Saturday 6 January 2018 09:53:38 PM
दिनेश शर्मा
लखनऊ। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पहल पर आज ग़ैरभाजपाई दलों के कुछ पराजित हताश और निराश नेता जनेश्वर मिश्र ट्रस्ट लखनऊ में एकत्र हुए और अपनी तुष्टिकरण जातिवाद वंशवाद एवं भ्रष्टाचारजनित राजनीतिक विफलताओं का ठींकरा ईवीएम मशीन पर फोड़ा। सभी ने एक सुर में चुनाव आयोग की ईवीएम मशीन की ईमानदारी पर उंगली उठाईं। इन नेताओं ने एक-एककर ईवीएम की निष्पक्षता एवं विश्वसनीयता पर संदेह के भाषण दिये और ईवीएम के विशेषज्ञों की तरह उसे झूंठा बताते रहे। एक झुंड की मानिंद बैठे और इलेक्ट्रानिक मीडिया के कैमरों के सामने भविष्य का रोना-धोना मचाए इन नेताओं की योजना कुछ और ही थी, मगर विसलरी बोतलों का पानी पी-पीकर भाजपा और उसके नेताओं को कोसने के बाद वे अपने-अपने घरों को लौट गए। यह बैठक बस कहने को ईवीएम के खिलाफ थी, किंतु इसका असली एजेंडा उत्तर प्रदेश का गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उपचुनाव था, जिसमें ये एकजुट होकर भाजपा के खिलाफ संयुक्त प्रत्याशी पर सहमति चाहते हैं, मगर इस बैठक में ये पत्ते नहीं खुल सके और तय पाया गया कि एक बार फिर ऐसी बैठक होगी।
समाजवादी पार्टी से अखिलेश यादव, मोहम्मद आजम खां, रामगोविंद चौधरी, अहमद हसन, नरेश उत्तम पटेल, राजेंद्र चौधरी एवं एसआरएस यादव थे, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से राकेश, राष्ट्रीय जनता दल से अशोक कुमार सिंह, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से रमेश दीक्षित, कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) से एसपी कश्यप, आम आदमी पार्टी से गौरव माहेश्वरी, जनवादी पार्टी से डॉ संजय चौहान, एक ग़ैर राजनीतिक आरबीएम से नसीमुद्दीन सिद्दीकी, जनता दल यू (शरद यादव) से सुरेश निरंजन भईयाजी, अपना दल से पल्लवी पटेल, राष्ट्रीय लोकदल से डॉ मसूद अहमद, शिव करन सिंह, पीस पार्टी से डॉ मोहम्मद अयूब एवं निषाद पार्टी से डॉ संजय कुमार निषाद आदि इस बैठक में शामिल हुए। ग़ौर करें तो इनमें बसपा और कांग्रेस से कोई नहीं था और बसपा के बिना इस एकजुटता का कोई मतलब नहीं है। जिन नेताओं ने इस बैठक में भाग लिया, उनमें भी कई ऐसे हैं, जिनका कोई भी राजनीतिक बजूद नहीं बचा है और चले हैं भाजपा से मुकाबला करने। दरअसल अखिलेश यादव की विपक्ष की एकता की मुहिम इस सवाल पर आकर थम जाती है कि जब वे अपने पिताश्री और चाचाश्री को ठिकाने लगा चुके हैं तो विपक्षी एकता के सूत्रधार कैसे माने जा सकते हैं? अखिलेश यादव पर ज्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता, बसपा और कांग्रेस के इस बैठक में नहीं आने से उनकी पोल सी खुल गई है।
समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय सचिव एवं मुख्य प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी का इस बैठक के बारे में कहना है कि अखिलेश यादव की इस पहल के पीछे यह मंशा है कि चुनाव की निष्पक्षता, पवित्रता और विश्वसनीयता बनी रहे, जनता के मन में ईवीएम को लेकर जो संदेह हैं, उससे लोकतंत्र को ख़तरा है, चुनाव में धांधली की गुंजाइश बढ़ती जा रही है, अगर मतदाता का भरोसा उसपर नहीं रहा तो फिर चुनाव के परिणामों पर भी भरोसा नहीं होगा। सपा प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी का दावा है कि वैसे भी मतदाता को ईवीएम मशीन की न आदत है, न अभ्यास है और ना ही यकीन है। उनका कहना है कि लोकतंत्र में राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी है कि मतदान में किसी तरह का छल न हो। राजेंद्र चौधरी इस बैठक के असली एजेंडे का छिपा गए, जो उत्तर प्रदेश में दो लोकसभा उपचुनाव में भाजपा कि खिलाफ उतरने के लिए इन नेताओं के मन को टटोलने का था। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव लोकसभा चुनाव-2014 से अभी तक हुए सभी चुनावों में करारी हार का सामना करते आ रहे हैं और उनकी राजनीतिक रणनीतिक विफलताएं उनके ग़लत आंकलन और ज़िद के कारण उनका पीछा नहीं छोड़ रही हैं। ग़ौर कीजिएगा कि सपा बसपा और कांग्रेस की लोकसभा चुनाव-2019 की सारी रणनीतियां धरी की धरी रह जाएंगी, यदि लोकसभा चुनावपूर्व भारत-पाकिस्तान में कारगिल जैसी या उससे भी बड़ी कोई सैन्य झड़प हो गई, जिसके पूरे आसार बन रहे हैं।
यह विचारणीय है कि चूंकि समाजवादी पार्टी के सभी वैधानिक अधिकार अखिलेश यादव के ही अधीन हैं और मुलायम सिंह यादव भी अशक्त और उनके सामने प्रभावहीन हो चले हैं, इसलिए सपा का कोई भी विधायक नेता या कार्यकर्ता इस मजबूरी के कारण अखिलेश यादव के नेतृत्व पर उंगली नहीं उठा रहा है। सपा को गर्त में धकेलने, हर मौके पर अपना उल्लू सीधा करने वाले धमकीनवीस मोहम्मद आज़म खां जहां तक सवाल है तो उनके पास कोई और राजनीतिक ठौर नहीं है, इसलिए वह सपा में बने हुए हैं, अन्यथा वो अबतक अखिलेश यादव के के क्लब में रंग में भंग कर दिए होते। हां, वे किसी तरह से विधानसभा में सपा के नेता प्रतिपक्ष रामगोविंद चौधरी को हटवाकर स्वयं नेता प्रतिपक्ष बनने के अभियान पर जरूर हैं, इसलिए अखिलेश यादव की लीडरी में चलना उनकी मजबूरी है। बहरहाल इस बैठक में कहने को ईवीएम को हिट किया गया, मगर इसका वास्तविक ऐजेंडा कुछ और ही था। देखना है कि लोकसभा उपचुनाव में अखिलेश यादव जो चाह रहे हैं, उसमें सफल होते हैं कि नहीं। इसमें कांग्रेस के उनके दोस्त राहुल गांधी की क्या रणनीति होगी, बसपा उन्हें स्वीकार करेगी यह भी एक अहम सवाल है। कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी के भाव बढ़ गए हैं, भले ही कांग्रेस भी भाजपा के कांग्रेस मुक्त भारत के अभियान में हांसिये पर जा रही है।
अखिलेश यादव की लगातार राजनीतिक पराजय से उनके सामने कई राजनीतिक दुश्वारियां हैं, जिनमें उनके लिए यह दूर की कौड़ी लगती है कि वे उत्तर प्रदेश में बाकी विपक्ष की लीडरी प्राप्त कर लें, क्योंकि कांग्रेस और बसपा को मनाना मुश्किल है और बसपा का तो सवाल ही नहीं उठता है कि वह सपा से कोई राजनीतिक समझौता करे। अखिलेश यादव के बारे में अब कहा जा रहा है कि वे अपनी पराजय से भारी हताशा में हैं और उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्यता भी छोड़ना चाहते हैं और राज्यसभा के रास्ते संसद में जाना चाहते हैं, जहां वे अपनी राजनीतिक खीज कुछ कम कर सकेंगे। राज्यसभा में भी इस साल अप्रैल में सपा के पांच सदस्य रिटायर हो जाएंगे और सपा का एक ही सदस्य राज्यसभा में जा सकेगा, जो कोई और नहीं बल्कि कदाचित अखिलेश यादव ही होंगे। समाजवादी पार्टी के लिए यह कालखंड भारी चुनौतियों से भरा है। अखिलेश यादव के पिताश्री मुलायम सिंह यादव के सामने भी दोहरी-तीहरी चुनौतियां हैं, जिनमें उनको एक पिता का धर्म निभाना है, एक बड़े भाई का धर्म निभाना है और अखिलेश यादव एवं समाजवादी पार्टी को अखिलेश के पाले हुए राजनीतिक सांपों से भी बचाने की कोशिश करनी है। यह तो सिद्ध ही हो चुका है कि अखिलेश यादव के लिए उत्तर प्रदेश में भाजपा की रणनीतियों का मुकाबला करना तबतक संभव नहीं है, जबतक उनके साथ बसपा नहीं आती है और बसपा को सपा के साथ खड़े होकर नाहक ही आत्महत्या नहीं करनी है।