राज सिंहली
श्रीलंका भारत उपमहाद्वीप के दक्षिण में हिंद महासागर में स्थित एक बड़ा द्वीप है। यहां से विषुवत रेखा अधिक दूर नहीं है। यह हिंद महासागर के लगभग बीच में है और पूर्व तथा पश्चिम को जोड़ने वाले अधिकांश सागर मार्ग श्रीलंका को छूते हुए गुजरते हैं। एक संकरा सा जलसंयोगी भारत प्रायद्वीप को श्रीलंका से अलग करता है। इस जलसंयोगी में अनेक छोटे-छोटे टापू और मूंगे की चट्टानें हैं, जिनके कारण भारत और श्रीलंका के बीच आवागमन में बड़ी आसानी होती थी। संभवतः ये समुद्रतल में डूबी किसी प्राचीन पर्वतमाला के अवशेष हैं। एक प्राचीन किंवदंती इन्हें राम की वानर सेना द्वारा निर्मित सेतु के अवशेष बताती है।
श्रीलंका की प्राकृतिक विशेषताएं
श्रीलंका का धरातल, मिट्टी और जलवायु सभी जगह एक जैसे नहीं हैं। द्वीप का मध्य भाग पहाड़ी है और उसके चारों ओर मैदान हैं। दक्षिण-पश्चिमी भाग में वर्षा बहुत होती है, जबकि उत्तरी तथा पूर्वी भाग की जलवायु शुष्क है। पहाड़ों से बहुत सी नदियां निकलती हैं, जिनमें वर्षा ऋतु में प्रायः बाढ़ आ जाती है।
श्रीलंका के शुष्क इलाकों में प्राचीन काल में कंटीली झाडि़यां और इने-गिने वृक्ष ही उगते थे, जबकि नम दक्षिण-पश्चिमी भाग घने, दुर्गम जंगलों से ढका हुआ था। इन जंगलों की वनस्पति में आदमी के लिए सबसे अधिक महत्व विभिन्न प्रकार के ताड़ के वृक्षों का था। द्वीप पर जंगली हाथी, भैंसें और दूसरे वन्य जीव-जंतु पाए जाते थे।
श्रीलंका का आदिकालीन इतिहास
पुरातत्ववेत्ताओं की खोजों से पता चलता है कि श्रीलंका में लोग पाषाणकाल में भी रहते थे। संभवतः वेद्दा कबीले के लोग श्रीलंका के सबसे प्राचीन निवासी हैं। ये लोग छठी शताब्दी ईसापूर्व में भी पत्थर के औजार इस्तेमाल करते थे। वे खेती करना जानते थे, मगर सिंचाई का उन्हें कोई ज्ञान न था। उनकी सामाजिक व्यवस्था आदिम सामुदायिक ढंग की थी, हालांकि आबादी में संभ्रांत लोग प्रकट होने लग गए थे। श्रीलंका में इस कबीले के कुछ हजार लोग आज भी पाए जाते हैं।
श्रीलंका के प्राचीन इतिहास के बारे में जानने के लिए सबसे महत्वपूर्ण लिखित स्रोत सुप्रसिद्ध बौद्ध ग्रंथ ‘महावंस’ है। इसका पहला भाग इससे भी प्राचीन लिखित ग्रंथों तथा लोक किंवदंतियों के आधार पर पांचवीं-चौथी शताब्दी ईसापूर्व में रचा गया था।
‘महावंस’ के अनुसार पांचवीं-चौथी शताब्दी ईसापूर्व में राजकुमार विजय के साथ कुछ लोग उत्तर भारत से श्रीलंका में आकर बस गए थे। विजय के कबीले का नाम चूंकि ‘सिंहल’ (सिंह गोत्र) था, इसलिए उसके साथ आए लोग भी सिंहल कहलाये। आज श्रीलंका की अधिकांश आबादी सिंहल है।
प्राचीन काल में श्रीलंका के लोगों के धंधे
आरंभ में सिंहल लोगों ने द्वीप के उत्तरी भाग को ही आबादी किया था। बाद में वे शनैःशनैः अन्य इलाकों में भी बस गए। उनका मुख्य धंधा खेती और पशुपालन था। उन्होंने नदियों से नहरें निकालकर और बरसात का पानी एकत्र करने के लिए बड़े-बड़े जलाशय बनाकर खेतों की सिंचाई का इंतजाम किया। चौथी शताब्दी में निर्मित मिन्नेरी का विशाल जलाशय और कतिपय अन्य प्राचीन जलाशय व नहरें आज तक विद्यमान हैं और इस्तेमाल में आ रहे हैं। सिंचाई सुविधा उपलब्ध होने से धान की खेती का बहुत विकास हुआ। प्राचीन सिंहल लोग अन्य अनाजों व कपास की भी खेती करते थे।
भैंसों, हाथियों और दूसरे पशुओं को पालतू बनाकर सिंहल उनसे तरह-तरह के काम लेते थे। लोहे के औजार बनाने के लिए देश में लौह अयस्क प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था। विभिन्न दिशाओं से आने वाले सागर मार्गों के संधिस्थल पर स्थित होने के कारण श्रीलंका के विदेश व्यापार का खूब विकास हुआ। श्रीलंका पश्चिमी यूरोप तक को मोती, रत्न और सूती कपड़ा निर्यात करता था। शिल्पों और व्यापार के विकास के कारण द्वीप पर नगरों का जन्म हुआ।
