डॉ राधेश्याम शुक्ल
आज हम 'हिंदू' शब्द की कितनी ही उदात्त व्याख्या क्यों न कर लें, लेकिन व्यवहार में यह एक संकीर्ण धार्मिक समुदाय का प्रतीक बन गया है। राजनीति में हिंदू राष्ट्रवाद पूरी तरह पराजित हो चुका है। सामाजिक स्तर पर भी यह भारत के अनेक धार्मिक समुदायों में से केवल एक रह गया है। कहने को इसे दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा धार्मिक समुदाय माना जाता है, लेकिन वास्तव में कहीं इसकी ठोस पहचान नहीं रह गयी है। सर्वोच्च न्यायालय तक की राय में हिंदू, हिंदुत्व या हिंदू धर्म की कोई परिभाषा नहीं हो सकती, लेकिन हमारे संविधान में यह एक रिलीजन के रूप में दर्ज है। रिलीजन के रूप में परिभाषित होने के कारण भारत जैसा परम्परा से ही सेकुलर राष्ट्र उसके साथ अपनी पहचान नहीं जोडऩा चाहता। सवाल है तो फिर हम विदेशियों के दिये इस शब्द को क्यों अपने गले में लटकाए हुए हैं? हम क्यों नहीं इसे तोड़कर फेंक देते और भारत और भारती की अपनी पुरानी पहचान वापस ले आते।
हिंदू धर्म को सामान्यतया दुनिया का सबसे पुराना धर्म कहा जाता है। यह भी कहा जाता है कि दुनिया में ईसाई और इस्लाम के बाद हिंदू धर्म को मानने वालों की संख्या सबसे अधिक है। लेकिन क्या वास्तव में हिंदू धर्म नाम का कोई धर्म है? दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर रहे डॉ डीएन डबरा का कहना है कि 'हिंदू धर्म' दुनिया का सबसे नया धर्म है। हो सकता है कि कुछ धर्म इससे भी नये हों, लेकिन इसमें दो राय नहीं कि हिंदू धर्म दुनिया के नवीनतम धर्मों में से एक है। यह एक ऐसा धर्म है, जिसे अंग्रेजों ने पैदा किया। डबरा साहब की यह बात बहुत हद तक सही है, क्योंकि 19वीं शताब्दी के पहले 'हिंदू' शब्द कभी भी धर्म के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ। यद्यपि यह शब्द 12वीं, 13वीं शताब्दी में भारत आ चुका था, लेकिन 19वीं शताब्दी के पहले तक यह भारत भूमि के निवासियों का द्योतक था। इस शब्द का व्यापक प्रयोग दिल्ली में सल्तनत काल की शुरुआत से शुरू होता है, लेकिन यह केवल बाहर से आये मुसलमानों से भिन्न देशी निवासियों की पहचान के लिए प्रयुक्त होता था। कश्मीरी और दक्षिण भारत के साहित्य में यह 1323 ई. से मिलने लगता है। चौदहवीं शताब्दी के विजयनगर के शासकों को हिंदू राजाओं में सर्वश्रेष्ठ कहा गया है, लेकिन यहां हिंदू राजा से आशय देशी राजा से था। उनका मुकाबला बीजापुर के सुल्तान से रहता था। सुल्तान का अर्थ था विदेशी मुस्लिम राजा। सत्रहवीं शताब्दी की तेलुगू रचना 'रायवचकमु' में विदेशी मुस्लिम शासकों को क्रूर और अन्यायी बताते हुए निंदा की गयी है। सन् 1455 ई. में कवि पद्मनाभ ने जालेर के चौहानों की प्रशस्ति में एक ग्रंथ लिखा 'कन्हदड़े प्रबंध', इसमें राजा को हिंदू कहकर प्रशंसा की गयी है, लेकिन यह प्रशंसा देशी राजा के लिए है, हिंदू धर्मानुयायी के लिए नहीं। महाराणा प्रताप के प्रशस्तिकारों ने उस समय उन्हें 'हिंदू कुल कमल दिवाकर कहा है, किंतु यहां भी यह हिंदू, भारतीयता का पर्याय है। शिवाजी के शासन को 'हिन्दवी स्वराज्य' कहा जाता था किंतु उसका अर्थ भी 'स्वदेशी शासन' था, कोई हिंदू धर्म का शासन नहीं।
