Wednesday 05 June 2013 10:59:57 AM
गिरीश पंकज
छत्तीसगढ़ की यह रिपोर्ट चौंकाती है और व्यथित भी करती है, कि पिछले पांच सालों में यहां के लगभग पांच हजार लोग लापता हो चुके हैं। ये लोग कहां हैं, किस हाल में हैं, कोई नहीं जानता। ग्रामीण और आदिवासी जन की तो और बुरी हालत है। खास आदमी या उसके परिजन जब कभी लापता होते हैं, तो पूरा सरकारी तंत्र सक्रिय हो जाता है, लेकिन जिनके आगे-पीछे कोई नहीं होता, उनके लापता होने की रिपोर्ट भी एक दिन लापता हो जाती है। हालत यह है, कि पुलिस का गुमशुदगी दस्ता ही खुद लापता स्थिति में है। यह तंत्र ही कुछ ऐसा है, कि उसकी आम लोगों के जीने-मरने के सवाल पर कोई खास रुचि नहीं रहती।
रोजी-रोटी के लिए काम पर जाने वाले बहुत-से लोग कमा-खा कर एक दिन लौट आते हैं, लेकिन इन्हीं लोगों में बहुत-से अभागे ऐसे भी हैं जो जीवनरूपी बरमूड़ा त्रिकोण में जाकर ऐसे फंसते हैं, कि उनका पता भी नहीं चलता, कि आखिर कहां चले गए। छत्तीसगढ़ में पलायन स्थाई दर्द है। इसे छत्तीसगढ़ की अस्मिता से भी जोड़ कर देखें और सोचें, कि बाहर के लोगों को यहां के मजदूर सस्ते क्यों लगते हैं? दिल्ली जाता हूं, तो वहां हमारे मित्र एकाध बार यह जरूर कहते हैं, कि भाई, घर के लिए नौकर चाहिए और सुना है छत्तीसगढ़ में सस्ते में मजदूर मिल जाते हैं। जरा देखो तो? यह सुन कर बुरा लगता है, कि छत्तीसगढ़ की कितनी गलत छवि बनी हुई है। मैं उसका प्रतिवाद करता हूं, लेकिन माफिया लोग यहां के मजदूरों को बहला-फुसला कर ले ही जाते हैं। बाहर जाने के बाद वे केवल भगवान भरोसे ही रहते हैं। युवतियों के साथ क्या होता है? यह सब को पता है, लेकिन जो लोग पुरुष हैं, उनका हश्र भी क्या होता है, यह समझ से परे है। हां, वे बंधुआ मजदूरी के शिकार होते हैं, या फिर प्रतिरोध करने की स्थिति में एक दिन सदा के लिए शांत कर दिए जाते हैं।
ये कुछ ऐसे मामले हैं जिनसे गम्भीर सवाल खड़े होते हैं, जिनकी पड़ताल करना जरूरी है। छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक ने वादा किया है, कि वे अपने मिसिंग स्क्वॉड को और मजबूत करेंगे। लेकिन कब तक? खाक हो जाएंगे हम तुमको खबर होने तक। फसल कटाई के बाद यहां के बहुत से किसान-मजदूर खाली हो जाते हैं। तब मानव दलाल अपने धंधे में लग जाते हैं। कुछ दलाल राज्य के ही होते हैं तो कुछ बाहर के। यानी घर को आग लग रही है घर के चिरागों से। हो क्या रहा है, यहां से ले जाए जाने वाले लोग बाहर जाकर कुछ दिनों तक तो अच्छी कमाई करते हैं, लेकिन बाद में वे बंधुआ मजदूरों जैसी स्थिति में पहुंच जाते हैं। बाहर की दुनिया देखने की ललक भी यहां के मजदूर-किसानों को पलायन के लिए मजबूर कर देती है। इसी भावना का दोहन करने वाले दलाल चूकते नहीं हैं और मोटी रकम के लालच में यहांके श्रम को बाहर बेचने में सफल हो जाते हैं।
छत्तीसगढ़ के मजदूरों को बाहर ले जाए जाने वाले एक गिरोह का पिछले साल पर्दाफाश हुआ था, जब एक गिरोह गांव के बहुत-से लोगों को कंटेनर में भर कर ले जा रहा था। देह व्यापार के लिए यहां की लड़कियों की तस्करी का मामला भी उजागर हो चुका है। अगर पिछले पांच सालों में लापता महिलाओं की संख्या बारह हजार पार कर गई है, तो मतलब साफ है, कि यहां की स्त्री-शक्ति का गलत इस्तेमाल हो रहा है। इसके पहले भी टुकड़े-टुकड़े में ऐसे कुछ मामले सामने आते रहे हैं। गोवंश की तस्करी भी आए दिन पुलिस की और सामाजिक कार्यकर्ताओं की पकड़ में आती रहती है। मतलब यह है कि मानव से लेकर पशुओं तक की तस्करी एक सिलसिला लगातार जारी है। अब यह बहुत जरूरी हो गया है कि राज्य की सीमा की जांच चौकी से गुजरने वाली हर परिवहन गाड़ी की सावधानी के साथ जांच हो। ऐसा होने पर एक पंथ कई काज सिद्ध होंगे। कभी हम कत्ल के लिए ले जाने वाली गायों की तस्करी रोक सकेंगे, तो कभी काम के नाम पर शोषण के लिए ले जाए जाने वाले मजदूरों की तस्करी को भी रोकने में सफल हो सकेंगे।
