नाम की संपूर्णता में हैं। हम एक अंश हैं, लेकिन अविभाज्य। वृहदारण्यक के ऋषि ने बताया है कि यह सब पूर्ण है। उस पूर्ण से यह पूर्ण प्रकट हुआ है। पूर्ण में पूर्ण घटाओ तो पूर्ण ही बचता है।
प्रश्नाकुल मन इस सबसे शांत नहीं होता। भारत का लोक जीवन प्रश्नाकुल ही रहा है। प्रश्न बेचैन करते हैं, उनके उत्तर में पूरक प्रश्न जन्म लेते हैं। प्रश्न उपयोगी हैं। ज्ञान यात्रा के महत्वपूर्ण उपकरण हैं प्रश्न। यजुर्वेद के ऋषि ने प्रश्नों को देवता कहा है। प्रश्न देवता हैं भी। प्रश्न जिज्ञासा के पुत्र हैं और ज्ञान के पिता भी। आश्चर्य नहीं कि भारत का सारा प्राचीन ज्ञान प्रश्नों से ही मिला, प्रश्नों में ही खिला, इसलिए भारतीय ज्ञानदर्शन में प्रश्नों की महत्ता है। गीता में सभी दर्शनों का मेला है। यहां सांख्य है, भक्ति है, कर्मयोग है, बुद्धि की महत्ता है। प्रकृति है, भगवत्ता है। इन सब पर अर्जुन के प्रश्न हैं और श्रीकृष्ण के उत्तर। गीता रम्य ग्रंथ है। युद्धभूमि में हुए प्रश्नोत्तर में भोजन जैसे विषयों पर भी प्रश्न हैं। 'अध्यात्म' शब्द का चलन बहुत पुराना है। प्रश्न है कि अध्यात्म क्या है? किम् अध्यात्मं। श्रीकृष्ण का उत्तर है स्वभाव ही अध्यात्म है-स्वभावों अध्यात्म उच्यते। गीता में आया स्वभाव वाह्य आचरण नहीं है, स्वभाव हमारा केंद्र है और आचरण हमारी परिधि, इसलिए स्वभाव और आचरण भिन्न-भिन्न हैं। स्वभाव बुरा नहीं होता, आचरण ही भला या बुरा हो सकता है।
स्वभाव हमारा अंतस् छंद्स है। आचरण सामाजिक व्यवहार है। स्वभाव सांस्कृतिक तत्व है और आचरण सभ्यता की अभिव्यक्ति। प्रश्न तो भी बने रहते हैं। कठोपनिषद् में युवा नचिकेता और विद्वान यम देव के प्रश्नोत्तर हैं। नचिकेता के तीखे प्रश्नों से प्रसन्न यम ने कहा है कि हे नचिकेता हमें ऐसे ही प्रश्नकर्ता प्रतिदिन मिलें। भारतीय लोकजीवन में प्रश्नाकुल लोगों की बहुलता है। पूछते हैं आप कैसे हैं, क्या आप स्वस्थ हैं? आदि। ऐसे प्रश्न सामान्य हैं। रेल, बस या वायुयान का समय पूछना भी प्रश्न है, लेकिन अल्पकाल में ही उपयोगी है। संसार किसने बनाया? संसार का केंद्र क्या है? आदि प्रश्न वैदिक ऋषियों की जिज्ञासा रहे हैं? नचिकेता ने यम से पूछा था कि मरने के बाद क्या होता है? क्या जीवन समाप्त हो जाता है? या जीवन का प्रवाह जारी रहता है, यम ने इस प्रश्न के उत्तर में नचिकेता से कहा कि इस पर देवों में भी मतभेद हैं। देवों में मतभेद थे कि नहीं, लेकिन तत्कालीन समाज में मतभेद अवश्य ही रहे होंगे। ऐसे मतभेद सुंदर और प्रीतिकर हैं। प्रश्न आपूरित मन जिज्ञासु बना रहता है और जिज्ञासा का अंतिम छोर है पूर्ण ज्ञान।
भारतीय इतिहास का उत्तर वैदिककाल प्रश्नधर्मा है। भारत के कोने-कोने से छह विद्वान कश्मीर पहुंचे, यहां पिप्पलाद का आश्रम था, विद्वानों ने जीवन जगत से जुड़े प्रश्न पूछे, पिप्पलाद ने उनके उत्तर दिए, इसी प्रश्नोत्तर का संकलन है प्रश्नोपनिषद्। केनोपनिषद् में भी तमाम जिज्ञासाएं हैं और अनेक प्रश्न। दोनों उपनिषदों का पुर्नपाठ सुंदर अनुभव है। यहां अनेक प्रश्न हैं। वे हमारे प्रश्न हैं और हरेक जिज्ञासु के भी। प्रश्नाकुलता का यह प्रवाह रामायण और महाभारत तक फैला हुआ है। रामायण में उदार और प्रश्नाकुलता है, लेकिन महाभारत की प्रश्नाकुलता बड़ी पैनी है। इसी महान आख्यान और काव्य में यक्ष प्रश्न हैं। हमारे लोकजीवन में जटिल प्रश्नों को यक्ष प्रश्न कहने का चलन है। यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर मन तृप्त नहीं करता। एक प्रश्न है कि आकाश से ऊंचा क्या है? युधिष्ठिर का उत्तर है कि पिता आकाश से ऊंचा है। ऋग्वेद में आकाश पिता है। यक्ष प्रश्नों में पिता आकाश से भी ऊपर है। यहां पिता को अतिरिक्त सम्मान दिया गया है। एक प्रश्न है कि पृथ्वी से भारी क्या है? उत्तर है कि माता पृथ्वी से भारी है। वेदों में पृथ्वी माता है। यक्ष प्रश्न में माता धरती से भी भारी है। माता-पिता का सम्मान आवश्यक है। यक्ष प्रश्न रमणीय हैं।
तमाम प्रश्न जटिल भी होते हैं। यक्ष प्रश्नों की सूची में सर्वाधिक विख्यात प्रश्न ध्यान देने योग्य हैं। यक्ष ने पूछा मार्ग क्या है? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया वेदवचन भिन्न-भिन्न। ऋषि अनेक। तर्क का सामर्थ्य कम। धर्म तत्व गुहा में है। महाजनों द्वारा अपनाया मार्ग ही उचित है। प्रश्न है कि महाजन किसे कहें? यक्ष ने यह बात नहीं पूछी। प्रश्न और भी हैं। धर्म तत्व गुहा में क्यों छुपा है? धर्म तत्व है क्या? शांति पर्व में युधिष्ठिर प्रश्नकर्ता हैं और भीष्म उत्तरदाता। यहां अर्थनीति, राजनीति और समाजनीति से जुड़े प्रश्न हैं और भीष्म के उत्तर। प्रश्न परंपरा से ही भारत का लोकजीवन जनतंत्री है। हम भारत के लोगों ने किसी अन्य सभ्यता या संस्कृति से लोकतंत्र नहीं सीखा, हमारी संसद और विधानमंडलों में प्रश्न प्रहर की वरीयता है। मैं इस अवसर का लाभ उठाता रहा हूं। मैं प्रश्नाकुल रहता हूं। मैं स्वयं से भी प्रश्न किया करता हूं कि मैं क्यों हूं? मेरी गति और दिशा क्या है? क्या मैं ही अपने सुखों और दुखों का जिम्मेदार नहीं हूं। वेद वचन समाधान नहीं देते? संशय बने रहते हैं। प्रश्नों का व्याप बड़ा है। प्रश्न है कि मैं करूं तो क्या करूं। प्रश्नों को नमस्कार करता हूं।