अमलेंदु उपाध्याय
नई दिल्ली। उत्तर प्रदेश में गाजियाबाद जिला अदालत के पीएफ घोटाले के मुख्य अभियुक्त आशुतोष अस्थाना की मौत पर दो पंक्तियों में सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है-'अंधेरों ने हमारे अंजुमन की आबरू रख ली, न जाने कितने चेहरे रोशनी में आ गए होते। दीपावली वाले दिन आशुतोष अस्थाना की गाजियाबाद की जिला जेल में रहस्यमय मौत हो गई थी। इससे पहले भी गाजियाबाद की जिला जेल में कई अन्य हाई प्रोफाइल मामलों के कथित अभियुक्तों की रहस्यमय मौते हो चुकी है। इनमे आशुतोष अस्थाना की मौत समूची न्यायिक व्यवस्था पर सप्रमाण एक प्रहार है और न्यायापालिका की कार्य प्रणाली और उसकी विश्वसनीयता पर अनके प्रश्न खड़े होते हैं। केंद्रीय कानून मंत्री विरप्पा मोइली को कहना पड़ा है कि न्यायापालिका में भ्रष्टाचार एक गंभीर मामला है, सरकार जजों की नियुक्ति और न्यायापालिका में भ्रष्टाचार से निपटने के लिए संसद में विधेयक लाएगी।
आशुतोष अस्थाना पीएफ घोटाले का मुख्य अभियुक्त था और अपने इकबालिया बयान में वह छत्तीस जजों के नाम उगल चुका था कि जिनके सहयोग और आदेश से उसने इस घोटाले को अंजाम दिया था। बताया तो यह भी जा रहा है कि अस्थाना अदालत में कोई और इकबालिया बयान देने जा रहा था और सीबीआई भी फाइनल चार्जशीट लगाने जा रही थी लेकिन वह समय आता उससे पहले ही अस्थाना सीने में और बहुत से राज लिए इस दुनिया से संदिग्ध मौत के नाम पर रूखसत हो गया।
समाचार पत्रों में यह खबर प्रमुखता से प्रकाशित हो रही है कि अस्थाना के परिवार वालों ने पुलिस को कम से कम दो बार ये सूचना दी थी कि अस्थाना को जान का खतरा है। परिवार वालों ने इस मामले की सीबीआई जांच करवाने की मांग भी की है। गाजियाबाद के पुलिस वरिष्ठ अधीक्षक का बयान भी सभी समाचार पत्रों में प्रमुखता से प्रकाशित हुआ है जिसमें उन्होंने इस बात से इंकार किया है कि अस्थाना ने अपनी जान को खतरा बताया था। सवाल यह है कि अगर अस्थाना ने पुलिस से सुरक्षा की गुहार नहीं भी की थी तो क्या यह पुलिस का काम नहीं था कि इतने महत्वपूर्ण मामले के कथित मुख्य अभियुक्त की सुरक्षा के इंतजामात किए जाते? आईजी जेल सुलखान सिंह ने एक निजी टीवी चैनल के सामने स्वीकार भी किया है कि पहले भी कोर्ट में पेशी के दौरान अस्थाना के साथ मारपीट की गई थी। कौन हैं वो जिनकी इतनी हिम्मत है कि वो अस्थाना को न्यायिक हिरासत में पीट दें। जाहिर सी बात है कि उन्हें किसी का भी खौफ नहीं है। उन्हें यकीन है कि उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा इसलिए यह उनका सरेआम रिहर्सल रहा होगा। डासना जेल में इस तरह की कई घटनाओं का एक इतिहास है जिस पर दृष्टि डालने से लगता है कि जेल के अधिकारी या कर्मचारियों की भूमिका की भी गंभीरता से जांच होनी चाहिए कि वे कैदियों की सुरक्षा में आखिर किस प्रकार से मुस्तैद रहते हैं।
बताया जा रहा है कि आशुतोष अस्थाना से एक दिन पहले ही सीबीआई ने कई घंटे तक पूछताछ की थी। उसके एक दिन बाद उसकी मौत से जुड़े कई सवाल इस पूछताछ से भी जुड़ गए हैं पिछले कई रोज से सीबीआई अधिकारी जेल में उससे पूछताछ कर रहे थे और अस्थाना अदालत में अपने बयान देने वाला था। इस बार कई बड़े नाम सामने आने वाले थे। इससे पहले भी अपने बयान में वह तीन न्यायाधीशों को लपेट चुका था। बताया जाता है कि अनुच्छेद 164 के तहत मजिस्ट्रेट के समक्ष दिए बयान में अस्थाना ने खुलासा किया था कि उसे पुलिस से छिपने में तीन जजों ने मदद की थी। अस्थाना को हाईकोर्ट के तीन न्यायाधीशों ने भरोसा दिया था कि जांच पूरी होने के बाद वे मामले को देख लेंगे। तीनों न्यायाधीशों का नाम घोटाले वालों की सूची में भी बताया जाता है।
