सियाराम पांडेय 'शांत'
राज्यों के विभाजन की दागबेल असमान विकास, राजनीतिक उपेक्षा, अन्याय और अविश्वास की सरजमीं पर ही पड़ती है। इसमें संदेह नहीं कि आज़ादी के बाद देश में सर्वाधिक समय तक कांग्रेस ही सत्तासीन रही है। अगर इसके बाद भी देश का कोई भू-भाग इस बात की शिकायत करता है कि समृद्ध प्राकृतिक विरासत, अपार खनिज सम्पदा होने के बावजूद वहां मुफलिसी है, सुविधाओं का अभाव है या फिर लोग दाने-दाने को मोहताज हैं तो इसके लिए कांग्रेस अपने को निर्दोष करार दे भी कैसे सकती है? तेलंगाना को अलग राज्य बनाए जाने की घोषणा के बाद अब उसके बड़े नेताओं ने यह कहना शुरू कर दिया है कि पूरे देश में अलग राज्यों का निर्माण कैसे किया जा सकता है। तेलंगाना और अन्य राज्यों की आंदोलनात्मक पृष्ठभूमि को भी वे इसके लिए आधार बनाते हैं। अलगाव की चिनगारी कब आग बन जाती है, पता ही नही चलता। फिर इसकी लपटें अपने प्रभाव क्षेत्र में ही सक्रिय रहें, यह भी नहीं कहा जा सकता। उसकी तपिश से पूरा देश जलता है।
तेलंगाना मामले में टीआरएस प्रमुख के चंद्रशेखर राव की आमरण अनशनगत ब्लैकमेलिंग और कांग्रेस आलाकमान की अदूरदर्शिता की आग में पूरा देश जलने को है। के चंद्रशेखर राव के एक आमरण अनशन ने भाषा के आधार पर विभाजित आंध्रप्रदेश के तेलुगू भाषियों को कई खेमों में बांट दिया है। इस आग को हवा देने में राजनेता भी पीछे नहीं है। क्या मायावती, क्या जसवंत सभी खम ठोंक कर अलगाववादी राजनीति के अखाड़े में उतर आए हैं। मायावती अगर उत्तर प्रदेश को चार टुकड़ों में विभाजित देखना चाहती हैं तो जसवंत सिंह भी अलग गोरखालैंड का समर्थन करते फिर रहे हैं। मायावती ने तो एक तरह से पत्र लिखकर गेंद कांग्रेस के पाले में डालने की कोशिश की है। कांग्रेस के कुछ बड़े नेता मायावती पर विघटन की आग को बेमतलब हवा देने का आरोप लगा रहे हैं। वे यह भी कह रहे हैं कि अगर मायावती हरित प्रदेश, बुन्देलखंड और पूर्वांचल को अलग राज्य बनाए जाने की इतनी ही समर्थक हैं तो पहले उन्हें इसके लिए अपनी विधानसभा में प्रस्ताव पारित कराना चाहिए। कांग्रेस, सपा और भाजपा की इस राय में दम हो सकता है लेकिन अलग तेलंगाना राज्य के गठन की घोषणा करते वक्त कांग्रेस को यही नीति आंध्र प्रदेश में भी लागू करनी चाहिए थी।
संविधान का अनुच्छेद तीन केंद्र सरकार को किसी भी रूप में इस बात के लिए बाध्य नहीं करता कि वह राज्य विधानसभा में प्रस्ताव पारित होने के बाद ही किसी नए राज्य के गठन की प्रक्रिया शुरू करने की घोषणा करे। बायलॉज यह है कि किसी भी नए राज्य के गठन से पूर्व केंद्र सरकार को उस राज्य से विमर्श करना चाहिए। तेलंगाना मामले में विमर्श के नाम पर कांग्रेस ने जो नौटंकी की, उसका हस्र सबके सामने है। असम के अलगाववादी संगठन के मुखिया परेश बरुआ केंद्र सरकार से असम में जनमत संग्रह कराने की मांग करने लगे हैं। कश्मीर में जनमत संग्रह की मांग पाकिस्तान पहले से ही करता रहा है ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि परेश बरुआ की मांग के पीछे किसी विदेशी ताकत का भी हाथ हो सकता है। अलग मिथिलांचल, बोडोलैंड और गोरखालैंड को लेकर सांसदों की चिंता लोकसभा में भी गूंज चुकी है। अलग बुंदेलखंड की मांग कर रहे राजा बुंदेला या फिर अलग तेलंगाना मांग रहे चंद्रशेखर राव की इस दलील में दम हो सकता है कि अगर उन्हें स्वतंत्र राज्य मिला तो वे बेहतर तरक्की कर सकते हैं लेकिन उन्हें यह नही भूलना चाहिए कि बड़े राज्यों का अपना ही महत्व है।
