भरत गांधी
कई महीने पहले वोटरशिप कौंसिल ऑफ एमपीज या मतदातावृत्ति सांसद परिषद मंच से कुछ सांसदों ने संसद भवन में प्रेसवार्ता करके यह बताया कि उन्होंने 131 सांसदों के प्रतिहस्ताक्षरित एक याचिका लोकसभा अध्यक्ष को सौंपी थी, जिसमें स्कॉलरशिप की तर्ज पर हर मतदाता को वोटरशिप 1750 रुपए देने की मांग की गई है। जिसे लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी और संसदीय कार्य मंत्री प्रियरंजन दास मुंशी ने 193 नियम के तहत आगामी बजट सत्र 2008 में संसद में बहस कराने की मंजूरी दे दी है। इस खबर को पढ़ने के बाद पूरे देश में लोगों की मिली जुली प्रतिक्रिया देखने-सुनने को मिली है। जहां कुछ लोगों ने राहत की सांस ली, वहीं दूसरी तरफ कुछ लोगों ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। इसी बीच विनीत नारायण के लेख ने इस आंदोलन को गति और आंदोलनकर्ताओं को ऊर्जा प्रदान की।
इस याचिका में परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए कहा गया कि गैट समझौते के माध्यम से बाजार का जो वैश्वीकरण किया गया है, उसने अर्थव्यवस्था और राजव्यवस्था संबंधी मूल मान्यताओं की धज्जियां उड़ा दी हैं। सांसदों का दस्तावेज वैश्वीकरण का विरोध या समर्थन नहीं करता, अपितु वैश्वीकरण की व्यवस्था मान लेने पर राजव्यवस्था और अर्थव्यवस्था में जो सुधार करना आवश्यक हो गया है, उन सुधारों की रूपरेखा प्रस्तुत करता है। इन्हीं सुधारों की कार्यसूची में से वोटरशिप एक बिन्दु है,यह सब कुछ नहीं है। राजनेताओं के लिए इस बिन्दु की अहमियत कुछ अधिक इसलिए है कि इस बिन्दु में उनका और आम जनता का हित निहित है,जबकि याचिका में पेश अन्य सुधारों में राजनेताओं की रुचि न के बराबर है। उसमें विचारकों की रुचि होनी चाहिए थी किन्तु सोचने-विचारने वाले लोगों ने मौन साध रखा है। शायद आने वाले दिनों में ये लोग इस दस्तावेज का अध्ययन करके अपनी टिप्पणी करें।
याचिका में कहा गया है कि बाजार के वैश्वीकरण के दबाव में देश के उद्योग-व्यापार के समक्ष यह मजबूरी पैदा हो गई है कि वह अपने मिल कारखानों और कार्यालयों में इतने कम आदमियों से काम चलाए जितने कम विकसित देशों में काम करते हैं। वहां की तकनीक उन्नत है, जनसंख्या कम है अतः उत्पादन के काम में कम से कम लोग लगें, यह उनकी जरूरत है। लेकिन यही धर्म जब भारत जैसे देश को निभाना पड़ रहा है, तो वह गले की फांस बन रही है। प्रधानमंत्री सड़क परियोजना और दिल्ली की मैट्रो रेल परियोजना-ये दोनों बहुत विशाल परियोजनाएं थीं, जहां आशा की गई थी कि इसमें खर्च होने वाला धन आम लोगों के घरों में जाएगा, लेकिन विश्वव्यापी प्रतिस्पर्धा के कारण यह धन बड़े ठेकेदारों-इंजीनियरों और मशीन मालिकों के घरों में चला गया। ठेकेदार के सामने मुसीबत यह है कि अगर वह मशीन के बजाय आदमी से काम करवाता है तो काम पूरा होने में बहुत समय लगेगा और ठेकेदार का मुनाफा भी बहुत कम हो जाएगा। इससे उसकी प्रतिष्ठा इतनी गिर जाएगी कि अगला काम उस ठेकेदार के बजाय ऐसे ठेकेदार को मिलेगा जो काम जल्दी पूरा करके दे। जो ठेकेदार मशीन से काम करवाता है उसका काम जल्दी पूरा होता है, वह मुनाफा भी अधिक कमाता है, उसका बिजनेस तेजी से बढ़ता है और जो रोजगार देने की नीयत से काम पर अधिक आदमी लगाता है उसको हर तरफ से नुकसान उठाना पड़ता है, उसे उसके दिवालिया बन जाने का खतरा हर वक्त सताता रहता है। इसलिए देश में काम की कमी नहीं है, लेकिन काम आदमियों के लिए नहीं है, मशीनों के लिए है। आम मेहनतकश अनपढ़ लोगों का काम बुल्डोजर जैसी मशीने लेती जा रही हैं और पढ़े-लिखे लोगों का काम कम्प्यूटर लेता जा रहा है। ऐसे में हर हाथ को काम देने और दिला पाने का नारा केवल एक गैरजिम्मेदार व्यक्ति ही उछाल सकता है, जिसने बदली हुई परिस्थितियों का पर्याप्त अध्ययन नहीं किया है।