यह मामला इतना गम्भीर है कि जांच करने में सीबीआई के पसीने छूट गए हैं। समझा जा सकता है कि जांच टीम भी किस मानसिक दबाव से गुजर रही होगी कि उसे सुर्पीम कोर्ट से अपील करनी पड़ी कि घोटाले से संबंधित मामले की जांच दिल्ली में कराई जाए ताकि जांच एजेंसी को अपने मुख्यालय से जांच कराना सुविधाजनक हो। इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश सरकार भी इस मामले की सीबीआई जांच कराने से कन्नी काटती रही, लेकिन जब गाजियाबाद बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष नाहर सिंह यादव ने मोर्चा खोला और अधिवक्ता एकजुट हुए तब सीबीआई जांच बैठाई गई। स्वयं सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यों की बेंच में यह मुकदमा स्थानान्तरित हुआ और सुनवाई करने वाले विद्वान न्यायाधीशों पर पक्षपात करने के आरोप भी लगे।
अस्थाना का मामला भी बहुत नाटकीय अंदाज में खुला। यह आम चर्चा है कि अस्थाना का गाजियाबाद की जिला कोर्ट में इतना रुतबा था कि सीजेएम और एडीजे स्तर के अधिकारी भी उससे अनुमति लेकर उसके कमरे में दाखिल होते थे। तुतीय और चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी तो उसके कमरे में जूते बाहर उतारकर दाखिल होते थे। गाजियाबाद में किस जिला जज की नियुक्ति हो रही है यह अस्थाना को पहले से मालूम रहता था। जाहिर है एक क्लर्क का यह रुतबा बिना ऊपर के आशीर्वाद के नहीं बना होगा। उसका यह घोटाला पकड़ा भी नहीं जाता अगर वह एक ईमानदार महिला जज से न उलझा होता। चर्चा है कि अस्थाना सीबीआई की स्पेशल जज रमा जैन, जो उस समय नजारत की इंचार्ज भी थीं, से एक फर्जी बिल पास कराने पहुंचा। बताते हैं कि रमा जैन ने वह बिल पास करने से मना कर दिया। इस पर अस्थाना ने उन्हें घुड़की दी कि यह बिल तो पास होंगे ही लेकिन इंचार्ज बदल जाएगा और अगले दिन ही रमा जैन से वह चार्ज छिन गया। इस पर महिला जज ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से शिकायत की कि गाजियाबाद की अदालतों में कुछ ऐसा है जो गलत है। इस पर जैन को जांच का जिम्मा मिला और उन्होंने आते ही एकाउन्ट्स और नजारत को सील किया फिर जब जांच की तो अस्थाना का फर्जीबाड़ा खुला। रमा जैन ने स्वयं गाजियाबाद के थाना कविनगर में एफआईआर दर्ज कराई थी। यह वही रमा जैन हैं, जिन्होंने निठारी केस में पंधेर और कोली को फांसी की सजा सुनाई थी।
अपनी गर्दन फंसती देखकर अस्थाना ने अदालत में सेक्शन 164 के तहत इकबालिया बयान दर्ज कराकर पोल खोल दी कि यह फर्जीवाड़ा तो वह जजों के सहयोग से कर रहा था और यह राशि भी जजों के ऊपर ही खर्च होती थी। उसने बाकायदा कई बिल भी उपलब्ध कराए जो उसके बयान की पुष्टि करते हैं। भले ही आशुतोष अस्थाना की मौत स्वाभाविक रूप से हुई हो लेकिन अगर निष्पक्ष जांच नहीं हुई तो लोग न्यायिक व्यवस्था पर भरोसा नहीं करेंगे। केस की गम्भीरता को देखकर लगता है कि अस्थाना की मौत एक रहस्य का रूप ले रही है। इस मामले की न्यायिक जांच के आदेश दिए गए हैं और पोस्टमार्टम का बिसरा एम्स भी भेजा गया है। जिस केस में 36 बड़े जज फंस रहे हों, जिनमें से एक सुप्रीम कोर्ट और ग्यारह हाई कोर्ट के जज हों, उस केस के कथित मुख्य अभियुक्त की मौत से रहस्य से पर्दा इतनी आसानी से उठ भी कैसे