डीएन डबरा ने ही बताया है कि अंग्रेजों ने भारत में जब मतगणना की शुरुआत की, तो उनके सामने इस देश की जनसंख्या के वर्गीकरण की समस्या आयी। यहां असंख्य जाति और समुदाय थे। धार्मिक संप्रदायों की भी कमी न थी। तो जनगणना अधिकारियों ने सारे गैर मुस्लिम समुदायों का एक वर्ग बना दिया और उसे हिंदू नाम दे दिया। यह मुस्लिमों की पहले से तय विभाजन लाइन को आगे बढ़ाने जैसा था, लेकिन यहां भी धर्मांतरित मुसलमानों को लेकर एक समस्या थी। उनके लिए 'हिंदू-मोहम्मडन (मुस्लिम-हिंदू) शब्द का प्रयोग किया गया। यह प्रयोग करीब 1911 की जनगणना तक चला। धीरे-धीरे यह शब्द भारतीय हिंदुओं के लिए रूढ़ हो गया और यहां के मूल निवासी भारतीयों ने अपने इस नये नाम को स्वीकार भी कर लिया। अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ देश में जो राष्ट्रीय आंदोलन और समाज सुधार आंदोलन शुरू हुए, उन्होंने भी इस हिंदू शब्द को अंगीकार कर लिया।
अंग्रेजों ने वास्तव में इस देश को अत्यंत पिछड़ा सिद्ध करने के लिए अपने ज्ञान, विज्ञान और सामाजिक, राजनीतिक और दार्शनिक चिंतन की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए एक व्यापक अभियान चलाया। इसके मुकाबले में भारतीय राष्ट्रवादियों ने प्राचीन भारतीय साहित्य दर्शन और चिंतन को आगे लाने का प्रयत्न शुरू किया और उसे हिंदू धर्म, दर्शन, अध्यात्म आदि की संज्ञा दी। इस बीच तमाम यूरोपीय विद्वानों ने भारत के प्राचीन वैदिक और संस्कृत साहित्य-वेद, उपनिषद, पुराण, महाकाव्य आदि के अंग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत किये। उन्होंने भारत की सारी पुरानी उपासनाओं, यज्ञों, आदि को हिंदू धर्म की संज्ञा दे दी। भारतीय चिंतकों ने अपने देश की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए पश्चिम के धर्मों ईसाई और इस्लाम के मुकाबले भारतीय यानी हिंदुओं के धर्म चिंतन की श्रेष्ठता का गुणगान शुरू किया। इस तरह सारी भारतीय चिंतन धारा को हिंदू धर्म दर्शन की संज्ञा मिल गयी। उन्होंने ईसाई और मुस्लिम धर्मों की तरह ही और कथित हिंदू धर्म की कड़ी निंदा की और वेद को केंद्र में रखकर आर्यसमाज के रूप में एक नये हिंदूवाद की स्थापना की।
स्वामी विवेकानंद और महर्षि अरविंद जैसे महापुरुष भी उससे मुक्त नहीं रह सके। विवेकानंद की शिक्षा-दीक्षा अंग्रेजी में हुई थी। वे पश्चिमी चिंतन और विचारों से अच्छी तरह परिचित थे। रामकृष्ण परमहंस के संपर्क में आने के बाद उनके अंदर भारतीय राष्ट्रवाद की ज्योति जगी। उन्होंने वास्वत में आधुनिक काल में हिंदू अध्यात्म की आधारशिला रखने का काम किया। उन्होंने वेदांत दर्शन और गीता दर्शन के कर्मवाद के साथ योग को भी शामिल करके एक व्यावहारिक वेदांत (प्रैक्टिकल वेदांत) की शिक्षा