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'इस माहौल में साहित्य का महत्व और ज्यादा'

काउंसलर ज़कीया ज़ुबैरी ने कथा यूके गोष्ठी में कहा

दीप्ति शर्मा

कथा यूके गोष्ठी-katha uk ghosti

लंदन। 'आम आदमी के बीच मित्रता एवं शांति पैदा करने में लेखक एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।' यह कहना है काउंसलर ज़कीया ज़ुबैरी का और मौक़ा था कथा यूके एवं एशियन कम्यूनिटी आर्ट्स की मिल-हिल, लंदन में आयोजित साझा कथागोष्ठी जिसमें उर्दू की वरिष्ठ कहानीकार सफ़िया सिद्दीकी एवं हिंदी के कथाकार तेजेंदर शर्मा ने प्रबुद्ध श्रोताओं के सामने अपना-अपना कहानी का पाठ किया। गोष्ठी में ज़कीया ज़ुबैरी कह रहीं थीं कि आज चारों ओर आतंक और दुश्मनी का माहौल दिखाई दे रहा है जिसमें साहित्य का महत्व कई गुना अधिक बढ़ गया है। कई विषयों को एक दूसरे के करीब लाते हुए उन्होंने कहा कि इस प्रकार की कथा-गोष्ठियों के आयोजन से हम हिंदी और उर्दू के लेखकों के बीच एक बेहतर समझ पैदा कर सकते हैं।

वरिष्ठ उर्दू कहानीकार सफ़िया सिद्दीक़ि ने अपनी कहानी 'माली बाबा' का पाठ किया जिसमें दो मालियों की तुलना की गई थी–एक जो पुराने भारत के किसी ज़मीदार घराने का माली है और दूसरा जो कि पूर्वी यूरोप से ब्रिटेन में आकर बसने वाला प्रवासी है। तुलना दोनों के जीने के ढंग से शुरू होती है और उनके बच्चों के बनने वाले भविष्य पर आकर रुकती है। सफ़िया अपनी कहानी के अंत में कहती हैं कि काश! हमारे मुल्क़ के माली को भी जीवन में यहां के माली जैसे अवसर मिलें।

कैलाश बुधवार कहानी से खासे प्रभावित दिखे। उनका कहना था कि यह कहानी हमें यह अहसास करवाती है कि अपने वतन में काम करने वालों को नीचा माना जाता है–वहां के बड़े लोग काम नहीं करते। यहां काम करने वालों की इज्ज़त होती है। परिमल दयाल के अनुसार कहानी के विवरण एवं भाषा कहीं भी बोरियत का अहसास नहीं होने देते। फ़हीम अख़्तर को लगा कि मालियों के चरित्र जैसे जीवन से ही उठा लिये गये थे। पद्मजाजी का कहना था कि कहानी का विन्यास बहुत अनूठा है। दोनों मालियों का जीवन समानांतर चलता है और कहीं कोई झटका नहीं लगता। आनंद कुमार को कहानी की भाषा की आंचलिकता ने बहुत प्रभावित किया। प्रो मुग़ल अमीन के अनुसार कहानी में एक अंतर्प्रवाह है। यह केवल सीधी रेखा में नहीं चलती। लेखिका ने दिखाया है कि भारत के माली की भी ज़मींदारी सिस्टम में जितनी देखभाल संभव थी–हो रही थी। कहानी श्रम के महत्व को रेखांकित करती है।

तेजेंदर शर्मा की कहानी 'फ़्रेम से बाहर' एक बच्ची की कहानी है जिसे मां-बाप बहुत प्यार करते हैं, मगर उसके जुड़वां भाई हो जाने के बाद उसके जीवन में जैसे एक तूफ़ान सा आ जाता है। मां-बाप द्वारा उपेक्षा और कच्ची उम्र में ही होस्टल भेजा जाना नेहा के व्यक्तित्व में संपूर्ण परिवर्तन ले आते हैं। नेहा पर इस हादसे का कुछ ऐसा असर होता है कि उसका विवाह जैसी संस्था पर से विश्वास ही उठ जाता है। वह तय कर लेती है कि वह कभी भी बच्चे पैदा नहीं करेगी।

सभी ने तेजेंदर शर्मा के कहानी पाठ करने के अनूठे ढंग की सराहना की और विशेष तौर पर नेहा के जीवन में आए भावनात्मक तूफ़ान का चित्रण श्रोताओं के दिलों को छू गया। अरुणा अजित सरिया ने अपनी नम आंखों से कहा कि कहानी के थीम को इतने मर्मस्पर्शी ढंग से चित्रित किया गया है कि यह प्रत्येक घर की कहानी बन गई है, मुझे लगा जैसे मैं शायद अपनी कहानी सुन रही हूं। ज़कीया ज़ुबैरी का मानना था कि कहानी थीम, स्टाइल, घटनाक्रम, विन्यास, एवं निष्पादन में अनूठी है, लेखक अपने पाठक को नेहा की भावनाओं को समझने के लिये मज़बूर कर देता है। परिमल दयाल, सुरेंद्र कुमार, फ़हीम अख़्तर एवं आनंद कुमार नेहा के दर्द और कहानी के नयेपन से प्रभावित दिखे।

पद्मजा ने कहानी को थोड़ा विस्तार से विश्लेषित करते हुए कहा कि नेहा के दर्द को इतनी संवेदनशीलता से चित्रित किया गया है कि पाठक पर इसका गहरा असर होता है। नेहा और उसके माता-पिता के बीच संवादहीनता एक ग्रंथि के रूप में उभर कर सामने आती है, जब नेहा का विवाह में विश्वास ख़त्म हो जाता है तो कहानी सामाजिक संरचना को बदलने का कारण बन जाती है। कैलाश बुधवार ने कहानी के चरित्र चित्रण एवं घटनाक्रम की तारीफ़ करते हुए कहा कि कहानी पाठक को बांध लेती है, किन्तु उन्हें लगा कि नेहा का विश्वास विवाह जैसी संस्था से उठने के लिये जो कारण दिखाये गये हैं वे काफ़ी नहीं हैं, यदि नेहा की मां को सौतेली दिखाया जाता तो बेहतर होता। प्रोफेसर मुग़ल अमीन ने अध्यक्षीय टिप्पणी करते हुए कहा, 'यह कहानी सहोदर भाई बहनों के बीच प्रतिद्वंदिता की अद्भुत कहानी है और दिखाती है कि यह किस तरह हाथों से निकल कर विक्षिप्तता की हद तक पहुंच जाती है और रिश्तों में दरार पैदा हो जाती है, यह एक शाश्वत थीम है, लेखक को चाहिये था कि इस थीम को और अधिक विस्तार से प्रस्तुत करता।'

कथागोष्ठी में मोनिका मोहता-निदेशक नेहरू सेंटर, पद्मजा-काउंसलर प्रेस एवं सूचना भारतीय उच्चायोग, आनंद कुमार- हिंदी एवं संस्कृति अधिकारी, प्रोफेसर मुग़ल अमीन, कैलाश बुधवार, अजित सरिया, डॉ नज़रुल इस्लाम बोस, परिमल दयाल, फ़हीम अख़्तर एवं सुरेन्द्र कुमार भी शामिल थे। ज़कीया ज़ुबैरी के धन्यवाद ज्ञापन के साथ ही गोष्ठी समाप्त हुई।

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