लोकसभा स्पीकर को 131 सांसदों की सौंपी गई याचिका का विश्लेषण करते हुए यह निष्कर्ष निकाला गया है कि भारत सरकार की नीति यह नहीं होनी चाहिए कि वह हर हाथ को काम देने की नीति पर चले। याचिका में कहा गया है कि 1750 रुपए प्रत्येक मतदाता को मिलेगा तो कोई व्यक्ति देश में ऐसा नहीं बचेगा जिसके दिमाग को रोजगार न मिले। तब मतदान भी पर्याप्त संख्या में होगा और लीडरशिप भी विकसित होगी। मानव के मनोविज्ञान की गहन छानबीन करते हुए याचिका में कहा गया है कि नियमित आमदनी व्यक्ति के मन को स्वस्थ और सक्रिय रखती है। जब मन सक्रिय होगा तो हाथ सक्रिय हुए बिना नहीं रह सकता। जब हाथ और मन दोनों सक्रिय हो जाएंगे तो ऐसा व्यक्ति उत्पादन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भूमिका निभाने से बच ही नहीं सकता। जाने-अनजाने में हर व्यक्ति उत्पादक बन जाता है। जबकि बेरोजगार व्यक्ति जिसकी नियमित आमदनी का जरिया ही नहीं होता, उसके हाथ को तो काम होता ही नहीं, कुछ ही वर्षों में उसका दिमाग भी कुंद हो जाता है।
इन्हींविश्लेषणों के आधार पर याचिका में कहा गया है कि यदि देश के सामने मजबूरी हो कि वह एक बेरोजगार व्यक्ति को चुने या 1750 रुपए सरकार से हर महीने पाने वाले कथित रूप से निकम्में व्यक्ति को चुने? तो देश को चाहिए कि वह निकम्में व्यक्ति को चुनकर कम से कम बेरोजगार व्यक्ति के दिमाग को तो रोजगार दे दे। इसी प्रकार याचिका में इस बात पर भी गम्भीर शोध है कि 1750 रुपए देने के लिए सरकार पैसे का प्रबंध कैसी करेगी? दो सौ बाईस पृष्ठ की याचिका इसीलिए वृहद आकार की हो गई क्योंकि इसमें केवल मांगें नहीं की गई हैं, अपितु वह मांगें कैसे पूरी हो सकती हैं, उसका तरीका भी सरकार को बताया गया है। पूंजीवाद और साम्यवाद के झगड़े को खत्म करते हुए याचिका में कहा गया है कि सकल घरेलू उत्पाद जीडीपी की गणना करते समय जीडीपी में मशीनों के प्रतिशत की अलग से गणना की जाए और इंसानों के परिश्रम की अलग से। याचिका कहती है कि मशीनों के परिश्रम से अर्थव्यवस्था में जो धन पैदा हो रहा है वह मतदाताओं के बीच साम्यवादी तरीके से नकद रुप में वितरित कर दिया जाए और इंसानों के हिस्से को पूंजीवादी तरीके से वितरित किया जाये। इससे वैश्वीकरण के कारण मशीनी अर्थव्यवस्था से पैदा होने वाला धन सभी लोगों में बंट जाएगा और फिर वैश्वीकरण का लाभ चन्द लोग नहीं उठाते रहेंगे। वोटरशिप के माध्यम से हर व्यक्ति उसमें भागीदार बन जाएगा।
याचिका में कहा गया है कि वैश्वीकरण की सामाजिक स्वीकृति के लिए भी वोटरशिप आवश्यक है। याचिका में बहुप्रचारित मान्यताओं का खण्डन करते हुए कहा गया है कि यदि काम करने के लिए गरीबों की फौज बनाकर रखना जरूरी होता तो यूरोप और आस्ट्रेलिया का विकास न हुआ होता। वहां गरीबी नहीं है, फिर भी विकास हुआ और हो रहा है। वोटरशिप संबंधी याचिका कहती है कि वोटरशिप की इस रकम को बिना मेहनत का प्राप्त पैसा माना जाएगा तो ब्याज में, मकानों व मशीनों के किराये में और संसद के बनाए उत्तराधिकार कानूनों से प्राप्त पैसे को भी बिना मेहनत का पैसा कहना पड़ेगा और इन सब को भी खारिज करना पड़ेगा। अगर वोटरशिप गलत है तो ब्याज, किराया और उत्तराधिकार में प्राप्त धन भी गलत है। याचिका में किये गए इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि याचिका में जो गम्भीर खोज की गई है हमें चाहिए कि राष्ट्र को उसका लाभ मिले, इसके लिए आवश्यक है वोटरशिप के खिलाफ उग्र प्रतिक्रिया व्यक्त करने से पहले मामले का पूरा अध्ययन किया जाये।
