दिनेश शर्मा
लखनऊ। गोस्वामी तुलसीदास के लोकप्रसिद्ध महाकाव्य श्रीरामचरित मानस में एक चौपाई है-'हित मत लागत तोहि न कैसे, काल बिबस कहुं भेषज जैसे।' अर्थात- 'हित की सलाह कैसे अच्छी नहीं लगती? जैसे मृत्यु के वश में रोगी को दवा अच्छी नहीं लगती।' इस आदर्श और लोकोपयोगी चौपाई के भाव से कौन सहमत नहीं होगा? क्या यह नौकरशाहों को समझाने की जरूरत है? दूसरे लोग आपसे न्याय गरिमा आदर्श कुशल प्रशासन और गांव-देश की समृद्धि के लिए महत्वाकांक्षी विकास योजनाओं की आशा करते हैं, आप देश की अखिल भारतीय सेवा आईएएस या आईपीएस में लोकसेवा के लिए चयनित किए गए थे और आप कर क्या रहे हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। आप नसीहतों से भड़कते हैं और अच्छे सुझावों पर उल्टा चलते हैं। बेशक, आप अपना लोकसेवक का धर्म छोड़कर मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों की रबर स्टैम्प बनिए और उनके गुर्गों के कहने में भी चलिए मगर उसकी कीमत चुकाने के लिए भी अपने को तैयार रखिए। आपको मालूम होना चाहिए कि जब आप रबर स्टैम्प होते हैं तो किसी न किसी को अनुचित लाभ पहुंचाने के लिए किसी न किसी का गला भी काट रहे होते हैं। राज्य के मुख्य सचिव अतुल गुप्ता के प्रशासनिक जीवन में भले ही कोई दाग न हो लेकिन यदि वे मुख्यमंत्री मायावती के सामने अपना मुख्य सचिव होने का थोड़ा भी धर्म निभाते तो आज उन्हें सुप्रीम कोर्ट की अवमानना की कार्रवाई का सामना न करना होता। आज उनकी आवाज़ नक्कारखाने में तूती की आवाज़ बन गई है और पूरा प्रशासनिक जीवन दांव पर लग चुका है। भले ही सुप्रीमकोर्ट उनकी बेचारगी पर नरम रूख अपना ले लेकिन यह नज़ीर हमेशा कायम रहेगी कि एक नौकरशाह को दूसरों की करनी कैसे भोगनी पड़ रही है।
वास्तव में उत्तर प्रदेश में नौकरशाहों की गुलामों से भी बदतर स्थिति हो गई है। ये महाभारत के धृतराष्ट्र से भी गए गुजरे हो गए हैं। इनमें से जाने कितनों की लाल बत्ती के पहरे में बेशर्मी और नीचता का नंगा नाच हो रहा है। इनकी बैठकों में हर रोज़ राजनीतिक बदले लेने की साज़िशों को अंजाम दिया जाता है और मुख्यमंत्री मायावती की भ्रष्ट महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने और उसमें अपनी कमीशनखोरी की तरकीबें खोजी जाती हैं। जनता के छब्बीस अरब रूपए इनकी भ्रष्ट जमात ने चुटकियों में उड़ा दिए। अगर आज सुप्रीम कोर्ट इनमे से किसी का कॉलर पकड़ रहा है तो उस पर शोर कैसा? यदि मुख्यमंत्री मायावती सुप्रीम कोर्ट की अवमानना के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार नहीं है तो मुख्य सचिव जिम्मेदार होगें क्योंकि मुख्य सचिव ही वैधानिक तौर पर मुख्यमंत्री के आदेशों और नीतियों को लागू करने वाली राज्य की नौकरशाही के प्रमुख हैं। कहा जा रहा है कि बुतों और स्मारकों के मामले में मुख्य सचिव अतुल गुप्ता बेचारे हैं और निर्दोष हैं लेकिन संवैधानिक व्यवस्था तथ्यों पर आधारित होती है और इसका सामना उसी को करना होता है जो इसकी परिधि में मौजूद होता है।
राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट के कड़े रुख के बावजूद लखनऊ में पार्को और स्मारकों के मरम्मत का काम आज भी जारी रखे हुए है। इस पर राज्य सरकार के वकील और बसपा के महासचिव सतीश चंद्र मिश्र प्रेस कांफ्रेंस करके धमकाने के अंदाज में मीडिया से कह रहे हैं कि विपक्षी दलों की बयानबाजी पर अदालत में मानहानि का मामला दर्ज किया जाएगा। इनके सरेआम झूठ बोलने की हद देखिए कि ये कह रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट के हर आदेश का पालन किया गया है और पालन किया जाएगा। इन महाशय ने सुप्रीम कोर्ट को भी झूठा ठहराने की कोशिश की है। प्रश्न है कि यदि इन्होंने सुप्रीम कोर्ट को सब कुछ सच बताया हुआ है तो अवमानना तक बात कैसे पहुंची? क्या सतीश मिश्र सुप्रीम कोर्ट की ईमानदारी और न्याय पर उंगली नहीं उठा रहे हैं? यह तब है जब सतीश चंद्र मिश्र न केवल एक जाने-माने न्यायाधीश के पुत्र हैं अपितु स्वयं भी एक पेशेवर कानूनविद् हैं। कहने वाले कह रहे हैं कि सत्ता के मोह,चाटुकारिता और अहंकार के वश वे ऐसी भाषा बोल रहे हैं।
यूपी की राजनीतिक और नौकरशाही की सियासत इस समय सेंसेक्स की तरह गोते लगा रही है। मायावती सरकार के मूर्ति प्रेम पर सुप्रीमकोर्ट के कड़े रुख और राज्य के मुख्यसचिव अतुल गुप्ता को सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का नोटिस जारी होने और उनकी चार नवंबर को कोर्ट में पेशी पर राजधानी में नौकरशाही और इसमे दिलचस्पी रखने वालों में नौकरशाही की कार्यप्रणाली और उनकी समाज और जनता के प्रति जिम्मेदारियों पर प्रतिक्रियाओं का दौर शुरू हो गया है। इस मामले पर सबके अपने-अपने विश्लेषण हैं, लेकिन इस बात पर सब एक राय दिखाई देते हैं कि मामला अत्यंत गंभीर हो चुका है और यह सीधे-सीधे नौकरशाही की विफलता से जुड़ा है। इसके लिए नौकरशाही किसी को भी जिम्मेदार नहीं ठहरा सकती क्योंकि ऐसे मामलों में कोर्ट में किसी मंत्री और मुख्यमंत्री को बुलाने का मामला तो बाद में आता है। संवैधानिक विशेषज्ञों का अभिमत है कि इस मामले से निपटने के लिए राज्य सरकार के पास सीमित विकल्प बचे हैं।
जो खबरें आ रही हैं, उनमें एक खबर यह है कि पेशी से पहले मुख्य सचिव अतुल गुप्ता को सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का अनुपालन कराने में विफल रहने का दोषी मानकर इस पद से हटाते हुए निलंबित कर दिया जाएगा ताकि सरकार को सुप्रीमकोर्ट से यह कहने का अवसर मिल जाएगा कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का अनुपालन कराने में विफल रहने और अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन न कर पाने के कारण मुख्य सचिव अतुल गुप्ता के खिलाफ पद से हटाने या निलंबन की कार्रवाई कर दी गई है। इससे राज्य सरकार, सुप्रीमकोर्ट में यह साबित करने की कोशिश करेगी कि वह सुप्रीम कोर्ट के फैसलों और आदेशों के प्रति काफी संवेदनशील है। जिसका इशारा राज्य सरकार के वकील सतीश चंद्र मिश्र ने अपनी सात अक्टूबर की प्रेस कांफ्रेस में भी किया है। यह अलग बात है कि राज्य सरकार अभी तक तो मायावती सरकार से संबंधित रिट याचिकाओं पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सभी दिशा निर्देशों और फैसलों के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में अपील दाखिल करके राहत पाती आई है। इससे उत्तर प्रदेश के जन सामान्य में यह लोकापवाद उठ खड़ा हुआ है कि जब मायावती सरकार के निर्णयों पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के अधिकांश आदेश, सुप्रीम कोर्ट में स्टे हुए जा रहे हैं और राज्य सरकार सुप्रीमकोर्ट के आदेशों का भी सरासर उल्लंघन कर रही है तो न्यायालय में शरण मांगने का क्या मतलब रह जाता है?