दी। ग्यारह सिंतबर 1893 को शिकागो में उनका उद्बोधन वास्तव में हिंदू धर्म संवलित राष्ट्रवाद की स्थापना का उद्घोष था। उन्होंने पाश्चात्य भौतिकवादी दर्शन के मुकाबले भारत के आध्यात्मिक एवं सर्वसमावेशी दर्शन को हिंदू धर्म-दर्शन के रूप में स्थापित करने का प्रयत्न किया। सर्वधर्म समभाव की अवधारणा सबसे पहले उन्होंने ही दुनिया के सामने प्रस्तुत की, जिसे महात्मा गांधी और राधाकृष्णन ने भी अपनाया और आगे बढ़ाया। यह सब भारतीय राष्ट्रवादी या नवजागरणवादी कर रहे थे, लेकिन उधर अंग्रेज महाप्रभु अपनी नीतियां चल रहे थे। बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में कलकत्ता विश्वविद्यालय में इतिहास के दो विभाग शुरू किये गये। एक प्राचीन भारतीय इतिहास के लिए और दूसरा इस्लामी इतिहास के लिए। प्राचीन भारतीय इतिहास हिंदू युग कहा गया और उसके बाद मध्यकालीन इतिहास को मुस्लिम युग। इससे एक हिंदू इतिहास दृष्टि बनी और एक मुस्लिम इतिहास दृष्टि । इसने बाद के स्वातंत्र्य आंदोलन को भी प्रभावित किया।
भारत के क्रांतिकारी आंदोलन की शुरुआत करने वालों में पहला नाम श्यामजी कृष्ण वर्मा का आता है, जो मूलत: आर्य समाज के अनुयायी थे। सन् 1905 में उन्होंने लंदन में 'इंडिया हाउस' की स्थापना की। कहा जाता है कि इस 'इंडिया हाउस' की स्थापना के प्रेरणा स्रोत विनायक दामोदर सावरकर थे। वही सावरकर जिन्होंने पहली बार हिंदू राष्ट्रवाद को परिभाषित करने की कोशिश की और बाद में 1915 में भारत में 'अखिल भारतीय हिंदू महासभा' के नाम से पहली राजनीतिक पार्टी की स्थापना की। श्यामजी कृष्ण वर्मा ने 'इंडियन सोसियोलाजी' नाम से एक पत्रिका शुरू की थी और वह सशस्त्र संघर्ष से ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्ति की कल्पना कर रहे थे। इस देश में हिंदू या हिंदुत्व को राजनीति का आधार बनाने का पहला प्रयोग सावरकर ने ही किया। लेकिन उनका यह प्रयास मुस्लिम राजनीति की प्रतिक्रिया स्वरूप सामने आया, अन्यथा उनका भी धर्म से कोई वास्ता नहीं था, उनकी चिंता राष्ट्र की थी।
आज भारत में सच कहें तो मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा दोनों की राजनीति विफल हो चुकी है, लेकिन यह विडंबना ही है कि देश की राजनीति अभी भी हिंदू-मुस्लिम विवादों में उलझी है। इसका एकमात्र कारण है कि 'हिंदू' नाम का एक मिथ्या धर्म खड़ा कर दिया गया। अब तक हिंदू या हिंदुत्व की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं हो सकी है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में भी कह दिया गया है कि इसकी कोई ठोस परिभाषा नहीं हो सकती। फिर भी हमारे संविधान में हिंदू एक उसी तरह के धर्म के रूप में अंकित है, जैसे इस्लाम और ईसाइयत। सर्वोच्च न्यायालय सहित सभी चिंतक और सिद्धांतकार कहते हैं कि यह अनेक धर्मो की सम्मिलित परंपरा है, एक जीवनशैली है, तो फिर इसे इस्लाम, ईसाई आदि के समकक्ष एक धर्म (रिलीजन) की तरह क्यों परिगणित किया जाता है?