गांव-गंवई की भोली-भाली लड़कियों की तस्करी भी बड़े पैमाने पर होती है। इसके लिए साक्षरता अभियान की तरह जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत है। गांव के लड़के-लड़कियों को समझाने की जरूरत है कि वे दिल्ली-मुंबई या और किसी महानगर की चकाचौंध में न पड़ें और अपनी मिट्टी में ही रमे रहें, क्योंकि सबसे अच्छा अपन छत्तीसगढ़ ही है। हां!, पढ़-लिख कर बेहतर काम-धाम के लिए बाहर जाने में कोई दिक्कत नहीं हैं, लेकिन केवल काम पाने के लिए बाहर जाना और वहां जाकर अपना शारीरिक शोषण करवाना गलत है। अनेक घटनाएं पहले भी घटित हो चुकी हैं। यहां के मजदूर बाहर जाकर केवल पछताते रहे हैं। यहां के बहुत-से बंधुआ मजदूरों को शोषकों के चंगुल से कई बार आजाद कराया गया है। छत्त्त्तीसगढ़ को अभी तक याद है कि कश्मीर में काम करने वाले अनेक मजदूर आतंकवादियों की गोलियों का शिकार हो जाते हैं और अपनी जान से हाथ धो बैठे थे। यानी यहाँ के श्रमिक कभी आतंकवाद के शिकार हो जाते हैं तो कभी शोषण के स्थायी शिकार बन कर रह जाते हैं।
कितनों का अता-पता ही नहीं चलता। अब ऐसे लोगों की संख्या हजारों में पहुंच चुकी है। मजदूरों की तस्करी और छत्तीसगढ़ से बाहर जाने वाले मजदूरों या अन्य लोगों के लापता होने के प्रश्न पर यहां के लोगों की यह चिंता स्वाभाविक ही है। सरकार को शीघ्र ही छत्तीसगढ़ के गांव-कस्बों से होने वाली मानव तस्करी को रोकने के लिए एक कार्य योजना जरूर बनानी चाहिए। माना कि ट्रेनों और प्लेनों के सहारे हो रही दैहिक तस्करी को रोक पाना कुछ कठिन होता है, मगर सड़क मार्ग से मानव-तस्करी को तो आसानी से पकड़ा जा सकता है। बहुत से मजदूर वैधानिक तरीके से काम पर ले जाए जाते हैं। इसके लिए अनुबंध भी होता है, लेकिन ज्यादातर मामले में सब कुछ अवैध ढंग से चलता रहता है। अवैध रूप से बाहर ले जाए जाने वाले लड़के-लड़कियों का पता नहीं चल पाता। स्थानीय स्तर पर पंचायत और नगर निकायों की मदद से मानव तस्करी के इस कुचक्र को रोका जा सकता है।
छत्तीसगढ़ का मजदूर-किसान या यहां की प्रतिभा बाहर जाए, मगर शान से। छत्तीसगढ़ के बहुत से लोग देश-विदेश में यहां का नाम रौशन कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ को लेकर बाहर यह संदेश नहीं जाना चाहिए कि सस्ते और टिकाऊ मजदूर चाहिएं तो चलो छत्तीसगढ़। कहना न होगा कि यहां के लोग भोले-भाले जरूर हैं, मगर शोषकों के लिए वे वक्त पडऩे पर भाले भी बनते हैं। छत्तीसगढ़ की इसी अस्मिता को बचाने की जरूरत है। यहां काम के इतने अवसर विकसित किए जाने चाहिएं कि गांव के बेरोजगार मजदूर-किसानों को बाहर का मुह ही न ताकना पड़े। यह तभी संभव होगा, जब सरकार पलायन को नक्सलवाद की तरह एक गंभीर मुद्दा मान कर चलेगी या फिर बाहर जाकर साजिश रुपी बरमूड़ा त्रिकोण में फंस जाने वाले निरीह लोगों का पता लगाने के लिए पुलिसिया तंत्र को और मजबूत करेगी। मिसिंग दस्ते में नई भर्तियां हों। यह भी सुनिश्चित कर दिया जाए कि अगर किसी गांव से कोई मजदूर-किसान लापता होता है, तो उसकी जिम्मेदारी संबंधित थाने की होगी।
मतलब यह कि इच्छा शक्ति हो तो पलायन रुक सकता है और इसके साथ ही रुक सकता है लोगों के लापता होने का यह अंत हीन और दुखद सिलसिला जोकि छत्तीसगढ़ जैसे विश्व प्रसिद्ध ऐतिहासिक राज्य को कहीं न कहीं शर्मशार करता है। यहां के सामाजिक संगठनों और राजनीतिक दलों के लिए यह एक चुनौती है कि वे विश्व भर में अपने राज्य के बारे में उन गलत धारणाओं को खत्म करने के लिए गम्भीर पहल करें क्योंकि अकेले पुलिस और प्रशासन के पास ही सारी सामाजिक और शोषणात्मक समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता है क्योंकि समाज पुलिस प्रशासन और न्याय व्यवस्था एक दूसरे के कोटिपूरक हैं और जब भी उनका संतुलन बिगड़ता है तो घर टूटता है, समाज टूटता है, देश टूटता है और वह व्यवस्था टूट जाती है जिससे हम सबकी जीवन शैली अनुशासन और समृद्धि जुड़ी है।