मुख्यमंत्री कार्यालय में इस घटनाक्रम को लेकर काफी विचार-मंथन चल रहा है और कानूनविदों से सलाह ली जा रही है कि चार नवंबर को किस प्रकार कोर्ट की अवमानना से बाहर आया जाए। ऐसे तर्को का सहारा लिया जा रहा है जोकि विदेशी अदालतों के संगत मामलों के फैसलों पर आधारित हैं। प्रेस कांफ्रेंस में मायावती सरकार के वकील सतीश चंद्र मिश्र के तर्क और उनकी भावी योजनाओं में बौखलाहट भरी आक्रामकता दिखाई देती है जिसमें यह कहीं एहसास नहीं होता कि राज्य सरकार सुप्रीमकोर्ट के आदेशों के उल्लंघन को लेकर कहीं शर्मिंदा है। जहां तक सुप्रीमकोर्ट का सवाल है, वह राज्य के मुख्य सचिव को अवमानना का नोटिस थमा कर और रजिस्ट्रार को अवमानना की कार्रवाई शुरू करने के लिए आदेश देकर मामले की गंभीरता का एहसास करा चुका है। पिछली बार सुप्रीमकोर्ट ने कहा था कि उत्तर प्रदेश सरकार आग से खेल रही है और इस बार कहा है कि सरकार कोर्ट से राजनीति न करे। इसके बावजूद मायावती सरकार ने विवादित स्थलों पर बे-रोक-टोक निर्माण और मरम्मत का काम जारी रखा हुआ है। सुप्रीम कोर्ट की इस चेतावनी के बाद भी मायावती सरकार पर कोई असर न दिखाई पड़ने से लगता है कि इस सरकार को किसी न किसी ऐसे व्यक्ति की कोई शह और विश्वास हासिल है जो मायावती सरकार को संकट आने पर पूर्ण सुरक्षा कवच प्रदान कर सकता है।
घटनाक्रम पर चर्चाओं में एक व्यावहारिक प्रश्न यह उठ रहा है कि क्या वास्तव में मुख्य सचिव अतुल गुप्ता सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन न कराने के लिए एकमात्र दोषी हैं? और मुख्यमंत्री मायावती की कार्यप्रणाली और उनके अत्यंत निकटवर्ती अधिकारियों और मंत्रियों के मनमाने आचरण को देखते हुए और उस अवस्था में जब उत्तर प्रदेश में नौकरशाही में पहली बार दो समानांतर शक्तियां काम कर रही हैं जिनमें दूसरे कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह हैं तो फिर सुप्रीमकोर्ट के आदेशों के उल्लंघन जैसे महापाप के लिए अकेले मुख्य सचिव अतुल गुप्ता ही जिम्मेदार क्यों हैं? मुख्यमंत्री मायावती ने इन दो अधिकारियों को स्वयं ही कार्यों का बंटवारा किया हुआ है जिनमें शपथ ग्रहण जैसे परंपरागत अधिकार उन्होंने मुख्य सचिव से लेकर कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह को सौंपकर यह संदेश प्रसारित किया हुआ है कि उत्तर प्रदेश में मुख्य सचिव नहीं बल्कि कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह ही उत्तर प्रदेश की संपूर्ण प्रशासनिक व्यवस्था के प्रमुख हैं। प्रेस को जारी की जाने वाली सरकारी विज्ञप्तियों और डायरियों में भी कैबिनेट सचिव को शीर्ष और वरीयता क्रम में सबसे ऊपर रखा गया है। ऐसा ही कार्य व्यवहार में भी दिखाई पड़ता है। इसलिए यह भी सवाल किया जा रहा है कि अवमानना मामले में कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह क्यों नहीं तलब किए गए हैं जबकि सुप्रीम कोर्ट में निर्माण और किसी भी प्रकार की मरम्मत पर रोक के मामले में बहस के दौरान उत्तर प्रदेश सरकार के वकील सतीश चंद्र मिश्र ने कोर्ट के बार-बार पूछने पर कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के रोक के आदेशों की सूचना मौखिक रूप से मुख्य सचिव और कैबिनेट सचिव को दे दी गई थी। इसकी भी वजह हैं।