अनेक विचारक मानते हैं कि यह 'हिंदू' शब्द ही सारी समस्या की जड़ है। यदि इस शब्द से मुक्ति मिल जाए, तो अनेक समस्याओं का त्वरित समाधान हो जाए। हिंदूवादी इस कल्पना से भी आहत हो सकते हैं। आज हिंदू नाम छोड़ दें, तो भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान क्या रह जाएगी? हम अपने इतिहास को किस नाम से याद करेंगे? यह समस्या देखने-सुनने में निश्चय ही गंभीर लगती है, लेकिन उतनी गंभीर नहीं है, जितनी प्रतीत होती है। यदि हममें इतना साहस हो कि हम विदेशियों की दी हुई अपनी जातीय और धार्मिक पहचान का लबादा उतार सकें, तो समस्या आसान हो जाएगी। 'हिंदू' शब्द के परित्याग से हमारे वेद, उपनिषद, पुराण, महाकाव्य आदि तो हमसे नहीं छिन जाएंगे, लेकिन हमारी भेदभावपूर्ण संकीर्ण पहचान अवश्य दूर हो जाएगी। इसके बाद हमें धर्म (रिलीजन) के परे रहकर राजनीति करना आसान हो जाएगा।
आज 'हिंदू' शब्द को लेकर मूल समस्या राजनीति की पैदा हो गयी है। हिंदू पालिसी या हिंदू राजनीति तब चल सकती थी, जब मुस्लिम विदेशी थे। आज जब मुस्लिम विदेशी नहीं रहे, भले ही उनकी धार्मिक आस्था के केंद्र देश की सीमाओं के बाहर हैं, तो फिर हिंदू राजनीति कैसे चल सकती है या हिंदू राष्ट्र कैसे कायम हो सकता है। इसी तरह हम इस देश में मुस्लिम राजनीति भी नहीं चलने दे सकते और न इस्लामी राष्ट्र कायम करने की कल्पना को चरितार्थ होने दे सकते हैं। यह तभी हो सकता है, जब राजनीति से रिलीजन की पहचान पूरी तरह समाप्त हो जाए। देश जब तक इस अल्पसंख्यक बहुसंख्यकवाद से बाहर नहीं निकलता, तब तक देश में न तो स्वस्थ राजनीति चल सकती है और न सामाजिक शांति कायम हो सकती है।
इसका सबसे अच्छा तरीका है कि हम अपनी पुरानी ऐतिहासिक और सेकुलर पहचान को वापस लाएं। हमने अपने देश को 'भारत' नाम दिया था। भा -रत अर्थात् ' प्रकाश में रत' यानी ज्ञान की आराधना में रत। भारत की संस्कृति 'भारती' की संज्ञा सहज ही प्राप्त कर सकती है। इस भारत के संपूर्ण निवासियों के संपर्क की भाषा को भी 'भारती' की संज्ञा दे सकते हैं। यदि हम 'भारती' को भारतीय संस्कृति मान लें, तो यहां की सारी चिंतन परंपराएं उसमें शामिल हो जाएंगी, उसमें अच्छी भी होंगी, बुरी भी होंगी। समाज अपने विवेक से बुरी परंपराओं का दमन और श्रेष्ठ का उत्थान कर सकता है। यह संस्कृति अंध-आस्था के बजाए विवेक पर केंद्रित होगी। उसकी अपनी आस्था विवेक, गतिशीलता, न्याय और सार्वभौम सुख और आनंद में निहित होगी। इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं कि भारतीय धर्म संस्कृति के लिए 'हिंदू' शब्द के उदय के पूर्ण अंग्रेजी में 'इंडियन पगान' शब्द का इस्तेमाल किया जाता था। वस्तुत: ईसाई विद्वान ईसाई धर्म के बाहर के सारे अन्य धर्मों में विश्वासों के लिए 'पगान' शब्द का इस्तेमाल करते थे। इसका आशय था पिछड़ा, नीच, गर्हित, जंगली, निंदनीय विश्वास एवं आस्थाएं। इनको समाप्त करके उनके स्थान पर ईसाई धर्म की स्थापना करना वे अपना कर्तव्य समझते थे। यह नया शब्द 'हिंदू' मिल जाने के बाद भी भारत के धर्मों के आस्थाओं के प्रति उनकी सामान्य अवधारणा बदली नहीं है।