सकता है? उप्र सरकार भी अस्थाना की मौत की जांच की घोषणा कर चुकी है, लेकिन जांच कौन करेगा? वही पुलिस, जिसके कप्तान साहब अस्थाना के इकबालिया बयान पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से जजों से पूछताछ करने की अनुमति मांग रहे थे? जैसा कि संदेह व्यक्त किया जा रहा है कि उसकी मौत जहर खाने से हुई तो सवाल ये है कि उसे जेल में ज़हर कहां से मिला ? दूसरा बड़ा सवाल ये कि उसने ये जहर खुद खाया या फिर किसी ने उसे धोखे से खिलाया? अगर उसने खुद जहर खाया तो खुदकुशी की वजह क्या रही होगी? जेल के अधिकारी और कर्मचारी में कोई इस कहानी से वाकिफ ज़रूर होगा मगर फिर प्रश्न उठता है कि जजों के मामलों में कौन पड़ेगा? क्या उत्तर प्रदेश सरकार इस स्थिति में है कि वह इस मामले में स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच की पहल करे और उसका कॉलर पकड़ कर सामने लाए जो इस पूरे कांड का असली विलेन है।
सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक जांच के आदेश तो दिए हैं, लेकिन इसकी न्यायिक जांच के निष्पक्ष होने पर संदेह व्यक्त किया जा रहा है। अब सवाल सिर्फ अस्थाना की मौत की जांच का नहीं है बल्कि न्याय प्रणाली की विश्वसनीयता पर उंगलियां उठ रही हैं। इसलिए जांच किसी स्वतंत्र जांच एजेंसी से ही होनी चाहिए। यह इसलिए भी जरूरी हो जाता है क्योंकि जब पुलिस ने आरोपित जजों से पूछताछ करने की अनुमति मांगी तब मुख्य न्यायाधीश ने पुलिस से संभावित सवालों की सूची मांगी। इससे जनमानस में यह संदेश गया कि क्या मुल्क में दो कानून हैं? जजों के लिए अलग और आम आदमी के लिए अलग? अक्सर न्यायपालिका पर उंगलियां उठती रही हैं। मसलन सूचना के अधिकार की परिधि में जज साहब क्यों नहीं आते हैं? सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति की क्या प्रक्रिया है? जज साहब की जवाबदेही किसके प्रति है? इस देश के संविधान के प्रति, सरकार के प्रति या जनता के प्रति या किसी के प्रति नहीं?
एक टीवी चैनल के स्टिंग ऑपरेशन में कुछ सांसद रिश्वत लेते हुए पकड़े गए थे। संसद ने एक स्वर से उन दागी सांसदों की सदस्यता रद्द करके बाहर का रास्ता दिखाया और अपनी विश्वसनीयता बचाकर एक नजीर पेश की, लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि अस्थाना ने जिन जजों के नाम अपने इकबालिया बयान में लिए वह अभी तक बदस्तूर न्यायिक काम निपटा रहे हैं और जो काम नहीं भी कर रहे हैं वह महज इसलिए क्योंकि वे सेवानिवृत्त हो चुके हैं। इतना ही नहीं जिन तीन जजों के नाम अस्थाना ने अपने इकबालिया बयान में लिए थे कि किस तरह इन जजों ने उसे गिरफ्तारी से बचने में मदद की और छिपाया उन जजों के खिलाफ भी अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है। भले ही कानून मंत्री वीरप्पा मोइली कह रहे हों कि अस्थाना की मौत से इस केस की जांच पर कोई असर नहीं पड़ेगा लेकिन इतिहास बताता है कि अंजाम क्या होगा?
जिस तरह से जजों की संपत्ति के मामले पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की पहल पर जजों ने स्वयं अपनी संपत्ति सार्वजनिक करने का साहसिक निर्णय लिया था उसी तरह की नजीर पीएफ घोटाले में भी पेश की जानी चाहिए और उन जजों से सारा न्यायिक काम छीन लिया जाना चाहिए जिनके नाम अस्थाना ने अपने इकबालिया बयान में लिए थे। अस्थाना की मौत के बाद ऐसी निष्पक्षता का प्रदर्शन और जरूरी हो जाता है ताकि न्याय केवल हो ही नहीं बल्कि होता हुआ दिखाई भी दे।