छोटा परिवार सुखी परिवार का नारा सर्वथा उचित है लेकिन आपत्ति के थपेड़ों को झेल पाना छोटे परिवारों के लिए कितना कठिन होता है, इस पर भी विचार किया जाना चाहिए। राजग सरकार में तीन राज्यों छत्तीसगढ़, उत्तरांचल और झारखंड के गठन के उपरांत नए राज्यों की संरचना को लेकर नेताओं में जो सुसुप्तिभाव था, कांग्रेस की हड़बड़ी ने उसे तोड़ दिया है। कांग्रेस भी इस बात को स्वीकार करती है कि अलग तेलंगाना राज्य के गठन की घोषणा उससे जल्दीबाजी में हो गई है लेकिन इसका अमल ठोक-बजाकर ही किया जाएगा। हड़बड़ी में गड़बड़ी स्वाभाविक है और उसके अपने दुष्परिणाम भी होते हैं। कल तक आंध्र प्रदेश के जो विधायक अलग तेलंगाना राज्य के हिमायती थे, वे अचानक ही उसके विरोधी कैसे हो गए, इसकी तह में भी कांग्रेस को जाना होगा। यह सच है कि कांग्रेस ने जिस कोर-कमेटी के समक्ष इस मुद्दे को रखा, उनका आंध्रप्रदेश की जमीनी राजनीति से कोई सरोकार नही था। यही नहीं आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री के रोसैया भी थोड़े समय के लिए ही बुलाए तो गए लेकिन उन्हें भी परिस्थितियों को ठीक से जानने समझने का मौका नहीं दिया गया। शायद यही वजह है कि वे एक सौ चालीस से अधिक विधायकों के इस्तीफे पर कुछ खास प्रतिक्रिया दे पाने की हैसियत में नहीं है। बीस मंत्री अलग से सामूहिक त्यागपत्र देने का दबाव बना रहे हैं। बात यहीं तक होती तो भी गनीमत थी लेकिन अलग तेलंगाना के विरोध में पंच और सरपंच भी इस्तीफे देने लगे हैं।
रामाल्लु ने तो भाषा के आधार पर आमरण अनशन करके मरणोपरांत आंध्र प्रदेश पा लिया था। लेकिन मद्रास को राजधानी के रूप में पाने का उसका सपना अधूरा ही रह गया। कुछ ऐसा ही तेलंगाना राष्ट्र समिति के मुखिया के चंद्रशेखर राव के साथ भी होने जा रहा है। हैदराबाद दरअसल तेलंगाना क्षेत्र में पड़ता है और वह आंध्रप्रदेश की राजधानी भी है। ऐसे में टीआरएस कभी नहीं चाहेगी कि हैदराबाद उसे न मिले। हैदराबाद सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के लिहाज से भारत ही नहीं, पूरे विश्व में अपना महत्व रखती है ऐसे में असल लड़ाई हैदराबाद पर अधिकार को लेकर है और कोई भी पक्ष उसे खोना नहीं चाहेगा। फलत: कांग्रेस की मुसीबतें यहीं थमती नजर नहीं आती। कांग्रेस को नए राज्यों का गठन करने से कोई नहीं रोक रहा। नए राज्य बनने चाहिए। नए राज्यों से खासकर छोटे राज्यों के गठन से आम आदमी की सहूलियतों में इजाफा होगा, ऐसा सभी सहजता से विश्वास कर सकते हैं। न करने का कोई कारण भी नहीं है लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि नए राज्यों के गठन को लेकर कौन आंदोलित है। उसकी मंशा क्या है। कहीं वह विदेशी ताकतों के हाथों में खेल तो नहीं रहा है।