प्रशासनिक सेवाओं के विशेषज्ञों का कहना है कि चूंकि राज्य में मुख्य सचिव ही नौकरशाही का मुख्य कार्यपालक होता है और उसे ही अपने अधीनस्थों की चरित्र पंजिका में प्रविष्टि का विधिक अधिकार प्राप्त है इसलिए चूंकि सुप्रीम कोर्ट भी राज्य में केवल मुख्य सचिव को ही राज्य की कार्यपालिका का संवैधानिक प्रमुख मानता है इसलिए उन्हें ही अवमानना मामले में तलब किया गया है। यह विधिक बात राज्य सरकार के वकील सतीश चंद्र मिश्र को भी मालूम है इसलिए अवमानना नोटिस मुख्य सचिव को ही जारी किया गया है। इससे यह बात और ज्यादा स्पष्ट हो चुकी है कि सुप्रीम कोर्ट की दृष्टि में उत्तर प्रदेश्ा में कैबिनेट सचिव पद का कोई विधिक वजूद नहीं है,यह केवल राज्य सरकार की आंतरिक प्रशासन व्यवस्था का एक हिस्सा है इसलिए राज्य में कैबिनेट सचिव के पद का संवैधानिक दृष्टि से कोई भी औचित्य नहीं है।
मुख्यमंत्री मायावती इसके बावजूद राज्य में कैबिनेट सचिव के पद पर बैठाए गए गैर आईएएस अधिकारी से ही मुख्यसचिव से लेकर और उनको दिए गए पद कैबिनेट सचिव तक के सारे महत्वपूर्ण काम लेती हैं। यह बात जब भी राज्य में नौकरशाहों के कार्य-दायित्वों को लेकर विवाद-स्वरूप सामने आई तो एक बार स्वयं मुख्यमंत्री मायावती को कहना भी पड़ा कि मुख्य सचिव ही राज्य प्रशासन के मुखिया हैं लेकिन मायावती ने हमेशा अपने मौखिक दिशा निर्देशों में कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह को ही राज्य की नौकरशाही की पदस्थापना, स्थानांतरण और नीतिगत मामलों में महत्व दिया है। व्यावहारिक स्थिति यह है कि उत्तर प्रदेश में मुख्य सचिव की यह भी हैसियत नहीं है कि वह एक पटवारी को भी स्थानांतरित करा सकें। हर कोई जानता है कि अफसरों के तबादलों पार्कों के निर्माण और मूर्तियों की स्थापना ठेकों जैसे और भी कई मामलों का नियंत्रण, मुख्यमंत्री मायावती के निर्देशन में कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह और राज्यमंत्री मंडल के दो-तीन वरिष्ठ मंत्री ही करते हैं। शशांक शेखर सिंह का प्रशासनिक व्यवस्था पर कितना दखल है यह अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मायावती के भाई-भतीजों और रिश्तेदारों को नक्षत्रशाला पार्क और चिड़ियाघर घुमाने तक का काम भी शशांक शेखर सिंह ही करते हैं। इसीलिए कहा जा रहा है कि अतुल गुप्ता केवल नाम के मुख्य सचिव हैं असली काम तो कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह ही कराते हैं।
सुप्रीम कोर्ट में मामला फंसा है तो मुख्यसचिव अतुल गुप्ता चपेट में आ गए हैं क्योंकि नौकरशाही का संवैधानिक रूप से प्रमुख होने के नाते उनकी कोर्ट के आदेशों के उल्लंघन के मामले में संवैधानिक भूमिका मानी जाती है। सुप्रीम कोर्ट में दिए गए राज्य सरकार के वचनों से मुख्य सचिव को मौखिक रूप से अवगत कराने और उनका पालन सुनिश्चित कराने का भी इसलिए कोई औचित्य नहीं है क्योंकि इस संबंध में मुख्यसचिव को राज्य सरकार के संबंधित वकीलों ने बाद में भी सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की लिखित में कोई सूचना नहीं दी, जोकि देनी चाहिए थी जिसके उल्लंघन पर मुख्य सचिव को जिम्मेदार ठहराया जा सकता। जहां तक मौखिक आदेशों के पालन कराने का पश्न है तो ऐसे अदालती मामलों में केवल मौखिक आदेशों की न कोई मान्यता होती है और न वैधता। अतुल गुप्ता संवैधानिक दृष्टि से निश्िचत रूप से अवमानना के दोषी माने जा सकते हैं किंतु उनके बारे मे क्या होना चाहिए जो कि वास्तव में इस स्थिति के लिए पूर्णतया दोषी हैं। राज्य के किसी भी नौकरशाह या मंत्री की ऐसी स्थिति नहीं है कि वह मुख्यमंत्री मायावती और कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह की सहमति के बिना एक फाइल भी इस टेबल से दूसरे टेबल तक पहुंचा सके।