साम्राज्यवादी गुलामी की जंजीरों से मुक्त होने वाला भारत पहला सबसे बड़ा देश था। तीसरी दुनिया के तमाम देश उसके बाद मुक्त हुए। भारत को चाहिए था कि वह अन्य सभी नवमुक्त देशों को एक नई राह दिखाता, लेकिन जो देश स्वयं अपने लिए कोई राह नहीं ढूंढ़ सका, वह दूसरों को क्या राह दिखाता है। इसलिए जब कोई यह कहता है कि 15 अगस्त 1947 को केवल सत्ता हस्तांतरण का कार्य पूरा हुआ था, देश को स्वतंत्रता नहीं मिली थी, तो चाहकर भी इसका खंडन करना मुश्किल होता है। हमने एक कठपुतले की तरह वह सब स्वीकार कर लिया, जो अंग्रेज साम्राज्यवादियों ने हमारे ऊपर थोपा था। हमें उन्होंने अपनी पसंद का एक नाम ही नहीं दिया, बल्कि हमारे देशा का भूगोल, भाषा, राजनीति, शासन, शिक्षा और चिंतनशैली भी इस तरह निर्धारित कर दी कि हम उसे शिरोधार्य कर अभी भी गर्व का अनुभव करते चले जा रहे हैं। अंग्रेजों के इस अद्भुत सामर्थ्य की निश्चय ही दाद देनी पड़ेगी कि भारतीयता के एकांत आग्रही राजनीतिक दल और राजनेता भी उनके ही बनाए हिंदुत्व के खांचे में बैठकर अपनी राष्ट्रीयता की लड़ाई लड़ रहे हैं।
आज की हिंदू अवधारणा यह बन गयी है कि वेदों में, कर्मवाद में, पुनर्जन्म में अवतारवाद में मूर्तिपूजा में विशवास करे वह हिंदू है। इसके साथ यह भी जोड़ दिया जाता है कि वह उदार, सहिष्णु और करुणामूर्ति। इन सारी विशेषताओं में बंधा हिंदू इनका प्रतिकार भी नहीं कर सकता। सर्वधर्म-समभाव की धारणा ने गलत और अतार्किक और अवैज्ञानिक सिद्धांतों के विरोध से भी उसे रोक दिया है।
अपने देश में वेदों और ईश्वर को प्रमाण मानने की कोई सर्वमान्य परंपरा कभी नहीं रही। ईश्वर हमेशा विवाद का विषय रहा। पारंपरिक दर्शन की 6 शाखाओं में से केवल एक ईश्वर और वेद को प्रमाण मानती है। ये दर्शन और विज्ञान की बातें मुक्त चिंतन के क्षेत्र की बातें हैं, जिसमें कोई अंतिम वाक्य कभी नहीं कहा जा सकता। भारत उन्मुक्त चिंतन का क्षेत्र रहा है। यहां राजनीति धार्मिक विश्वासों से संचालित नहीं होती थी, न किसी धार्मिक विश्वास विशेष वाले को राजनीति में कोई विशेष स्थान प्राप्त था। राजनीति प्राकृतिक न्याय से संचालित होती थी।