केप्लर नामक वैज्ञानिक ने जब पहली बार कहा कि 11.2 किलोमीटर प्रति सेकण्ड के वेग से आसमान में फेंका गया कोई पत्थर नीचे नहीं गिरेगा। उस समय यह बात सबको अटपटी लगी थी। यदि इस अटपटी बात को बिना पर्याप्त अध्ययन के खारिज कर दिया जाता तो आज उपग्रहों को आसमान में फेंककर उनको वहां टिकाये रहना संभव न हो पाता और रेडियो, टेलीवीजन, मोबाइल, इंटरनेट जैसी सुविधाओं से आज भी मानवता को वंचित रहना पड़ता। सस्ती लोकप्रियता सांसदों को तब मिल सकती थी, जब ये सांसद एक ही पार्टी के होते। लोकसभा के माननीय 31 सांसदों ने सिक्किम डेमोक्रटिक-फ्रंट की अध्यक्षता नकुलदास राय में मतदातावृत्ति सांसद परिषद बनाया है। संसद के 133 सांसदो ने याचिका को प्रतिहस्ताक्षरित किया है उसमें सीपीआई और सीपीएम और कुछ अन्य इक्का दुक्का पार्टियों को छोड़कर सभी पार्टियों के सांसद शामिल हैं। यदि वोटरशिप का फायदा होगा तो वह किसी दल विशेष को नहीं, अपितु संसद नामक संस्था को होगा।
यदि चौदहवीं लोकसभा वोटरशिप का प्रस्ताव पारित करके कानून बना देती है तो जनहित याचिकाएं संसद में जाने लगेंगी। इन याचिकाओं का निस्तारण संसद ज्यादा संवेदनशीलता के साथ कर सकती है, क्योंकि अदालत की तुलना में उसके पास विवेकाधिकार अधिक होता है। जनहित याचिकाओं को निपटाने का अपना संविधान प्रदत्त दायित्व निभाने का काम यदि संसद शुरू कर देती है तो संसद और अदालतों के बीच आये दिन होने वाला टकराव भी स्वतः टाला जा सकता है, जिससे लोकतंत्र को और मजबूती मिलेगी।
भरत गांधी के बारे में
मुंबई में पैदा हुए वोटरशिप विचार के जन्मदाता भरत गांधी मूलत: उत्तर प्रदेश के जनपद जौनपुर के हैं। उनकी प्राथमिक शिक्षा उनके गांव के ही सरकारी स्कूल में हुई है जबकि उन्होंने उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राप्त की और कई प्रतिष्ठाजनक प्रतियोगी परीक्षाएं भी उत्तीर्ण कीं। भरत गांधी सिविल सर्विसेज़ में जाना चाहते थे किन्तु जब उनके सामने सिविल सर्विसेज के पेपर आये तो उसमें पूछे गये सवालों की निरर्थकता को देखकर उन्होंने शिक्षा व्यवस्था के प्रति निजी स्तर पर विद्रोह किया और अपनी डिग्रियों और प्रमाणपत्रों के बहिष्कार का फैसला किया। सितम्बर 1993 में सरकारी नौकरी न करने का फैसला किया और स्नातक के बाद प्रथम प्रयास में पीसीएस की प्राथमिक परीक्षा पास करने के बावजूद भी आगामी परीक्षाओं का बहिष्कार कर दिया। सन् 1994 में उन्होंने नेशनल फाउण्डेशन ऑफ एजुकेशन एण्ड रिसर्च नेफर नाम का संगठन इलाहाबाद के अकादमिक लोगों के सहयोग से बनाया। इस संगठन ने दो वर्षो में भारत की एक वैकल्पिक शिक्षा व्यवस्था तैयार की। यह व्यवस्था अभी भी संसदीय मंजूरी का इंतजार कर रही है। सन् 1995 में भरत गांधी ने जातिवाद के खिलाफ एक सामाजिक अभियान छेड़ा और अपने नाम के साथ�गांधी� शब्द जोड़ा। इसके पीछे भी एक शपथ है। इस शपथ को लेने वाले के लिए अनिवार्य