अनेक अवसरों पर मुख्य सचिव की उपेक्षा भी देखी गई है। राज्य में इस व्यवस्था के बीच नौकरशाही गुटों में बंटी हुई है। केवल कुछ ही नौकरशाह ऐसे हैं जो मायावती सरकार की मनमानी में शामिल नहीं हैं अलबत्ता अधिकांश ऐसे हैं जो कमीशन एजेंटों की तरह से काम कर रहे हैं और उन्हें अपने पद और गरिमा और उसमे जन सामान्य के विश्वास और जिम्मेदारियों का कोई भी एहसास नहीं दिखाई देता है। मुख्यमंत्री मायावती की कार्यप्रणाली को लेकर हर कोई कहता है कि उनका न तो लोकतंत्र में विश्वास है और न संविधान में। सुप्रीम कोर्ट ने ये बात कई बार नसीहत देकर कही भी हैं। मायावती की कार्यप्रणाली के कारण पहले भी राज्य के मुख्य सचिव डीएस बग्गा का ताज कॉरीडोर मामले में ऐसा ही बुरा हाल हो चुका है। यहां फिर प्रश्न उठता है कि उन्हें भी किसने कहा था कि वे मायावती के हर एक मनमाने आदेश को मानें। जब उन्होंने ऐसा किया तो तज्जनित बुरे परिणाम क्या कोई और भोगेगा? या आज जो कुछ और नौकरशाह भी ऐसा कर रहे हैं, देर सवेर उनको भी ऐसे ही दौर से गुज़रना पड़ सकता है, भले ही आम जन में नौकरशाही के प्रति न्याय का विश्वास क्यों न खत्म हो जाए। हां, ऐसे नौकरशाहों के कारण ताज कॉरीडोर या पार्क निर्माण जैसे मामले में कई बाबू और अफसर नाहक ही कोर्ट का चक्कर जरूर लगा रहे हैं। संवैधानिक संस्थाओं को धता बताकर राग-द्वेष से काम करने वाले भ्रष्टाचारियों के कई उदाहरण राज्य सचिवालय में मौजूद हैं। मायावती का समता मूलक समाज बनाने निकले जिन आईएएस अधिकारी कुंवर फतेह बहादुर सिंह को केंद्रीय निर्वाचन आयोग ने लोकसभा चुनाव में निष्पक्ष चुनाव संपन्न कराने में बाधक और विफल मानकर रातों-रात राज्य के प्रमुख सचिव गृह के पद से हटाया था उनको मुख्यमंत्री मायावती ने पहले तो तुरंत ही अपना प्रमुख सचिव बनाया और लोकसभा चुनाव खत्म होते ही कई महत्वपूर्ण विभागों के साथ फिर से राज्य का प्रमुख सचिव गृह बना दिया। कुंवर फतेह बहादुर सिंह दलित समाज के हैं और इनकी गिनती जातिगत विद्वेष से काम करने वाले प्रतिक्रियावादी अधिकारियों में होती है। राज्य के प्रमुख सचिव गृह जैसे पद पर उनकी पात्रता के संबंध में भी कई बार सवाल उठ चुके हैं। यह नौकरशाही के इस्तेमाल होने और इस्तेमाल करने का एक उदाहरण है जिसकी चपेट में आज राज्य के मुख्य सचिव अतुल गुप्ता भी आ गए हैं। जो भी राजनेता, नौकरशाह या मीडिया के लोग अतुल गुप्ता की प्रशासनिक कार्यप्रणाली को जानते हैं उनकी अतुल गुप्ता के साथ अवश्य ही सहानुभूति होगी क्योंकि वे इस एपिसोड में मात्र बलि का बकरा माने जा रहे हैं।
कभी उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव और भारत सरकार में कैबिनेट सचिव रहे टीएसआर सुब्रह्मण्यम ने अपने प्रशासनिक अनुभवों के साथ नौकरशाही पर लिखी किताब में तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव की आइएएस मीट में उस टिप्पणी का उल्लेख किया है जिसमें उन्होंने कहा था कि 'आप इतनी एलीट सर्विस के होने के बावजूद यदा-कदा मेरे पांव छूने क्यों आते हैं, इसका मतलब है कि आप हमसे कुछ चाहते हैं।' मुलायम सिंह यादव की इस टिप्पणी पर सन्नाटा पसर गया था, सब चुप रह गए। यही आइएएस अधिकारी क्या इस बात का जवाब देना पसंद करेंगे कि वे राज्य के भाषा, विकलांग, धर्मार्थ विभाग, राजस्व परिषद अध्यक्ष या सदस्य जैसे पदों पर अपनी नियुक्ति को दंड क्यों मानते हैं या उनकी नजर में ये विभाग महत्वहीन कैसे हैं? पूरी दुनिया भाषा और विकलांगता जैसे गंभीर विषयों को लेकर चिंतित और संवेदनशील है और इतने अहम महकमों को यहां का प्रशासनिक अमला अगर महत्व का मानता ही नहीं है तो क्या यह मान लेना चाहिए कि राज्य में व्यवस्था के सभी कुंओं में भांग पड़ गई है, जिसका इलाज सिर्फ कोर्ट के ही पास बचा है? नौकरशाही को उसका धर्म बताना या उनके कर्त्तव्यों और कार्यप्रणाली पर टीका टिप्पणी करना या सलाह देना उसके 'ईगो' को सीधे चोट पहुंचाना समझा जाता है। ये अपने स्वार्थ या किसी दबाव में ही अक्सर काम करते देखे जाते हैं। यही कार्य प्रणाली आज इनके लिए मुसीबत बन गई है।