Wednesday 05 June 2013 11:01:01 AM
डा सीमा जावेद
नई दिल्ली। जलवायु परिवर्तन को आज मानवता के लिए सबसे बड़ा खतरा माना जा रहा है। माह दिसम्बर 2009 में ही डेनमार्क, कोपेहेगन में होने वाले अन्तर्राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन समझौते को इसे रोकने की दिशा में मील के पत्थर के रूप में देखा जा रहा है। धरती की सतह पर बढ़ते तापमान को दो डिग्री सेंटीग्रेड से कम रखने के लिए पूरे विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय शासकीय, आर्थिक और शैक्षिक स्तरों पर इसे लेकर विचार-विमर्श हो रहे हैं। ऐसे में कोपेहेगन समझौते में यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि दुनिया की सभी देशों की सरकारें, ऊष्मा उत्सर्जन में कमी करने के प्रति वचनबद्ध हैं। वर्ष 2015 तक विश्व में ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन को तेजी से कम करते हुए शून्य के जितना करीब हो सके लाया जाए तब ही जाकर इस विनाशक स्थिति से निपटा जा सकता है। जलवायु असंतुलन की भयावह चपेट में भारत को भी अपने बचाव के लिए विशेष इंतजाम करने हैं। यूएन सम्मेलन के बाद जी-20 देशों के नेता पिटसबर्ग और पेनसिल्वेनिया जाएंगे जहां विकासशील देश जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए औ़द्योगिक जगत से आर्थिक मदद के रूप में सहयोग हासिल करेंगे।
पर्यावरण संरक्षण की दिशा में काम कर रहे सभी देशों के अनेक स्वयं सेवी संगठन, ट्रेड यूनियनें और विश्वसनीय समूह इसे रोकने के लिए विश्व के राजनैतिक नेतृत्व पर दबाव बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं। कुछेक दशकों से भारत और चीन जैसी तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाओं के कार्बन उत्सर्जन में भी तेजी आई है। वस्तुत: ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन करने वाले देशों में अमरीका सबसे ऊपर है और चीन और भारत जैसे विकासशील देशों का नंबर क्रमश: दूसरा और पांचवा है और ये दोनों विश्व के सबसे अधिक कार्बन स्राव वाले देशों में आते हैं। जहां एक ओर इस अन्तर्राष्ट्रीय बैठक से विश्व स्तर पर 'जलवायु संतुलन' पर बहस की शुरूआत होगी, वहीं दूसरी ओर इस बहस में भारत सरकार के लिए देश में विभिन्न सामाजिक-आर्थिक समूहों के बीच संयुक्त और साथ ही अलग-अलग जिम्मेदारियों के सिद्धान्त को लागू करने का मामला सामने आएगा। विकसित देश वर्ष 1990 के मुकाबले वर्ष 2020 तक अपने उत्सर्जन में 40 प्रतिशत कटौती करें। इनमें से तीन चौथाई घरेलू होने चाहिए। अभी तक भारत सरकार ने यह तर्क दिया है कि यूरोप संघ के 25 राज्यों, 10.5 टन और संयुक्त राज्य अमरीका 23 टन की तुलना में उसका औसतन प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन कम है। प्रति व्यक्ति 2 टन से कम। इस तर्काधार पर भारत जीवाश्म ईंधन प्रेरित आर्थिक विकास के रास्ते पर चल रहा है। यदि संयुक्त और साथ ही अलग-अलग जिम्मेदारियों के सिद्धान्त की बात करें तो, विकास के प्रति भारत का दावा बनता है और इस प्रकार उसे विकसित देशों से कार्बन क्षेत्र सृजित करने की मांग करते हुए जीवाश्म ईंधन से और अधिक ऊर्जा का उपभोग करने का अधिकार है। इस तर्क में यह बात निहित है कि विकसित देशों को अपने कार्बन उत्सर्जन के स्तर में तत्काल पर्याप्त कमी लाने की आवश्यकता है तभी विकासशील देश अभी भी पृथ्वी को जलवायु असंतुलन के गर्त में धकेले बिना अपने कार्बन उत्सर्जन में वृद्धि कर सकते हैं।