होता है कि वह किसी आदमी का मूल्याकंन उसके जन्म की बजाय कर्म से करेगा। अपनी जन्मना जाति की बजाय कर्मणा जाति का परिचय देगा। नाम के साथ जातिपुत्र या जातिपुत्री का प्रमाण देने के बजाय राष्ट्रपुत्र या राष्ट्रपुत्री होने का प्रमाण देगा। आत्मसाक्षात्कार के बाद अपना नामकरण संस्कार अपने ही हाथों दुबारा करेगा। पुरानी जाति का नाम त्याग करके गांधी शब्द नाम के साथ जोडे़गा। पुरानी जाति का नाम अपने परिचय में न किसी से बतायेगा और न ही किसी से पूछेगा। वह अंतर्जातीय और अंतर्धामिक विवाह करेगा, और विवाह किये हुए दम्पत्तियों में ही शादी-विवाह का रिश्ता बनायेगा वह स्वयं को समदर्शी समाज का सदस्य बतायेगा, न कि किसी धर्म या किसी सम्प्रदाय का। वह मजबूत और कमजोर के संघर्ष में सदैव कमजोर के पक्ष में खड़ा होगा।
भरत गांधी ने कई पुस्तकें लिखी हैं। उनमें प्रमुख हैं-शिक्षा व्यवस्था का नेफर मॉडल, गैप सात खंडों में, इन सातों खंडों के नाम इस प्रकार हैं-परमात्मा और आध्यात्मिक भौतिकी, सफलता की डाइनेमिक्स, साम्यधर्म और विवाह के मॉडल, आर्थिक तंगी और पूंजीवादी साम्यवाद, राजनीतिक खतरे और समाज प्रबंध, सामाजिक शारीरिकी और जीरोपैथ, आत्मा और आध्यात्मिक आनुवंशिकी। गैप नामक पुस्तक प्रवचन शैली में लिखी गई हैं और डॉक्टर नामक एक उपन्यास भी लिखा है। 'महाजनों के नाम चिठ्ठी नामक पुस्तक में उन्होंने समाज के शक्तिशाली लोगों को उनके कर्तव्य का बोध कराया है। भरत गांधी की कुछ पुस्तकें प्रकाशित भी हुई हैं, जैसे-दस अंगुली दस पेट के दस सवाल, गांव का संविधान, विश्व अर्थव्यवस्था युग का घोषणापत्र। राजनीतिक उदारीकरण-आर्थिक उदारीकरण का जवाब नामक निबंध संग्रह प्रकाशन की प्रक्रिया में है। भारत का लोकतांत्रिक संविधान उनके द्वारा संशोधित भारत का नया संविधान है, जिसे उनके मित्रों के सहयोग से भारत के संविधान में संशोधन प्रस्ताव के रूप में तैयार करके 15 अगस्त 2000 को भारत के राष्ट्रपति को सौपने का प्रबंध किया गया। भरत गांधी को उत्तर प्रदेश सरकार ने जब जेल भेजा तो समय पाकर उन्होंने जेल में जनोपनिषद पॉच खंडों में लिखा। यह पुस्तक उन्होंने प्रश्नोत्तर शैली में लिखी है। उन्होंने एक पुस्तक लिखी है मेरा इन्टरव्यू, जिसमें उन्होंने अपने जीवन में लिए गये फैसलों के विस्तार से कारण बताए हैं। वे स्तम्भ लेखन भी करते हैं।
भरत गांधी ने सन् 2004 में मतदाताओं को देश की आर्थिक सत्ता में भागीदारी देने के लिए एक याचिका तैयार करके संसद में पेश करने का अभियान चलाया। याचिका इतनी प्रभावशाली थी कि उसे लोकसभा में पेश करने के लिए 112 सांसदों ने और राज्यसभा में पेश करने के लिए 21 सांसदों ने अपने-अपने सदन को नोटिस दे दिया और लगभग 200 अन्य सांसदों ने याचिका की विषय वस्तु का समर्थन किया। लोकसभा और राज्यसभा दोनों ने केन्द्र सरकार को नोटिस जारी करके याचिका पर जवाब मांगा। प्रधानमंत्री ने जब 6 महीने तक जवाब नहीं दिया तो 110 सांसदों ने मार्च 2007 में क्षुब्ध होकर एक संसदीय मंच का गठन कर लिया। इस मंच का नाम रखा-मतदातावृत्ति सांसद परिषद सांसदों का दबाव देखकर केन्द्र सरकार गांधी के प्रस्ताव पर बजट सत्र 2008 में बहस के लिए तैयार हो गई है। यदि संसद में गांधी के प्रस्ताव पर कानून बनता है, तो सभी मतदाताओं को कम से कम 1750 रूपया और मंहगाई भत्ता प्रतिमाह एटीएम कैश कार्ड जैसे पारदर्शी उपायों से मिलने लगेगा। प्रस्तुति-एआर गौतम