सीमावर्ती राज्यों में रह रहे लोग भाषा के आधार पर, विकास के आधार पर अथवा दूरी के आधार पर भारत के कितने नज़दीक हैं, यह भी सोचना होगा। पूर्वोत्तर राज्यों में चीन अगर भारत की सीमा में घुस जाता है तो इसका मतलब यह नहीं कि वह भारत से सम्पन्न है बल्कि इसका एक आशय यह भी है कि सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को इस बात से कोई सरोकार नहीं कि उनके इलाके में कौन क्या कर रहा है। भारत के नेताओं को सर्वप्रथम सीमावर्ती राज्यों की समस्याओं को दूर करना होगा। वहां के लोगों के बीच अपने लिए सहानुभूति हासिल करनी होगी और उनमें यह विश्वास पैदा करना होगा कि सही मायने में भारत ही उनका हितैषी है। तभी नए राज्यों के गठन की प्रासंगिकता भी है अन्यथा छोटे-छोटे राज्य शत्रु देशों के हाथों का कब खिलौना बन जाएंगे, पता भी नही चलेगा। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान कांग्रेस के वरिष्ठ नेता नारायण दत्त तिवारी की राय आज भी बेहद प्रासंगिक है। उन्होंने कहा था कि देश की एकता और अखंडता के लिए बड़े राज्यों का होना भी जरूरी है। कांग्रेस को अगर इस बात का मुगालता है कि छोटे राज्यों का गठन करके ही समाज के सबसे निचले तबके को विकास की रोशनी मुहैय्या कराई जा सकती है तो उसे आईना दिखाने के लिए छत्तीसगढ़ और झारखंड काफी हैं। झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा को तो पच्चीस सौ करोड़ रुपये से अधिक के भ्रष्टाचार के मामले में जेल की हवा तक खानी पड़ रही है। उत्तराखंड कुछ मामले में विकसित अवश्य हुआ है लेकिन इसके पीछे उसका पर्यटन और प्राकृतिक संसाधनों से सक्षम होना भी बहुत हद तक प्रभावी रहा है।
जहां तक राजनीति स्थिरता की बात है तो नवगठित राज्यों में वह कभी देखने को नहीं मिली। चाहे उत्तराखंड रहा हो या झारखंड। सत्ता का संघर्ष हमेशा विकास पर हावी रहा। पूर्वोत्तर के राज्यों अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा, नागालैंड, गोवा में तो राजनीतिक स्थिरता की बात करना भी बेमानी है। वहां पलक झपकते ही सरकारें बदल जाती हैं। नेताओं की निष्ठा दम तोड़ देती है और इसका दुष्प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था पर और वहां के विकास पर पड़ता है। विकास के लिए केंद्र सरकार द्वारा प्रदत्त धनराशि और उसके खर्च की जिम्मेदारी लेने के प्रति कोई गंभीर नहीं हो पाता। अगर यह कहा जाए कि पूर्वोत्तर में छोटे राज्यों के गठन का फार्मूला सर्वथा विफल हो गया है तो कदाचित गलत नहीं होगा। यह कहने में भी गुरेज नहीं होना चाहिए कि इसका लाभ चीन यह कहकर उठाता रहा है कि जब इन राज्यों में राजनीतिक स्थिरता ही नहीं है तो वह यहां के लोगों के लिए मुफीद हो भी कैसे सकता है। राजग सरकार में गठित उत्तरांचल झारखंड और छत्तीसगढ़ के सत्ता संघर्ष भी कुछ कम विस्मयकारी और त्रासद नहीं है। यहां विकास कम और नेताओं के हित अधिक सधते हैं। अगर ऐसा ही कुछ तेलंगाना की भी किस्मत में बदा है तो क्या कहा जा सकता है? के चंद्रशेखर राव भले ही आज की तिथि में हीरो हो गए हों लेकिन जिस तरह से अखंड आंध्रप्रदेश को लेकर आंदोलन हो रहे हैं, उससे नहीं लगता कि उनकी उम्मीदों का दीया जलता रहेगा। केंद्र और आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री के रोसैया जिस तरह पलटी मार रहे हैं उसे देखते हुए यह बात तो कही ही जा सकती है।