आजकल हिंदू धर्म को सनातन धर्म कहने की परंपरा चल पड़ी है। लेकिन सनातन धर्म तो नैतिकता और सदाचार के वे नियम हैं, जो सार्वभौम हैं, वे किसी धर्म विशेष की पहचान नहीं है, लेकिन प्राय: सभी धर्म उनका समर्थन करते हैं। इस शब्द 'सनातन धर्म' का पहला प्रयोग संभवत: बौद्धों ने किया है। वे सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, आदि को सनातन धर्म (एष धम्मो सनंतनो) कहते हैं। इसके विरुद्ध कुछ भी हो, उसे धर्म नहीं कहा जाता। लेकिन दुनिया के तमाम धर्म यहीं तक सीमित नहीं रहते। वे इसमें व्यापार और राजनीति को भी शामिल कर लेते हैं। दिक्कतें वहां पैदा होती हैं जब हम धर्म के नाम पर न्याय का पथ छोड़कर दूसरों पर आधिपत्य कायम करने की कोशिश में लग जाते हैं। आज दुनिया में इस्लामिक आतंकवाद इसी मजहबी राजनीति या साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का परिणाम है। भारतीय चिंतन परंपरा में जो कुछ गर्व करने लायक है, वह रिलीजन नहीं सामाजिक चिंतन है। रिलीजन तो यहां का भी दुनिया के अन्य रिलीजनों से कुछ भिन्न नहीं है, लेकिन यहां के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक चिंतन अवश्य ऐसा है, जैसा दुनिया में और कहीं उपलब्ध नहीं है। पश्चिम जिस भौतिकवाद, विज्ञानवाद और मानववाद तक 16वीं शताब्दी में पहुंचा, वहां तक भारत अब से ढाई हजार साल से पहले ही पहुंच चुका था। पश्चिम में मनुष्य को केंद्र में रखकर सोचने की प्रवृत्ति मध्यकाल में शुरू हुई, जबकि भारत में आदिम चिंतनकाल से यही प्रवृत्ति चली आ रही है। यहां मध्यकाल में अवश्य कुछ संप्रदायों में ईश्वर को प्राप्त करना मनुष्य का लक्ष्य बन गया अन्यथा सभी चिंतन धाराएं मानव हित ही नहीं प्राणिमात्र के हित के बारे में ही सोचती रहीं।
आज सबसे बड़ी जरूरत है मिथ्या अवधाराणाओं से बाहर निकलने और भारत की मूल पहचान को पुन: आत्मसात करने की। हमें मानववादी, न्यायवादी, विज्ञानवादी समाज और राजनीति की स्थापना का प्रयास करना चाहिए और जो भी शक्ति इसके विरुद्ध आती हो, उसका खडग़हस्त होकर विरोध करना चाहिए। इसमें किसी तरह के मजहबी साम्राज्यवाद को कोई जगह नहीं मिल सकती। लेकिन यदि आज हम वास्तव में भारत के विश्वमानव वाद को दुनिया में प्रतिष्ठित करना चाहते हैं, तो हमें उस दायरे से बाहर निकलना होगा, जो हमें संकीर्णता में कैद करता है। हमने आज हिंदू की व्याख्या को चाहे जितना उदात्त, महान या सार्वभौम क्यों न बना दिया हो, लेकिन वह तमाम अन्य धर्मों और समुदायों से हमें अलग करने के लिए दिया गया नाम है। हम इस नाम से दुनिया के अन्य धर्मों या समुदायों को अपने साथ नहीं जोड़ सकते। हमारे अवसरवादी समझौते हो सकते हैं, लेकिन हम उन्हें आत्मसात नहीं कर सकते।
यदि हमको सभी को आत्मसात करना है, तो हमें अपना दायरा बढ़ाना होगा। संयोग से हमारे अपने ही प्राचीन सामाजिक और राजनीतिक चिंतन का दायरा इतना बड़ा है, जिसमें दुनिया के सारे दर्शन, चिंतन, विचारधाराएं न केवल शामिल हो सकती हैं, बल्कि विकास भी कर सकती हैं, शर्त केवल यही है कि वे न्याय, विवेक और वैयक्तिक मानवीय स्वतंत्रता के विरुद्ध न हों।इसका एक ही चारा है कि हम फिर से भारत और भारती को अपनाएं और अपनी सोच को पुन: सार्वभौम मानववाद से जोड़ें।