प्राचीन श्रीलंका में वर्ग और राज्य
खेती का काम अधिकांशतः किसान करते थे, जो पड़ोसी समुदाय बनाकर रहते थे। किंतु श्रीलंका में दासप्रथा का जन्म भी हो गया था। दास युद्धबंदियों और कर्जदारों को बनाया जाता था। उनसे नहरें तथा बांध बनवाये जाते थे और दासस्वामियों के खेतों में काम करवाया जाता था। दास अपने मालिकों के लिए महल आदि भी बनाते थे।
समाज का दास्वामियों, दासों और किसानों में विभाजन हो जाने से राज्य की उत्पत्ति हुई। ‘महावंस’ के अनुसार श्रीलंका में पहला राज्य देश के उत्तरी भाग में भारत से आए राजकुमार विजय द्वारा स्थापित किया गया था। बाद में अन्य भागों में भी राज्यों की स्थापना हुई।
राज्य का मुख्य काम किसानों से कर वसूलना, विद्रोहों को दबाने तथा पड़ोसियों से लड़ने के लिए शक्तिशाली सेना रखना और सिंचाई का प्रबंध करना था। सिंचाई से राजाओं को काश्तयोग्य जमीन और मिल जाती थी, जिसे वे राज्य की सेवा के एवज में सामंतों, सैनिकों तथा सरकारी अधिकारियों को बांट देते थे।
दक्षिणी भारत से श्रीलंका में तमिल कबीलों का आगमन हुआ। तमिल भारत के सबसे प्राचीन निवासियों में से थे। तमिलों का आव्रजन अधिकांशतः शांतिमय ढंग से हुआ। किंतु कभी-कभी वह सशस्त्र घुसपैठों और रक्तपातपूर्ण युद्धों का भी परिणाम होता था।
दूसरी शताब्दी ईसापूर्व में श्रीलंका के उत्तरी भाग और उसके मुख्य नगर अनुराधापुर पर तमिलों के राजा का अधिकार हो गया। उसने वहां 40 वर्ष से भी ज्यादा राज्य किया। दूसरी और पहली शताब्दी ईसापूर्व के संधिकाल में दक्षिणी श्रीलंका के राजा दुत्थगामनी ने तमिल राजा को हराकर सारे श्रीलंका को अपने अधीन कर लिया और इस तरह एक शक्तिशाली सिंहल राज्य की स्थापना की, जो कई शताब्दियों तक बना रहा।
सिंहलों की प्राचीन संस्कृति
सिंहल राज्य के सुदृढ़ीकरण से श्रीलंका की संस्कृति के विकास में योग मिला। सिंहल आरंभ में भारतीय लिपि ही प्रयोग करते थे, किंतु आगे चलकर उसका रूप अलग हो गया। वे भली भांति काटकर, दबाकर और घिसकर तैयार किए गए आयताकार ताड़पत्रों पर लिखते थे।
प्राचीन श्रीलंका की सबसे महान और प्रसिद्ध साहित्यिक रचना ‘महावंस’ है। उसके अलावा सिंहलों ने अनगिनत गीत, नीति कथाएं और काव्यस भी रचे थे। सिंहल नाट्यकला और नृत्यों का जन्म भी तभी हुआ था।
प्राचीन चीनी बौद्ध यात्रियों के यात्रा-वृत्तांतों में हमें श्रीलंका की प्राचीन राजधानी अनुराधापुर का विस्तृत वर्णन मिलता है। यद्यपि ये वृत्तांत सातवीं शताब्दी ईसवी के हैं, किंतु यह नगर बहुत पहले ही बस चुका था। उसकी सड़कें सीधी थीं। वह कई महल्लों में बंटा हुआ था। उसमें बहुत से मकान दोमंजिलें थे। एक यात्री लिखता है, ‘आकाश की नील पृष्ठभूमि में मंदिरों तथा प्रासादों के स्वर्ण शिखर चमकते हैं। मार्गों पर अनेक सेतु बने हुए हैं। जहां-तहां बड़े-बड़े पुष्पकलश खड़े हैं और दीपक थामे हुए मूर्तियों से युक्त देवलियां बनी हुई हैं।’
आज तक बचे हुए प्राचीन स्मारक तत्कालीन सिंहली वास्तुकला के उच्च स्तर की पुष्टि करते हैं। रुआनवेली पैगोडा (महास्तूप) का शिखर दसियों किलोमीटर दूर से दिखाई दे जाता था। इसका निर्माण राजा दुत्थगामनी के काल में आरंभ हुआ था। पैगोडा की भव्य तथा निर्दोष आकृति उसके निर्माताओं की सुरुचि का ही नहीं, उनके गणित के उच्च ज्ञान का भी प्रमाण है। सिगिरिय (सिंहगिरि) के भित्तिचित्रों में बनी कमनीय मानव आकृतियां बिल्कुल सजीव सी लगती है। श्रीलंका में प्राचीन कलास्मारकों को बहुत सहेजकर रखा जाता है।