परंतु इस समय भारत, परस्पर विरोधी दो कटु वास्तविकताओं के बीच फंसा है। एक ओर तेजी से बढ़ता अमीर उपभोक्ता वर्ग है जिसने भारत को विश्व में 12वां सबसे बड़ा खर्चीला बाजार बना दिया है, दूसरी ओर भारत में इस धरती के 800 मिलियन से अधिक गरीब हैं जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति अतिसंवेदनशील हैं। भारत में औसतन प्रति व्यक्ति 1.67 टन के कार्बन उत्सर्जन का क्या कारण है? कौन है जो इन कार्बन उत्सर्जन का कारक है? क्या गरीब वर्ग की आड़ में धनाढ्य उपभोक्ता वर्ग अपने कार्बन उत्सर्जन की मात्रा छुपा रहा है? सबसे अधिक ऐसे कौन हैं जिन्हें बिजली तक की सुविधा नहीं है। क्या, अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर अलग-अलग जिम्मेदारी की मांग करने वाली भारत सरकार का यह दायित्व नहीं है कि वह भारत में भी इसे लागू करे। इसका यह अर्थ नहीं है कि भारत विकास न करे या धनाढ्य वर्ग उपभोग की आदत छोड़ दे अपितु इसका स्पष्ट समाधान भारत को अपने विकास की प्रक्रिया से कार्बन उत्सर्जन को समाप्त करना है।
भारत सरकार ने 11वीं और 12वीं पंचवर्षीय योजनाओं में निरन्तर देश में भावी ऊर्जा उत्पादन को मुख्यत: कोयला ऊर्जा संयंत्रों पर आधारित किया है। इससे कार्बन उत्सर्जन में और वृद्धि होगी। ऊर्जा क्षेत्र के भविष्य में बड़ा परिवर्तन करने की आवश्यकता है जिसके लिए गरीब वर्ग हेतु कार्बन क्षेत्र सृजित करने के लिए कोयला और परमाणु ऊर्जा में निवेश के बजाय ऊर्जा के वैकल्पिक तरीकों और ऊर्जा बचत पर बल होना चाहिए। भारत और पूरे विश्व में ऊर्जा क्रान्ति लाए जाने की आवश्यकता है। पिछली शताब्दी से पूरे विश्व में पहले ही 0.7 डिग्री सेन्टीग्रेड तक तापमान बढ़ चुका है। इस शताब्दी के अंत तक इन तापमानों में कम से कम 1.8 डिग्री सेन्टीग्रेड और अधिकतम 4 डिग्री सेन्टीग्रेड तक की ओर आगे वृद्धि होने की आशा है और यह वृद्धि ग्रीन हाउस गैसों जीएचजीएस के उत्सर्जन में तत्काल कमी करके जलवायु परिवर्तन को रोकने में भारत की क्षमता या अक्षमता पर निर्भर करेगी।
उत्तरी यूरोप में पर्यटन और कृषि पर कुछेक सकारात्मक प्रभावों के अलावा, विश्व के तापमानों में वृद्धि से विश्व के अधिकांश भागों में हानिकारक प्रभाव पड़ेंगे। वर्षा के बदलते रूझानों से व्यापक बाढ़ और भीषण अकाल की स्थिति पैदा होगी। पिघलती बर्फीली चट्टानों से पानी की कमी की और समस्या हो जाएगी, समुद्री तूफानों और अन्य दूसरे तूफानों की गहनता और घटनाएं बढ़ेंगी, संक्रमण जनित बीमारियां फैलेंगी और समुद्र में बढ़ते जल स्तर से मुम्बई और कोलकाता जैसे नीचे तल वाले बड़े तटीय शहरों के जलमग्न होने का खतरा बना रहेगा। ऊष्ण प्रदेशों में अवस्थित विकासशील अर्थव्यवस्था वाले देशों को जलवायु परिवर्तन के विकराल प्रभावों का दंश झेलना पड़ेगा। यदि विश्व के तापमान 2 डिग्री सेन्टीग्रेड से अधिक बढ़े तो उच्च विकास दर की ओर अग्रसर भारत जैसे देशों में विकास की गति रूक जाएगी।
सन् 2012 के बाद के सत्र के लिए क्योटो प्रोटोकॉल के दूसरे चरण की बातचीत का अगला दौर इस दिसम्बर में कोपेहेगन में शुरू होगा। सरकारें इस बहस में उलझी हैं कि किसे इसका दोष दें और विश्व को जलवायु परिवर्तन से बचाने के लिए कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में तत्काल कमी लाने का वचन कौन दे। अभी तक भारत सरकार ने यह तर्क दिया है कि यूरोप संघ के 25 राज्यों 10.5 टन और संयुक्त राज्य अमरीका 23 टन की तुलना में उसका औसतन प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन कम है यानी प्रति व्यक्ति 2 टन से कम। इस तर्काधार पर भारत जीवाश्म ईंधन प्रेरित आर्थिक विकास के रास्ते पर चल रहा है। यदि संयुक्त और साथ ही अलग-अलग जिम्मेदारियों के सिद्धान्त की बात करें तो, विकास के प्रति भारत का दावा बनता है और इस प्रकार उसे विकसित देशों से कार्बन क्षेत्र सृजित करने की मांग करते हुए जीवाश्म ईंधन से और अधिक ऊर्जा का उपभोग करने का अधिकार है। इस तर्क में यह बात निहित है कि विकसित देशों को अपने कार्बन उत्सर्जन के स्तर में तत्काल पर्याप्त कमी लाने की आवश्यकता है ताकि विकासशील देश अभी भी पृथ्वी को जलवायु असंतुलन के गर्त में धकेले बिना अपने कार्बन उत्सर्जन में वृद्धि कर सकते हैं।