आग से आग बुझाने का कोई सिद्धांत नही है। जब घोड़ों को नाल ठुकती है तो मेढकी भी अपने पैरा उठा देती है। अवसर का लाभ उठाने में कोई किसी से पीछे नहीं है। पृथक गोरखालैंड और विदर्भ को लेकर आमरण अनशन शुरू भी हो गए हैं। अलग मिथिलांचल, कूर्म प्रदेश, बोडोलैंड, और खालिस्तान की मांग भी जोर पकड़ सकती है और यह सब इसलिए भी हो रहा है कि छोटे राज्यों के हिमायतियों को इस बात का यकीन हो गया है कि केंद्र सरकार आंदोलन की भाषा ही समझती है। इतिहास साक्षी है कि छोटी छोटी रियासतें ही देश की गुलामी का कारण बनी थीं। क्या हम छोटे राज्यों का गठन कर पुन: उसी दिशा में नहीं बढ़ रहे हैं। ऑपरेशन ब्लू स्टार के पहले के पंजाब को क्या हम भूल गए। जब अलग खालिस्तान के गठन को लेकर पंजाब में आए दिन दिल दहलाने वाली विस्फोटक घटनाएं हुआ करती थीं और हमारा पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान खालिस्तान समर्थकों को अपने यहां प्रशिक्षण देकर देश की कानून व्यवस्था के समक्ष चुनौती प्रस्तुत कर रहा था। अगर एक बार फिर तेलंगाना की देखादेखी अलग खालिस्तान का जिन्न बोतल से बाहर आता है तो क्या यह देश के लिए शुभ संकेत होगा। वैसे भी जिस तरह पूरे देश से नए राज्यों के गठन की मांग उठ रही है उसमें कांग्रेस की पेशानियों पर बल ला दिया। मौके की नजाकत को देखते हुए उसने अपनी योजना पर हड़बड़ी में अमल न करने का संकल्प भी व्यक्त कर दिया है।
रहा तेलंगाना को अलग राज्य बनाने का सवाल तो देश के पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इस मामले पर चुप्पी साधना ही मुनासिब समझा था। इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी और पीवी नरसिंह राव (जो इसी क्षेत्र के थे), भी इस मामले को तूल देने या फिर आगे बढ़ाने से बचते रहे। चेन्ना रेड्डी, पीवी नरसिंह राव और वाईएस राजशेखर रेड्डी जैसे मुख्यमंत्री तेलंगाना क्षेत्र के होने के बावजूद नए राज्य के गठन की दिशा में अगर कुछ नहीं कर पाए तो इसके लिए कांग्रेस की अपनी रीति-नीति ही बहुत हद तक जिम्मेदार थी। वह नहीं चाहती थी कि आंध्रप्रदेश का विभाजन हो। कांग्रेस से बेहतर इस बात को शायद ही कोई समझता हो कि अगर तेलंगाना को राज्य बनाया गया तो रायलसीमा और उत्तर-आंध्र को भी राज्य बनाने की वर्षों पुरानी मांग फिर मूर्त रूप ले सकती है।
कांग्रेस राज्यों के गठन की पेचीदगियों से वाकिफ है। भारत इस स्थिति में नहीं कि कई राज्यों के गठन और विकास का खर्च झेल सके। वर्ष 1940 में कामरेड वासुपुनैया की लगाई आग 69 साल बाद आंध्रप्रदेश के लिए भष्मासुरी साबित हो रही है। राज्यों का गठन होना चाहिए लेकिन इसका अभीष्ठ विकास हो, यही अच्छा है। तेलंगाना को राज्य बनाने के पक्ष में जो तर्क दिए जा रहे हैं या फिर जिस किसी भी राज्य के गठन में विकासहीनता को आधार बनाया जा रहा है, वह इस बात का द्योतक तो है ही कि देश में समस्याओं के समाधान पर नहीं, उसे उलझाने पर अधिक ध्यान दिया जाता है। काश, इस देश के नेता अलग अलग राज्यों के गठन की राजनीति से अलग हटकर सही मायने में विकास को महत्व दे पाते तो यह एक बड़ी उपलब्धि होती और यह देश पर नेताओं का बड़ा उपकार होता। (लेखक अमर उजाला लखनऊ में मुख्य उपसंपादक हैं)